महिला लेखन की बिसात और ज़मीन अब बदल गई है। शर्म, संकोच और शराफ़त की जगह अब शरारत, शातिरपन और शोखी अपनी जगह बना रही है। जैसे समाज और व्यवहार बदल रहा है, औरत बदल रही है, वैसे ही महिला लेखन भी। खुलापन का आकाश और बोल्ड होने की अकुलाहट की इबारत महिला लेखन की नई बिसात और चाहत में तब्दील है। ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ की तसवीर अब बिलकुल उलट है।
यह तासीर, यह तसवीर अपने नए तेवर में उपस्थित है। उत्तर प्रदेश की लेखिकाएं भी बदलाव की इस लपट से लापता नहीं हैं, अछूती नहीं है। लिखती थीं कभी इलाहाबाद में बैठ कर महादेवी वर्मा कि, ‘मैं नीर भरी दुख की बदली / उमड़ी कल थी मिट आज चली।’ पर उसी इलाहाबाद में महादेवी के जीते जी ममता कालिया लिखने लग गई थीं कि , ‘प्यार शब्द घिसटते-घिसटते अब चपटा हो गया है/ अब हमें सहवास चाहिए।’ उसी इलाहाबाद में नासिरा शर्मा कहानियों में बोल्डनेस बोने लग गई थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती थीं, ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी !’
पर गोरखपुर से कात्यायनी लिखने लगीं, ‘हे भगवान मुझे एक औरत दो पाप करने के लिए।’ तो बुंदेलखंड की धरती की गंध में ऊभ-चूभ कहानियां लिखने वाली मैत्रेयी पुष्पा बोल्ड लेखन के नए मानक और बुनावट बीन कर एक नई चादर बिछा रही हैं इन दिनों। लगभग विद्रोह की एक नई आंच परोसती मैत्रेयी अब भले नोएडा और दिल्ली की सीमा में बसती हैं पर उन के लेखन का भूगोल अब नारी मुक्ति का नया व्याकरण गढने में मशगूल है, एक नई ज़मीन और एक नई परिधि के साथ उपस्थित है। पुरुष सत्ता को न सिर्फ़ चुनौती देता बल्कि एक हद तक उसे मटियामेट करता।
मैत्रेयी के कथाजगत में समाई स्त्रियां पुरुष सत्ता को न सिर्फ़ चुनौती दे रही हैं बल्कि उन से अपनी गुलामी की जंजीर को तुडाती हुई आइने में उन की तसवीर भी दिखाती हैं और उन की हैसियत भी। उन के ‘इदन्नम’ और अन्य उपन्यासों में ऐसे व्यौरे अनायास मिलते चलते हैं। उन की आत्मकथा में भी बोल्डनेस की जैसे पराकाष्ठा है। ममता कालिया का कथा संसार हालां कि उन की कविताओं की तरह ‘बोल्ड’ नहीं है पर चेतना से लैस है। ममता का उपन्यास ‘दौड’ करियर के दांव-पेंच में उलझे युवाओं की ऐसी दास्तान है जो अविरल है।
करियर की दुरभिसंधि में नष्ट और पस्त होती युवा पीढी की जो आंच ममता कालिया परोसती हैं वह दिल दहलाने वाली है। बेघर से अपनी पहचान बनाने वाली ममता इतने शहरों में रही है कि उन्हें किसी एक शहर में बांधना दुश्वार है। दुक्खम-सुक्खम उन का नया पडाव है। और अब वह भले दिल्ली में रहने लगी हैं पर दिल उन का इलाहाबाद में ही धडकता है। इलाहाबाद एक समय हिंदी लेखकों का गढ हुआ करता था।
छायावाद की त्रयी पंत, निराला, महादेवी की त्रयी आज भी याद की जाती है। पर जो महादेवी वर्मा की गरिमा थी, जो ओज और अवदान था आज भी कोई लेखिका उसे छूना तो दूर आस पास भी नहीं फटक पाई है। तब जब कि महादेवी के पास कोई सवा सौ गीत ही हैं। कुछ रेखा-चित्र, निबंध और लेख हैं। स्त्री विमर्श पर, स्त्री स्वाभिमान पर उन का संग्रह ‘श्रृंखला की कडियां’ का आज भी कोई जोड नहीं है। सुनते हैं कि एक महादेवी की उपस्थिति भर से पूरा महौल अनुशासित हो जाता था। एक वाकया सुनिए।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का। मंच पर महादेवी थीं और फ़िराक गोरखपुरी भी। फ़िराक साहब ने किसी बात पर हिंदी को ले कर महादेवी पर कोई अभद्र टिप्पणी कर दी। बस क्या था कि गीतकार उमाकांत मालवीय ने लपक कर फ़िराक साहब का गिरेबान पकड लिया और कैलाश गौतम ने फ़िराक साहब की टांगें। किसी तरह मामला दहरम बहरम हुआ। लेकिन फ़िराक साहब के पक्ष में कोई एक नहीं खडा हुआ। याद आता है अभी बीते बरस नया ग्यानोदय को दिए एक इंटरव्यू में विभूति नारायन राय ने कुछ लेखिकाओं की आत्मकथा में वर्णित देह संबंधों के मद्देनज़र उन्हें छिनाल कह दिया।
मैत्रेयी पुष्पा समेत बहुतेरी लेखिकाएं और लेखक उन पर पूरा राशन पानी ले कर टूट पडीं । विभूति को अंतत: ‘औपचारिक’ माफ़ी मांगनी पडी। पर उन का वह विरोध लेखिकाएं उस तरह नहीं कर पाईं जिस तरह करना चाहिए था। उलटे पुरुषों की बैसाखी पर टिकी बहुतेरी लेखिकाओं ने तो विभूति के पक्ष में बयान भी दिए। या फिर चुप रहीं। तो शायद इस लिए भी कि एक तो ज़्यादातर लेखिकाएं उन से उपकृत थीं । इस लिए भी कि लेखिकाओं ने महादेवी जैसी गरिमा भी नहीं अर्जित की है। न लेखन में, न व्यवहार में, न जीवन में।
चंद्रकिरन सोनरिक्सा एक ऐसी ही लेखिका हैं जिन्हों ने लेखन और व्यवहार दोनों में गरिमा अर्जित की। खास कर जीवन के अंतिम पडाव में आई उन की आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ ने जो तहलका मचाया अपनी साफगोई, ईमानदारी और बेबाकी के लिए उस का कोई जोड है नहीं। उन का जीवन संघर्ष जो छन कर आया है वह अप्रतिम है। आकाशवाणी लखनऊ की नौकरी और उन के पी सी एस पति की लंपटई और निकम्मई, इंदिरा गांधी से उनका बेबाकी से मिलना, उन का बच्चन जी से शादी होते-होते रह जाना आदि इस विकलता से उपस्थित होता है कि लगता है हम कोई सिनेमा देख रहे हों। उन की कहानियों में भी यही तत्व बार बार उपस्थित होता है।
सुमित्रा कुमारी सिनहा और रमा सिंह जैसी कवियत्रियां भी लखनऊ में रही हैं तो कई-कई बार मिनिस्टर रहीं स्वरूप कुमारी बख्शी भी अभी 93 वर्ष की उम्र में भी साहित्यक जगत में अपनी सक्रियता बनाए हुई हैं। ‘देह छीन ली तुम ने मेरी मन कैसे ले पाओगे’ जैसी कविताएं लिखने वाली अनीता श्रीवास्तव भी हैं। उषा सक्सेना जैसी लेखिकाएं अपने चौथेपन में भी खूब सक्रिय हैं। अनीता गोपेश, आशा उपाध्याय, सुमन राजे, दया दीक्षित भी सक्रिय हैं। दरअसल् लेखिकाओं में संभावना बहुत है पर रास्ता कठिन है। और ज़्यादातर लेखिकाओं में शार्टकट की बीमारी बहुत है।
वह सब कुछ एक साथ और तुरंत ही साध लेना चाहती हैं, हर कीमत पर। पुरुषों को चुनौती भी देती हुई और उन से अपेक्षा भी रखती हुई। वैसे ही जैसे मुट्ठी भी बंधी रहे, हाथ भी उठा रहे और कांख भी छुपी रहे। शायद इसी लिए सब कुछ के बावजूद, सब कुछ बदलने और सब कुछ उलट-पुलट के बावजूद महिला लेखन अपने नए मुकाम पर पहुंचने से निरंतर चूक रहा है। कुछ महिला कहानीकार तो जैसे ज़िंदगी छलावे की जी रही हैं वैसी ही यूटोपिया में उलझी कहानियां भी लिख रही हैं। बिलकुल हवा-हवाई कहानियां। हकीकत का कहीं कोई ओर-छोर नहीं, कोई वास्ता नहीं। वह तो बस लिखे जा रही हैं। और छ्पती भी जा रही हैं, महिला कार्ड खेल कर। और उन की झूठी वाह-वाह करने को पुरुष संपादकों-आलोचकों की एक फ़ौज बैठी हुई है लार टपकाती हुई।
महिला लेखन की एक बडी त्रासदी यह भी है कि आलोचना और संपादन में उन का प्रतिनिधित्व या तो शून्य है या फिर वह पिछ्लग्गू बन कर खडी हैं।दूसरे, अगर कोई कुछ साफ-साफ कह दे कि यह तो ऐसे नहीं ऐसे तो यह लेखिकाएं सीधे दिल पर ले लेती हैं। और कहने वाले के खिलाफ लगभग मोर्चा खोल देती हैं। खुद आलोचक नहीं हो पाईं तो क्या आलोचना भी उन्हें हरगिज़ बर्दाशत नहीं है। हंस, अगस्त,२०११ अंक में अभी छ्पी किरन सिंह की कहानी ‘कथा सावित्री सत्यवान की’ पढ लीजिए। बात समझ में आ जाएगी।
बताइए कि हिंदी में ऐसा कोई एक लेखक भी अगर हो कि किसी महिला की चिट्ठी को आधार बना कर लिखी कहानी का मुआवजा छ लाख रुपए दे दे? पर किरन सिंह की सावित्री अपने बीमार पति के इलाज के लिए ऐसा ही लेखक ढूंढ लेती है। एक प्रकाशक भी है इस सावित्री के पास जो उस के उत्तरी गोलार्ध या दक्षिणी गोलार्ध दबाने और भोगने के लिए नित नए और मंहगे गिफ़्ट भेंटता रहता है। इतना ही नहीं इस सावित्री की इंतिहा तो देखिए कि छ लाख पाने के बाद उस से उस का पति कहता है कि, ‘साल भर का तो तुम ने इंतज़ाम कर दिया। उस के बाद…?’ सत्यवान की सावित्री अपने पूरे गुमान और रौ में कहती है, ‘उस के बाद मैं कोई और ज़िंदगी लिखूंगी, कही और से, किसी और को, अगली कहानी के लिए।’;
महिला और महिला लेखन पर साफ-साफ आकलन रखना ही हो तो बिना किसी का नाम लिए बगैर गोरखपुर की एक समर्थ कवियत्री रंजना जायसवाल की एक कविता पर गौर करें: ‘बहेलिया/ प्रसन्न है/उस ने अन्न के ऊपर/ जाल बिछा दिया है/ भूख की मारी/ चिडिया/ उतरेगी/ ही।’और इसी चिडिया श्रूंखला की दूसरी कविता देखें, ‘चिडिया/ उदास है/उसे सुबह अच्छी लगती है/ पर देख रही है वह/ धरती के किसी भी छोर पर/ नहीं हो रही है/ सुबह।’
महिला और महिला लेखन का पूरा वर्तमान परिदृष्य दरअसल यही और यही है कुछ और नहीं। महादेवी वर्मा की गरिमा, विद्वता और साधना अभी तो बिसर ही गई है महिला लेखन के हिस्से से। अभी और बिलकुल अभी सभी कुछ पा लेने की छटपटाहट में सनी पडी यश:प्रार्थी बनी बहुतेरी लेखिकाओं की लंबी कतार है। उन के लेखन की धरती के किसी भी छोर पर सुबह नहीं हो रही तो उन की बला से ! उन का सूर्योदय तो हो गया है न ! यह लंबी कतार इसी में खुश है। आमीन!
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय का लिखा यह आलेख संडे इंडियन में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.
Mohammed Rafiq Pathan
August 21, 2011 at 10:58 am
” Mahila Lekhan yani Bhookh ki mari chidiya”.. Bahut Sunder ye Artical padne ko mila.. ye na sirf aaj ki mahila lekhkon ki lekhkiye vidmna ko pardashit karta hai balki ye sochne par mazboor bhi karta hai.. ki lekhan me jis taras short cut apnai jarahe wo ane wale samay me kitne ghatak sidh honge iska andaja aaj ke laekhak nahi laga pa rahe hai.. Aaj hum samaj ko kya de rahe hai… Ek taraf jahan Tv ne bedroom tak pahunc kar ashlilta ka nanga naach kiya hai.. or samaj me besharmi ka mahul faila kar …jisse aaj bacche tak khul kar apno se sex par charcha karte hai.. sharmnak isthti hai ye.. wahi lekhak samj ki wo sidi hai jisse samj shikshit hota hai.. or ese lekhn se ham samj ko kya de painge… sochne ka vishai hai… Ek nari vaykti pariwar or samaj sahit desh ko shikshit katrene me mahtavpun bhumika ada karti hai… ese me wo hi is behudgi ka khulapan samaj ke samne pesh karegi to samaj samja nahi rah jaiga… is mudde par aaj ke lekhkon ko sochna chahiye…. Thanks:o
ranjana jaiswal
August 21, 2011 at 11:31 am
दयानंद जी के विचार से मैं सहमत नहीं |उन्होंने निहायत ही पुरूषवादी दृष्टि से मेरी वरिष्ठ लेखिकाओं पर प्रहार करने की कोशिश की है |यद्यपि प्रत्यक्षत; उन्होंने मेरा नाम नहीं लिया है ,पर हम स्त्री रचनाकार अलग नहीं हैं |स्त्री का लेखन आज पुरुषों की इच्छा का मुँहताज नहीं है ,न हो सकेगा |
ranjana jaiswal
August 21, 2011 at 11:34 am
मैं दयानंद जी के विचार से सहमत नहीं |
Mahendra Bhishma
August 21, 2011 at 4:44 pm
Dayanand ji mene do bar gambhirata se padha . aapka gyan va brahad adhdhyan vakai kabile tareef he.. aapko shadhubad per yaha me keval etna hi likhoonga ….. bolo to chandi na bolo to sona
rajat neh
August 21, 2011 at 5:01 pm
महिला लेखन यानी भूख की मारी चिड़िया श्री दयानन्द पाण्डेय का लेख स्पष्ट नहीं है . महिला लेखन पर वे स्पष्टतः कहना क्या चाहते हैं !क्या वे यह कहना चाहते हैं कि जैसा पुरुष चाहते हैं वैसा ही स्त्रियाँ लिखें ! या आज की महिलाएं महादेवी जैसा लिखें? क्या यह समय महादेवी जैसा लिखने का है? क्या आज का पुरुष वैसा है जैसा महादेवी के समय में था? गरिमा और महिमा और सावित्री जैसे कुछ शब्दों की परिधि में महिला लेखन कैसे रह सकता है जब सच बेहद और बेहद कडुवा है . आज जब स्त्रियाँ खुलकर वह सब लिख रहीं हैं जिसे वे भोग रहीं हैं ..तो कुछ लेखक पूरी तरह से बचाव की मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं !शायद लेखक यह कहना चाहते हैं की सबकुछ साफ़ साफ़ बोल्डली लिखने का अधिकार पीढ़ी दर पीढी उन्हीं को हैण्ड ओवर किया जाना चाहिए !
क्या महिलायें चेहरे पर लुग्गा डालकर लिखें ?
umesh soni
August 22, 2011 at 3:50 pm
ठीक कहा आपने मैत्रेयी की “कस्तूरी कुन्डल बसै” हो या प्रभा खेतान की “अन्या से अनन्या तक” को पढकर कोई स्पष्ट राय बनाना कठिन नही है और इस बोल्डनेस को बिभूति नरायन ही नाम दे सकते है। लेकिन इन लेखिकाओ का अपना भी तर्क है जिसे खारिज करना शायद मुश्किल होगा।
दयानंद पांडेय
August 23, 2011 at 5:42 am
मित्रो, इस लेख को लिखा इस लिए कि एक पत्रिका संडे इंडियन ने मुझे इस विषय पर लिखने के लिए कहा था। इस पत्रिका ने हिंदी की १११ लेखिकाओं पर एक विशेष अंक निकाला है, उस के लिए। हां यह सही है कि पुरुष लेखक भी शार्ट कट अख्तियार कर रहे हैं। पर यहां आप को यह बता दूं कि बोल्ड लेखन के खिलाफ मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं ने खुद भी बोल्ड लिखा है। बस यही चाहता हूं कि जो भी लिखा जाए वह तार्किक होना चाहिए। हवा हवाई नहीं। आप ही बताएं कि अगर हम कामुक पुरुष का चित्रण करते हुए लिखें कि वह एक घंटे में ही दस स्त्रियों के साथ संभोग करता है तो इसे कौन भला स्वीकार करेगा? और कि कैसे? दुर्भाग्य से हमारी कुछ लेखिकाएं इसी तरह के कुतर्क रचने में लगी हैं और छपती जा रही हैं कुछ संपादकों को खुश कर के। मैं यही कहना चाहता हूं। तुलसी, मीरा या महादेवी की तरह लिखने की पैरवी भी हरगिज़ नहीं कर रहा हूं। आप लोग लेख ठीक से पढेंगे तो ज़रुर सहमत भी होंगे। उस में एक कहानी का हवाला भी दिया है। गौर करें। और कुछ लेखिकाओं की तरह हवा में नहीं बहें न उडें।
abhishek singh
August 27, 2011 at 1:57 pm
Sir,
bahut achha laga aapka vishleshan. mahila ho ya purush sex ko saphalta ke short cut ke rup me use kiya za raha hai. bahut dino bad aapse net k jariye sampark ho pa raha hai.
nitukumari
August 29, 2011 at 11:50 am
dyanand ji har lekhika ke likhne ke apne anuvav or dayre hote hain ,hawa sirf charecter ka chitran kiya ja sakta hai.Aaj jab sab kuchh badla to strian kyon nahi har bat bebaki se likh sakti hain?
BHAVANA TIWARI
August 7, 2013 at 4:51 pm
क्या कहूँ ,,स्त्रियों की मुखरता कितना कुंठित कर रही है पुरुष प्रधान समाज …महादेवी जी के युग में कोई उनके पंख नोचने को आमादा नहीं था …समाज में अनैतिकता हावी है …फ़िर स्त्रियों के हिस्से में ही क्यूँ सारे सवाल -जवाब …पुरुष लेखक यही लिखें तो वाह वाही …और स्त्रियाँ कागज़ पर उकेर दें तो शातिराना लेखन का तमगा ..उफ़ …!!