तहलका पत्रिका के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर हुए अवामानना याचिका ने एक बार फिर इस प्रश्न को चर्चा में ला दिया है. खास कर के मीडिया, अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के दृष्टिगत. लोगों की आम धारणा है कि न्यायपालिका के पास एक ऐसा हथियार है जो इसे भारी शक्ति प्रदान करता है. यह कथित ताकत है अवमानना का अधिकार. न्यायालय की अवमानना एक गंभीर अपराध है. आखिर यह न्यायपालिका की अवमानना है क्या और इसकी क्या कानूनी स्थिति है?
अवमानना का सामान्य मतलब है किसी की गरिमा को किसी भी प्रकार से कम करना, ठेस पहुंचाना या उस पर प्रहार करना. यही बात न्यायालय की अवमानना पर भी लागू है. अपने देश में इस हेतु जो कानून बना है, वह है कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट 1972. कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट एक्ट के अंतर्गत दो तरह के कंटेम्प्ट परिभाषित हैं- सिविल कंटेम्प्ट और क्रिमिनल कंटेम्प्ट. सिविल कंटेम्प्ट इस अधिनियम की धारा 2 (बी) में दिया गया है, जहां इसे न्यायालय द्वारा दिए गए किसी निर्णय, आदेश, डिक्री, रिट या निर्देश का किसी भी प्रकार से जानबूझ कर अवहेलना के रूप में बताया गया है. साथ ही यदि न्यायालय में किसी प्रकार का कोई अंडरटेकिंग दिया गया हो तो जान-बूझ कर उसके विरुद्ध कार्य करना भी सिविल कंटेम्प्ट की परिभाषा में ही आता है.
क्रिमिनल कंटेम्प्ट इस अधिनियम की धारा 2 (c) में परिभाषित है, जिसके अनुसार इसमें लिखित या बोले हुए शब्दों, संकेतों या दिख रहे हरकतों या अन्य किसी माध्यम से कोर्ट की गरिमा को कम करना या कम करने का प्रयास करना, उसके खिलाफ संदेहास्पद माहौल बनाना, किसी न्यायिक प्रक्रिया में अवरोध करना, न्यायिक प्रणाली तथा न्यायिक प्रशासन में रुकावट बनना आदि सभी कृत्य शामिल हैं.
यही वह कानूनी प्रावधान है जिसके कारण तमाम लोग न्यायिक विषयों पर चर्चा करने से आम तौर पर घबराते हैं. इसके पीछे एक बड़ा कारण लोगों की कानूनी जानकारी का अभाव भी है. सिविल अवमानना के प्रावधानों को ले कर कभी भी किसी भी प्रकार के विवाद नहीं हुए हैं और ना ही किसी ने भी कोई प्रश्न नहीं उठाये हैं. इसके विपरीत क्रिमिनल अवमानना को ले कर अक्सर ऐसे लोग मिल जाते हैं, जिनका मानना होता है कि इसके कारण न्यायपालिका और उसके कार्यों पर खुल कर चर्चा नहीं हो पाती. ये लोग यह भी कहते हैं कि ये क़ानून अब समय के साथ अप्रसांगिक हो गए हैं और अब न्यायपालिका की और अधिक बेहतरी के लिए यह आवश्यक हो गया है कि इस क़ानून को समाप्त कर दिया जाए. कुछ अतिवादी लोग तो इसे न्यायिक प्रणाली में कथित तौर पर पनप रहे भ्रष्ट आचरण के लिए एकमात्र कारण के तौर पर मानते हैं, जिनका कहना है कि इसे न्यायपालिका के गलत लोगों द्वारा अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर के सही-गलत कृत्य किये जा रहे हैं.
सबसे बढ़ कर अखबार वाले और मीडिया इस कंटेम्प्ट के भय से ग्रसित रहती है. किसी भी अखबार वाले से बात करें और किसी कथित न्यायिक दुराचरण की चर्चा करें तो वह तुरंत ही कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट की बातें शुरू कर देता है. इस कदर इस क़ानून का भय अखबारों और मीडिया पर व्याप्त है कि न्यायपालिका से जुड़ी किसी खबर को हाथ लगाने से पहले वे पांच सौ बार सोचते हैं और जब इस बात के लिए पूरी तरह मुतमईन हो जाते हैं कि इस मामले में कोई कंटेम्प्ट नहीं बन रहा है और उनके पास पुख्ता सबूत हैं, तभी उस पर हाथ डालने की हिम्मत करते हैं. इसकी तुलना यदि नेताओं और अधिकारियों से जुड़ी खबरों से करें तो आप पायेंगे कि इन मामलों में पत्रकार बंधु एक छोटा सा सूत्र मिलते ही उस पर पूरा वेद लिख डालते हैं, जबकि दूसरे मामले में एक-एक शब्द ऐसे लिखते हैं जैसे वे बिहारी के दोहे हो.
इस तरह इस प्रकरण में मूल रूप से दो प्रश्न उभर कर आते हैं- एक तो यह कि क्रिमिनल कंटेम्प्ट की जरूरत कितनी है और दूसरा यह कि इसकी जो परिभाषा एक्ट में दी गयी है, न्यायालयों की दृष्टि में उसका मतलब क्या है. पहले प्रश्न के सम्बन्ध में मेरा यह स्पष्ट मत है कि मात्र कुछ लोगों द्वारा इस एक्ट का दुरुपयोग करने के कथित आरोप के कारण इस पूरे प्रावधान को ही गलत या अनुपयोगी करार देना ऐसा ही होगा जैसे चाँद में एक छोटे से दाग को देख कर कोई आदमी पूरे चाँद को ही बेकार करार दे या फिर सेवों की पेटी में एक-दो सेव के खराब होने के नाते कोई आदमी पूरी पेटी को ही फ़ेंक डालने की वकालत करने लगे. यदि इस प्रकार के कानूनी प्रावधान नहीं रहेंगे तो निश्चित रूप से स्थिति अनियंत्रित होगी, अराजकता आएगी और व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा. किसी भी दशा में न्यायपालिका को ले कर एक पॉजिटिव आस्था तथा सम्मान का भाव होना अनिवार्य है.
फिर एक और बात है. वह यह कि तमाम सुप्रीम कोर्ट निर्णयों में यह बात साफ़ जाहिर कर दिया गया है कि कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट किसी भी प्रकार से कोई ऐसा ड्रेकुला या राक्षस नहीं है, जिसका प्रयोग न्यायपालिका अपने किसी गलत प्रयोजन के लिए करता हो. किसी भी निर्णय में यह नहीं कहा गया है कि कोई भी न्यायालय के खिलाफ कुछ भी बोले और उसे तुरंत सजा दे दी जाए. अक्सर यही निर्णय हुए हैं कि इन सभी प्रकरणों में गंभीरता से देखा जाए कि कथित अवमानना-कर्ता का वास्तविक उद्देश्य क्या है. यदि यह साफ़ दिख जाता है कि उस व्यक्ति ने केवल नीचा दिखाने या बेवजह बुराई करने या अदालतों की मानहानि करने के लिए यह बात नहीं कही है बल्कि कतिपय तथ्यों पर आधारित हो कर एक नेक उद्देश्य से ऐसा लिखा-पढ़ा है तो उसे अकारण इस अपराध का दोषी नहीं माना जाना चाहिए.
इससे भी अच्छी बात यह है कि न्यायपालिका के लोग भी इस विषय में लगातार उदार दृष्टिकोण अख्तियार करते जा रहे हैं. मैं हाल में ही जस्टिस मार्कंडेय काटजू का एक लेख- “कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट- नीड फॉर अ फ्रेश आउटलुक” पढ़ रहा था, जिसे पढ़ कर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर आसीन अत्यंत सम्मानित व्यक्ति भी यह सोच रहे हैं कि अब अवमानना का अधिकार उतना भर ही रहे जिससे कोई न्यायालयों और न्यायपालिका के साथ मजाक नहीं करने लगे और न्याय करने की प्रक्रिया और प्रणाली पर किसी प्रकार के विपरीत असर नहीं पड़ें. अन्यथा ये सारे लोग अवमानना को किसी डराने या चुप कराने का औज़ार नहीं मानना चाहते.
मैं ये बातें विशेष कर इस दृष्टि से कहना चाहता हूँ कि मीडिया के लिए इसका बहुत महत्व है. मीडिया ही वह जरिया है जिससे तमाम बातें आम जनता के सामने आ पाती हैं. न्यायपालिका हमारी व्यवस्था का एक ऐसा अंग है जिसकी महत्ता बढ़ती जा रही है और जिसको लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी लगातार बढ़ रहे हैं. ऐसे में अब मीडिया का यह कर्तव्य सा दिखता है कि वह कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट को ले कर एक सम्यक और तथ्य-परक दृष्टिकोण विकसित करे और इसके बाद इनकी परिधि के अंदर खुल कर उन सारी बातों के बारे में लिखे, जिन्हें जानने का अधिकार इस देश की जनता को है. क्योंकि अंत में किसी भी व्यवस्था और प्राणाली तथा नियम-क़ानून का उद्देश्य आम जन के जीवन को बेहतर बनाना होता है, ना कि किसी व्यक्ति को किसी नियम को तोड़ने-जोड़ने के आत्मनिर्णित अपराध में दण्डित करने का.
कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट ऐसा हौव्वा है नहीं जिसे मीडिया के लोग उसकी सही समझ के अभाव में बनाए हुए हैं. यह तो मात्र ऐसा क़ानून है जो न्यायिक प्रक्रिया की गंभीरता और मान को बचाए रखने के लिए बना है, ना कि इसे किसी भूत-बँगला के रूप में चित्रित कर के कोई गलत-सही काम करने के लिए. न्यायपालिका तो बनी ही हैं सत्य के अन्वेषण और अनुसन्धान के लिए, भला वे अपने प्रति सच्चे ह्रदय से और अच्छे उद्देश्यों के लिए की गयी ईमानदार टिप्पणियों को अवमानना क्यों मानेंगी?
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. लखनऊ में पदस्थ हैं. इन दिनों आईआईएम, लखनऊ में अध्ययनरत हैं.
ANIL ROYAL
December 22, 2010 at 7:46 am
अमिताभ जी सही कह रहे हो पर सही मे ऐसा है नही,मैने एक जिला जज के भ्रस्टाचार की खबर छाप दी थी,उ.प्र.न्यायिक सेवा संघ ने हाईकोर्ट में मेरे खिलाफ़ मुकदमा दर्ज करा दिया, वे जज साहेब भी हाईकोर्ट जज बन गये,उस समय जो जज हमारा मुकदमा सुन रहे थे,उन्होने माना कि हमारी खबर सही है पर साथी जज का मामला था ,उन्होने बीच मे पड्कर मामला खत्म कराया,नहीं तो नैनी जेल जाना पड्ता,अब आप बताओ कि सच छापकर बिना कसुर जेल जाना कौन सी बहादुरी है,?समय बडा बलवान है ,इस समस्या का भी हल निकल आयेगा. अब काट्जु जी जैसे जज खुलकर बोलने लगे तो मामला सुधर ही जायेगा