चिरायु हों सभी पत्रकार लेकिन आलोक के साथ एक युग का अंत हुआ है. उन सा न कोई था, न कोई होगा. उस शब्दावली, उस शैली और उस तेवर को दुनिया तरसेगी. मेरे लिए तो वे भगवान थे. उत्तराखंड के एक गाँव से उठ कर जनसत्ता (चंडीगढ़) की मेरिट में मैं उन्हीं का अनुसरण कर टाप कर पाया था.
पहली बार जब मिला उन्हें दिल्ली में आभार व्यक्त करने के लिए तो माँगा था उनसे- आप सा नहीं तो आपका होना चाहता हूँ. बोले, दिक्कत क्या है. गले से लग जाओ यार. एक समय ऐसा भी आया कि चंडीगढ़ जनसत्ता की खबरें दिल्ली डेस्क पर देखी जाने लगीं. वे डेस्क पर नहीं थे. फिर भी वे मेरी स्टोरीज़ देखते. बताते, सुझाते भी.
चौबीस बरस हो गए. उनका वो प्यार और स्नेह मिलता रहा. चंडीगढ़ जनसत्ता बंद हो गया. आलोक भी जनसत्ता में नहीं रहे. मैं जैन टीवी में था. मैंने सीओओ और अपने मित्र सुनील गुप्ता से बात की. आलोक हमारे संपादक हो गए. ये अलग बात है कि जैन टीवी उन्हें पचा नहीं सका. विजय दीक्षित से चंडीगढ़ में पहली ही मुलाक़ात में मैंने आलोक का ज़िक्र किया तो उनकी आखों में एक चमक थी. वे एस1 लाये तो आलोक (मेरे सुझाव नहीं, अपने प्रबल प्रताप के बल पर) उनके सम्पादक थे. वहां जो घटा उसके बारे में आलोक खुद ही बहुत कुछ बता चुके हैं.
होली के दिन मैंने माँ को खोया तो उसके बाद कभी होली नहीं खेली. अब अपने गुरु, अपने मित्र और भाई आलोक तोमर को खोया है तो लगता है शब्दों का चितेरा भी चला गया है. कोशिश करेंगे उनके प्रशंसक कि उनकी बेबाकी, उनके तेवर और उनकी रचनाओं को जिंदा रख सकें. आमीन.
लेखक जगमोहन फुटेला वरिष्ठ पत्रकार हैं.