मौत का तांडव और सरकारी उदासीनता

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उत्‍कर्षमई-जून में मानसून की दस्तक के साथ ही उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बसे गावों की हर मां के चेहरे पर एक अनजाना खौफ पसर जाता है। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहली से परेशान इन गांवों के लोग स्थानीय देवी-देवाताओं की मनौतियां मानने लगते हैं। सिर्फ एक आपदा से बचने के लिए, गौर कीजिए ये आपदा बाढ़ नही, सूखा नही, भूकम्प नहीं सिर्फ जापानी बुखार की बीमारी है। मानसून की दस्तक होने के साथ ही इस क्षेत्र के इकलौते मेडिकल कालेज- जो गोरखपुर में स्थित है- के बाल रोग विभाग में रोजाना बच्चों के मरने की गणनाएं शुरू हो जाती है और उसमें साथ ही शुरू होती हैं जापानी इन्सेफलाइटिस की चर्चाएं।

तीन-चार माह बाद ये चर्चाएं स्वाभाविक रूप से दबने लगती हैं और पूर्वांचल के गांव धान की फसल काटने में व्यस्त हो जाते हैं। सियासी स्यापा बन्द हो जाता है, क्षेत्र में कुकरमुत्तों की भॉति फैले एनजीओ नई परियोजनाओं के निर्माण में लग जाते हैं, पर इस बीमारी से होने वाली मौतों के दुख पर इससे बच गए बच्चों की जिन्दगी का दर्द भारी पड़ जाता है, सोचिए अगर कोई बच्चा पिछले 10 सालों से पेट में डाली गई नली के जरिए खाना खा रहा हो या सालों से बेवजह हंसता या रोता रहे या मासूम दिखने वाली किशोरी लोगों को देखते ही हमला कर दे तो ऐसी जिन्दगी को क्या कहेंगे?

गोरखपुर में शाहपुर इलाके के 9 साल का बिलाल तेज आवाज सुनकर घम्म से गिर जाता है। 2 साल पहले तक मेधावी विद्यार्थी के रूप में हास्टल में पढ़ रहा बिलाल अब सारे शब्द भूल चुका है। अगर कोई उसे ट्रेन दिखाकर जहाज कहे तो वे ट्रेन को जहाज कहने लगता है। बिलाल के पिता मोहम्मद तहसीन अपने बेटे की हालत देख अकेले में जार-जार रोते हैं और मां आस्मा के साथ उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा अब दवाओं पर खर्च हो रहा है। गोरखपुर के ही पिपराईच कस्बे में रहने वाले विनोद यादव की 16 वर्षीय बेटी पूनम को भी दो साल पहले पूरब के प्लेग कहे जाने बीमारी वाले जापानी इसेफलाइटिस ने अपना शिकार बनाया था। पूनम की जान तो बच गयी पर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गयी। उसकी यादाश्‍त अब खत्म हो गयी है। पहले कर्ज लेकर दवा कराने वाले विनोद ने अब दवा भी बन्द कर दी है।

उत्तर प्रदेश के पूर्वी तराई इलाके में बिलाल और पूनम अकेले नहीं है। सालाना मृत्यु का महोत्सव बनाने वाले जापानी इसेफलाइटिस की बीमारी ने इस इलाके में बिलाल और पूनम और गुड्डी सरीखे सैकड़ों दुर्भाग्यशाली बच्चों के रूप में ऐसे अवशेष छोड़े हैं जिन्हें देखना एक हौलनाक अनुभव हैं। गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज के बाल रोग विशेषज्ञ प्रो. केपी कुशवाहा कहते है- ‘इसेफलाइटिस से बच गए बच्चों में से 20 फीसदी के लिए आगे की जिन्दगी का मतलब सिर्फ सांस लेना है।’

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से इस बीमारी ने पिछले 20 वर्षों में 6500 से ज्यादा बच्चों की जान ली है पर 1978 में पहली बार रिकार्ड किए गए 1072 मौतों के बाद जब सन् 2005 में यह आंकड़ा 1000 के पार पहुंचा तो पूरा शासनतन्त्र हिल गया। गौरतलब यह है कि इस बीमारी से पीड़ित होने वाले बच्चों में से लगभग 2 प्रतिशत ही शुरुआती स्थिति में मेडिकल कालेज तक पहुंच पाते हैं और 93 प्रतिशत गांव के डाक्टरों के भरोसे पर रहते है। उत्तर प्रदेश योजना आयोग की ‘उत्तर प्रदेश विकास रिपोर्ट’ के मुताबिक- जापानी इसेफलाइटिस राज्य में बहुत बड़ी चुनौती है, देश में जापानी इसेफलाइटिस के कुल मामलों में 60 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में पाए गए हैं। पूर्वांचल में यह मौत का प्रमुख वाहक है। बीमारी के फैलने के दिनों में औसतन 10 बच्चे रोज बीआरडी मेडिकल कालेज के बालरोग वार्ड में लाए जाते हैं, जिनमें से अधिकांश की मौत हो जाती है। इस साल अब तक 219 बच्चों की मौत हो चुकी है।

सन् 2007 में गोरखपुर स्थिति गैर सरकारी संगठन एपीपीएल (एक्शन फार पीस, प्रोस्पेरिट एण्ड लिबर्टी) के द्वारा किए गए अध्ययन यह बात साफ कर देते है कि इस बीमारी के होने की वजह वह परिवेश ही है, जिसमें इस क्षेत्र के अधिकांश गरीब परिवार निवास करते है। अध्ययन के मुताबिक इस बीमारी से पीड़ित होने वालों में से 74 प्रतिशत निम्न आय वर्ग के लोग है, 48 प्रतिशत लोग जल जमाव से प्रभावित इलाकों में रहते हैं जहां पीने के पानी और स्वच्छता की स्थिति दयनीय है। इस बीमारी के समाजिक प्रभाव भी अत्यन्त चिन्ताजनक है। एपीपीएल के सर्वे के मुताबिक 85 प्रतिशत मामलों में बच्चों की विकलांगता का असर पूरे परिवार पर पड़ता है और परिवार आर्थिक शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जाता है। सर्वे में शामिल 78 प्रतिशत पीड़ितों के परिजनों के मुताबिक कर्ज के चलते कई रिश्तेदारों ने मुंह मोड़ लिया। विशेषज्ञों के अनुसार इस जानलेवा बीमारी के फैलने का कारण मच्छर हैं, जो गन्दे पानी में पनपते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार पीड़ितों में लगभग 60 प्रतिशत ऐसे हैं, जो गन्दे और ठहरे जल के 30 मीटर के भीतर निवास करते है। और 84 प्रतिशत पीड़ित भूर्गभ जल के प्रथम स्तर का पानी ही पीते हैं।
बीमारीजिसे गॉवों में सामान्यतः पेयजल के लिए इस्तेमाल करने वाले हैन्डपम्पों से निकाला जाता है। बीआरडी मेडिकल कालेज में स्थित राष्ट्रीय वायरोलाजिकल लैब के रिसर्च सांइटिस्ट अशोक पाण्डेय के अनुसार- ‘इस बीमारी का मूल कारण पेयजल का प्रदूषण है, यदि स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता इस क्षेत्र में सुनिश्चित कर दी जाए तो इसके पीड़ितों की संख्या में 50 प्रतिशत की कमी तुरन्त आ सकती है।’

हॉलांकि अब इस बात पर भी वैज्ञानिकों का मत बन रहा है कि यह बीमारी जो अबतक जापानी इन्सेफलाइटिस के रूप में देखी जा रही थी, यह कोई और वायरस फैला रहा है और अब इसे एईएस (एक्यूट इंसेफलाईटिस सिन्ड्रोम) कहा जाने लगा है। परन्तु बीमारी के नामों के उलझाव से अलग पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई के 13 जिलों के बच्चों की जिन्दगी दांव पर लगी हुई है। धान के प्रमुख उत्पादन का इलाका होने के साथ ही यह क्षेत्र बाढ़ और जल जमाव के लिए जाना जाता है। साल के तीन से चार महीने यहां जल जमाव की स्थिति बनी रहती है और इस कारण यहां भूर्गभ जल का स्तर 15 फीट से 40 फीट होता है। बाढ़ के साथ ही यहां इन्‍सेफलाइटिस का प्रकोप भी बढ़ता है। इन इलाको में शौच के लिए प्रायः लोग जल जमाव वाले क्षेत्रों या खुले स्थानों पर जाते है, जिससे सक्रंमण का खतरा बढ़ जाता है। इस क्षेत्र के प्रतिष्ठित डाक्टर त्रिलोक रजंन के अनुसार- ‘धान के खेतों, जलजमाव वाले क्षेत्रों और सुअरबाड़े के पास रहने वाले लोग इस बीमारी के सबसे आसान शिकार हैं और बीमारी में अधिकांश 6-12 वर्ष के बच्चे हैं, जिनके मस्तिक पर इस बीमारी के वायरस का हमला सबसे अधिक होता है। संक्रमित पेयजल रक्त के माध्यम से मस्तिक तक पहुंचता है और बच्चे के तान्त्रिका तन्त्र पर हमला कर देता है।’ शायद इसीलिए अब कहा जाता है कि – इसेफलाइटिस से मरने वाले बच्चे उन बच्चों से अधिक भाग्यशाली होते है जो इस हमले में बच जाते है।

पूर्वांचल की महामारी बन चुकी इस बीमारी से बच्चों को बचाने की सरकारी कोशिशें वितृष्णा पैदा करने वाली है। 1978 के बाद पहली बार वर्ष 2006 में इस बीमारी से बचाने का टीकाकरण अभियान यूनिसेफ द्वारा चलाया गया और इस अभियान में 96 प्रतिशत लक्ष्य पूरा बताया गया, पर एपीपीएल के सर्वे ने इस दावों की पोल खोल दी। संस्था के मुताबिक उसके सर्वेक्षण में सिर्फ 28-30 प्रतिशत ही बच्चों का टीकाकरण किया जा सका। 2007 से इसे सामान्य प्रतिरक्षण कार्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया। एपीपीएल के संस्थापक डा. संजय श्रीवास्तव का कहना है कि जापानी इंसेफलाईटिस के टीकाकरण के लिए विशेषताएं की जरूरत होती है क्योंकि यह त्वचा के भीतर सावधानी से लगाना पड़ता है, यह तब ही सम्भव है जब कोई प्रशिक्षित फार्मासिस्ट या कम्पाउन्डर इसे लगाए। पूर्वांचल के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्रों की दशा देखते हुए तो इस टीकारण अभियान की सत्यता स्वयं संदेह के घेरे में आ जाती है।

इक्का -दुक्का गम्भीर संस्थाओं को छोड़ इस विषय पर काम करने वाले गम्भीर गैर-सरकारी संस्थानों का भी इस क्षेत्र में अभाव है। कोई भी संस्था इस बीमारी से पीड़ित बच्चों के लिए पुनर्वास की योजना नही चला रही है, यूनिसेफ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी टीकाकरण से आगे नहीं निकल पा रही और स्थानीय एनजीओ तो पर्चा बांट कर ही अपने कर्तत्यों की इति श्री कर लेते हैं।

बीमारी से प्रभावित परिवारों की एकमात्र आशा- गोरखपुर में स्थित मेडिकल कालेज अपनी खुद की बीमारी से जूझ रहा है। खराब व्यवस्थाओं और अपर्याप्त डाक्टरों के कारण इसे हर वर्ष एमसीआई के कोप का शिकार होना पड़ता है। दो वर्ष पूर्व जब राज्य सरकार ने मेडिकल कालेज के जापानी इंसेफलाइटिस वार्ड से जुड़े सभी विशेषज्ञों का तबादला करने का फैसला किया तो कालेज प्रशासन और डाक्टरों को झटका लगा, हालांकि अदालत का आदेश था कि रिटायर होने वाले इंसेफलाइटिस विशेषज्ञों को बरकरार रखा जाए और रोग नियन्त्रण कार्यक्रम से जुड़े डाक्टरों का तबादला न किया जाए।

पूरे मामले में एक दिलचस्प पहलू भी है। इंसेफलाइटिस पीड़ित क्षेत्र के जनप्रतिनिधि, गोरखपुर के नगर विधायक डा. राधामोहन अग्रवाल पेशे से बालरोग विशेषज्ञ है और निजी क्लीनिक चलाते है। पर जन प्रतिनिधियों ने सदन में इक्का दुक्का प्रश्न पूछने के अलावा ऐसा कोई ठोस काम नहीं किया है, जिससे बदनसीब बच्चों की जान बचाई जा सके। पूर्वांचल की मांओं के सामने ईलाज का यक्ष प्रश्न है और बच्चों के सामने स्वस्थ्य भविष्य का प्रश्न, पर इन सभी प्रश्नवाचक चिन्हों से इतर देश और प्रदेश के व्यवस्थापक गहरी नींद में हैं।

लेखक उत्कर्ष सिन्हा फितरत से यायावर हैं तो मिजाज से समाजकर्मी. वर्तमान में दैनिक लोकमत, लखनऊ के प्रमुख संवाददाता हैं. किसान आन्दोलन सहित लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए चल रहे जन आन्दोलनों में शिरकत करते रहते हैं. एमिटी यूनिवर्सिटी में अतिथि प्रोफ़ेसर के तौर पर छात्रों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाते हैं.

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