अपन प्रेस क्लब और उसके पतित पथ की बात करें, उस से पहले एक छोटा, सच्चा किस्सा. आखों देखा, मेरे गाँव का. कोई बीस तीस शिकारी कुत्ते ले के शिकारियों ने हांका लगाया हुआ था कि गन्ने के खेतों से जान बचाता एक हिरन निकला. जान जाती देख शायद जानवर को भी अकल आई. उधर खेतों में कहीं एक बुज़ुर्ग किसान था. हिरन सीधा उसके पास आ बैठा. किसान मेंड़ बना रहा था. बनाता रहा.
इतने में देखा तो शिकारी और उनके कुत्ते दौड़े चले आ रहे हैं. किसान को माजरा में समझ में आया. उसने फावड़ा चलाया और अपनी शरण में बैठे हिरन की गर्दन अलग कर दी. शिकारी आये तो बोला, शिकार मेरा है. किसान हिरन को घर लाया, काटा, बनाया और पूरे परिवार को खिलाया. इसके बाद डेढ़ हफ्ते में उसका पोता चल बसा, डेढ़ महीने में बेटा. बहु पागल हो गयी, पोती भाग गई और डेढ़ साल के अन्दर अन्दर उसकी ज़मीन बिक गई. उसके कोई छ: महीने बाद लोगों से बीड़ियाँ मांगता मांगता वो खुद भी चल बसा.
सबक ये कि भरोसे और सुपुर्ददारी में कभी गद्दारी नहीं करनी चाहिए. चंडीगढ़ प्रेस क्लब ने वही किया है. इस शहर, समाज और सरकार ने पत्रकारों पे एक भरोसा किया कि इनको मिल बैठने सोचने विचारने लिखने बोलने की कोई जगह देंगे तो ये चौथे स्तम्भ का काम करेंगे. फिर पत्रकारों ने अपने में से कुछ चुना कि इस संस्था व्यवस्था सुचारू तरीके से चलती रह सके. और उन ने क्या किया इसकी एक बानगी देखिए.
क्लब छोटे से बड़ा और कुछ लोगो की हसरतें उस से भी बड़ी होती चली गईं. सरकारें, मंत्री, मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति और विदेशी राजदूत तक ये मान के क्लब आने लगे कि क्लब में आ के कही उनकी बात उनके प्रतिष्ठानों के ज़रिए समाज, देश और दुनिया तक पंहुचेंगी. क्लब के पदाधिकारियों ने इनसे अपने उल्लू सीधे किए. जो भी आता कुछ दे के जाता. मायावती ने एक बार एक ही किश्त में तीस लाख रूपये तक दिए. पांच पांच लाख देने वालों की तो कोई गिनती ही नहीं है. क्लब की ज़मीन क्लब को एक रूपये सालाना की लीज़ पर चंडीगढ़ प्रशासन ने दी. आज इस जगह की कीमत कम से कम पचास करोड़ तो ज़रूर होगी. क्लब ने अपने स्थानीय सांसद पवन कुमार बंसल को पकड़ा. उनसे कहा कि किचन बनानी है. कुछ पैसे दे दो. चार लाख रूपये मांगे. बंसल ने कहा, दे देंगे.
क्लब ने किचन बना डाली. ये सोच कर कि बंसल साहब ने बोला है. फिर भी उन्हें यहीं रहना और यहीं से चुनाव भी लड़ना है. पैसे तो आ ही जाएगे. सांसद के निधि कोष से पैसे दरअसल जिला मजिस्ट्रेट के ज़रिए खर्च होने होते हैं. उनका जब अमला जगह की नाप तोल करने आया तो देखा कि किचन तो बन भी चुकी. उसने रिपोर्ट दी. बंसल ने कहा भैया बनी हुई किचन के पैसे तो नहीं दे सकता मैं. कभी और कुछ बनाना होगा तो बताना, देख लेंगे. क्लब वालों ने कहा चलो कोई बात नहीं लायब्रेरी के लिए दे दो. बंसल ने कहा, ले लो. बंसल ने करीब सात लाख रूपये अपने सांसद कोटे से एप्रूव कर के चिट्ठी जिला मजिस्ट्रेट (उसको इधर डीसी बोलते हैं) को लिख दी.
क्लब ने डीसी के साथ सांसद कोष से लायब्रेरी बनाने का एक एग्रीमेंट किया. इस एग्रीमेंट के मुताबिक़ लायब्रेरी क्लब की पहली मंजिल पे बननी थी. उसपे तब के क्लब प्रधान, डीसी और गवाह के तौर पर जनरल सेक्रेटरी रमेश चौधरी के साइन हैं. डीसी ने कहा एस्टीमेट और नक्शा दो. कायदे से सांसद निधि कोष से मिले पैसे वाली किसी भी परियोजना पर काम सिर्फ सरकारी विभाग यानी पीडब्ल्यूडी ही कर सकती है. मगर क्लब ने गुरिंदर सिंह नाम के एक ठेकेदार से करीब सात लाख रूपये का एस्टीमेट बनवाया, भेज दिया. डीसी ने सरकारी एसडीओ से जांच कराई. पलट के चिट्ठी लिखी कि एस्टीमेट बहुत ज्यादा बनाया गया है. इतने रेट हो नहीं सकते. लेकिन इसके बावजूद क्लब ने जोड़ तोड़ कर के एस्टीमेट पास करा लिया. लायब्रेरी ‘बनने’ लगी.
बीच बीच में प्रोग्रेस रिपोर्ट जाने लगी. इनमें से एक में कहा गया कि शटरिंग हो चुकी,छत डालनी बाकी है. ये रिपोर्ट सरकारी एसडीओ ने दी. जब लायब्रेरी ‘बन’ चुकी तो डीसी ने कम्लीशन रिपोर्ट मांगी. इसे तकनीकी भाषा में यूटीलाईज़ेशन रिपोर्ट कहते हैं. उस पे क्लब के प्रधान या जनरल सेक्रेटरी के ही दस्तखत होने चाहिए थे. मगर क्लब ने शहर के एक कांग्रेसी नेता के एक सीए भानजे को पकड़ा और उस से रिपोर्ट भिजवा दी. डीसी ने मान भी ली. पूरे पैसो का भुगतान हो गया.
अब इसमें सवाल ये है कि…
(एक) जब सांसद कोष से कोई रकम किसी सहकारी संस्था को दी ही नहीं जा सकती तो दी गई क्यों? क्लब आखिर एक सोसायटी है और बाकायदा चंडीगढ़ के रजिस्ट्रार आफिस से रजिस्टर्ड है.
(दो) जब सांसद कोष से मिली किसी रकम से होने वाले किसी भी निर्माण को कोई प्राइवेट ठेकेदार कर ही नहीं सकता तो यहाँ गुरिंदर सिंह का एस्टीमेट देख लेने और खुद सरकारी एसडीओ से वो झूठा पाए जाने के बावजूद प्रोजेक्ट एप्रूव कैसे किया गया?
(तीन) क्लब के तब ज्वाइंट सेक्रेटरी सतीश भारद्वाज ने खुद पवन बंसल को चिट्ठी लिख कर इस घोटाले की जानकारी दी. बंसल ने भरद्वाज को पत्र लिख कर धन्यवाद तो दिया. जांच कोई उन ने भी नहीं कराई. क्यों? (बता दें कि पवन बंसल मनमोहन सरकार में संसदीय कार्य मंत्री हैं.) क्या इस चुप्पी की वजह ये है कि कम्पिलीशन सर्टिफिकेट उनके एक कांग्रेसी नेता के भांजे ने दिया था. जांच होती तो वो भी फंसता?
(चार) सतीश भारद्वाज ने इस घपले घोटाले की डीसी से शिकायत की. इसके बावजूद कोई जांच या कारवाई क्यों नहीं हुई? और..
(पांच) लायब्रेरी जब पहले से थी. ग्राउंड फ्लोर पे वो भी कोई पन्द्रह साल पहले से (शौक़ीन सिंह के नाम पर) तो फिर नई लायब्रेरी की ज़रूरत क्या?
जवाब कोई नहीं देगा. क्योंकि जवाब कोई है ही नहीं. सच ये है कि पहली मंजिल पे लायब्रेरी बनाने की बात कही ही इस लिए गई क्योंकि ग्राउंड फ्लोर पे वो पहले से थी, आज भी है. और पहली मंजिल पे जो लायब्रेरी बनाने का एग्रीमेंट हुआ, जिसका एस्टीमेट गया और मंज़ूर हुआ, जिसे देख कर सरकारी एसडीओ भी कहता और बताता रहा कि बिल्डिंग कितनी बनी, कितनी बाकी बची, वो लायब्रेरी क्लब में पहली मंजिल तो क्या नीचे, ऊपर, अगल, बगल, क्लब के ऊपर आसमान या नीचे पाताल में भी कहीं नहीं है..! लायब्रेरी कभी बनी ही नहीं. इसी लिए कम्लीशन रिपोर्ट पे क्लब के पदाधिकारियों ने खुद साइन करने की बजाय किसी सीए से करा दिए. सात लाख रूपये लेकर ठेकेदार गुरिंदर सिंह चलता बना. क्लब में जब कुछ सदस्यों ने ठेकेदारों और पदाधिकारियों के बीच रिश्ता जगजाहिर कर दिया तो उन्हें क्लब से सस्पेंड कर दिया गया. अब उस सस्पेंशन और किसी और भी सदस्य को रखने, निकालने के लिए क्लब ने जो कमेटी बनाई है उसमें वो रमेश चौधरी मेम्बर है जिसने बाकायदा स्टाम्प पेपर पे पहली मंजिल पे लायब्रेरी बनाने वाले एग्रीमेंट पे साइन किए हैं.उसने डीसी को पत्र लिख लिख कर कार्य की प्रगति की जानकारी भी दी.
अब सरकारें क्लब को दिए लाखों रुपयों का यूटीलाईजेशन सर्टिफिकेट मांग रही हैं. वो है नहीं. ये श्वेत पत्र कमेटी उसी का विकल्प पैदा करने की चाल है. कहने को वो पिछले दस साल में हुए खर्चों का हिसाब बनाने के लिए बनाई गई है. मगर ज़ाहिर सी बात है खर्चे वो गिनाएगी तो उनके लिए आए धन का ज़िक्र भी उसी ने करना है. वो अगर लायब्रेरी के नाम पर इसके अलावा भी आए और लाखों रुपयों का ज़िक्र नहीं करती तो मरती है. करती है तो क्लब के खाते में अब वो हैं नहीं. इस चालाकी को समझ एकाध को छोड़ कर सभी मेम्बरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं.
वैसे भी सदस्यों के निलंबन और भ्रष्टाचार के मामले जब अदालतों में विचाराधीन और सबज्यूडिस हैं तो कोई भी कमेटी उसमें टांग अड़ा भी कैसे सकती है?
लेखक जगमोहन फुटेला चंडीगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं, जर्नलिस्टकम्युनिटी.कॉम के संपातक हैं. जिस खतोकिताबत का ज़िक्र इस आलेख में किया गया है, उस सबके दस्तावेज़ जगमोहन फुटेला के पास सुरक्षित हैं. इनसे संपर्क journalistcommunity@rediffmail.com के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “यों पतन को प्राप्त हुआ चंडीगढ़ प्रेस क्लब”
किसी दिन वैसा ही हाल होगा किसान वाला
patan ho raha hai loktantr ke rakhwalon ka.
press clubs ko raj netaon se paisa milna band hona chahie. Prss club ke thikane daru ke adde ban rahe hain.