ऐसे में यदि मैं आपको यह बताऊं कि ये मेरे कोई हमउम्र साथी नहीं बल्कि एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं तो संभव है आप एक बार में सहसा विश्वास नहीं करें. इसके कई कारण हैं. पहली बात तो यह कि आईएएस अधिकारियों की आम छवि अत्यंत गंभीर, अल्प-भाषी और स्व-केंद्रित व्यक्तियों की होती है. ज्यादातर लोगों का ऐसा मत और अनुभव होता है कि एक आईएएस अधिकारी से बात कर पाना आसान नहीं है, (यदि आप कोई बड़े नेता नहीं हैं) या फिर बाते भी होगी तो बड़ी नपी-तुली, एक दम से सधी हुई. शायद देश की सर्वोच्च सेवा का सदस्य होने का भाव और भार इन अधिकारियों पर इतना भारी पड़ जाता है कि ये सपने में भी, अकेलेपन में भी, तन्हाई में भी इस महती जिम्मेदारी के भार से मुक्त नहीं हो पाते. इस कारण लोगों का अनुभव यह बताता है कि आप जल्दी एक आईएएस अधिकारी के मित्र नहीं हो सकते क्योंकि उस व्यक्ति को यही भय सताता रहता है कि सामने वाला व्यक्ति कहीं मित्रता के नाम पर उसका दुरुपयोग ना कर ले.
यही अदा साठ साल की उम्र तक रहते-रहते इंसान की दूसरी आदत सी बन जाती है जिसके कारण ये रिटायर्ड अधिकारी अवकाशप्राप्ति के बाद भी इस भार, बोझ और बंधन से मुक्त नहीं पा पाते. नतीजा यह होता है कि इन लोगों से मिलने पर ऐसा लगता है जैसे किसी बहुत ही बोझिल व्यक्ति से मुलाक़ात हो गयी है जिस पर सारी दुनिया का बोझ है और यह बोझ उसे खुल कर हँसने, बोलने और जीवन का सहज आनंद लेने से रोक रहा है. मैं नहीं कहता कि यह बात केवल इन आईएएस अधिकारियों के साथ होती है. दरअसल यही स्थिति
ऐसे में यदि कमल टावरी की तरह का कोई वरिष्ठ आईएएस अधिकारी दिख जाता है जो खुल कर हंसता है, खुल कर बोलता है, मस्त रहता है, मस्ती में बातें करता है, केवल सिद्धांत की बड़ी-बड़ी बातें नहीं करता, जमीन से तालुक्क रहता है एवं खुद को एक सामान्य आदमी मानते हुए आम जन-जीवन से जुड़े बोल बोलता है तो एक झटका सा तो लगता ही है. कमल टावरी को अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए किसी सहारे की जरूरत नहीं है. 1968 बैच का यह अधिकारी आईएएस में आने से पहले छह साल इंडियन आर्मी में भी एक अधिकारी के रूप में काम कर चुका था. कई जिलों के कलेक्टर और कई जगहों के कमिश्नर रहने के अलावा टावरी साहब राज्य और केन्द्र सरकार में कई महत्वपूर्ण विभागों के सचिव रह चुके हैं. साथ ही नार्थ-ईस्ट कौंसिल और कापार्ट के मुखिया के रूप में भी काम किया है.
लेकिन शायद टावरी साहब शुरू से ही कुछ दूसरी मिटटी के बने थे. तभी तो सेवा के बाद से नहीं, सेवा के दौरान ही वे अपना रास्ता अपनी मर्ज़ी के अनुसार बनाने लगे थे. खुश-मिजाज, हमदर्द, सरल, सहज और मनमौजी तो वे पहले से ही थे, अपनी नौकरी के मध्य में ही उन्होंने यह निश्चित कर लिया था कि वे किसी घिसे-पिटे रास्ते पर संदर्भित मान्यताओं के अनुसार नहीं चलेंगे बल्कि अपनी मंजिल भी खुद तय करेंगे और अपने मापदंड भी. डॉ टावरी (जी हाँ, टावरी साहब एलएलबी के अलावा पीएचडी भी हैं) हमें एक किस्सा बताते हैं कि कैसे एक बार जब वे फैजाबाद के कमिश्नर थे तो उन्हें राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद से जुड़े एक मामले में (यह बात सन 1985 की है जब मंदिर मस्जिद दोनों मौजूद थे) कोई बात नहीं मानने के कारण रातों-रात अपने पद से हटा दिया गया था.
वे बताते हैं कि उनके तात्कालिक मुख्य सचिव ने उन्हें यह सूचना देते हुए कहा था कि जब मुख्य सचिव ने तात्कालिक मुख्यमंत्री से कहा था कि टावरी अच्छे अधिकारी हैं तो मुख्यमंत्री ने उन्हें कहा कि तभी तो उन्हें एक बहुत अच्छे पद पर भेजा जा रहा है. जहां वे पदस्थापित किये गए थे वह था उत्तर प्रदेश खादी बोर्ड. डॉ टावरी कहते हैं कि उस दिन उन्होंने यह निर्णय किया कि वे बाकी की अपनी नौकरी में कभी किसी के पास किसी पोस्टिंग के लिए नहीं जायेंगे. साथ ही यह भी कि वे हमेशा उस पोस्ट के लिए खुद को तैयार करेंगे जिसे सामान्यतया लोग डम्पिंग ग्राउंड कहते हैं.
ऐसा लगता है कि डॉ टावरी ने इस बात को केवल सोचा नहीं बल्कि इसका पालन भी किया. उस पर यदि उनका खुद का खुलापन, कुछ करने की चाहत और कृत्रिम बंधनों से आज़ादी को जोड़ दिया जाए तो जो व्यक्तित्व सामने आता है वह है कमल टावरी. आप इनसे मिलिए और एक बार में यह मानेंगे नहीं कि यह इतना बड़ा अधिकारी रहा होगा. सामाजिक कार्यकर्ताओं की मुद्रा में कुर्ता-पायजामा और पैरों में साधारण सा चप्पल. चेहरे पर बड़ी-बड़ी दाढ़ी.
आप इनसे घंटों बात कीजिये और एक बार भी इनके पूर्व में किये गए “महान’ कृत्यों का जिक्र नहीं आएगा. एक बार भी वे बड़े-बड़े नाम नहीं लेंगे, एक भी अपना महान वृत्तांत अपनी यश-गाथा के नहीं गायेंगे और एक बार भी भ्रष्टाचार, कदाचार और इस तरह से बर्बाद होते हुए देश का रोना नहीं रोयेंगे. पूरी तरह आज में जीने वाला यह इंसान शत-प्रतिशत आशावादी है और इस बात को लेकर मुतमईन है कि यदि हम सही ढंग से समाज को देखेंगे, इसका सही विश्लेषण करेंगे और इंसानी कमियों और खासियतों का उचित आकलन करते हुए अपनी भावी रणनीति बनाएंगे तो हम निश्चित रूप से अपने उद्देश्यों को ले कर सफल होंगे. डॉ टावरी की यह जीवन-दृष्टि उन्हें बाकी तमाम सामजिक चिंतकों से अलग भी करती है और सामने वाले को दिशा दिखाने के साथ-साथ उसमे आवश्यक उत्साह का संचरण भी करती है.
डॉ टावरी अच्छे आदमी होंगे, बुरे आदमी होंगे, अच्छा काम किया होगा या नहीं किया होगा, ये बातें मैं गहराई से ना तो जानता हूँ और ना ही जानने को कत्तई आतुर हूँ क्योंकि मेरा यह मानना है किसी व्यक्ति के आकलन के लिए अपनी आँखों और अपने मन से बेहतर कोई साधन नहीं है. उस लिहाज से मैं इस युवा-ह्रदय आशावादी सामजिक कार्यकर्ता और
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. इन दिनों आईआईएम, लखनऊ के शोधार्थी हैं.
Comments on “वे अच्छे आईएएस हैं तभी तो उन्हें कमिश्नर पद से हटाकर खादी विभाग में भेज रहा हूं”
अरे वाह ……ये आदमी हैं या आईएएस…दोनों एक तो नहीं होता कभी.
thanks amitabh sahab,aapnae ek achae I.A.S.sae milvaya.hamnae aapkae barae mein kafi suna hae.asha hae aap bhi ek I.P.S. na hokar achae aadmi hongae.
sir aapke dwara hm ek aise vyakti ko jaan sake jo aapne aap me ek mishaal hain. shayad aise vyaktitwa ko hi kahete hain.. sada jivan ucch vichar……
aise hi aur logo ke bare me hume bataate rahiyega jinse hm prerna le sake