निगाह पड़ी- ”नोएडा फिल्म सिटी में ‘कार-ओ-बार’ बंद!” पर. समझने में कुछ समय लगा. शायद किसी कारोबार की बात होगी जो इस समय नोयडा फिल्म सिटी में किन्ही कारणों से बंद पड़ा होगा. फिर लेख देखना शुरू किया तो पहला वाक्य ही मुझे संबोधित था-“कप्तान साहब से टीवी जर्नलिस्टों की अपील”. उसके आगे लिखा था- “जरा जल्दी रेट फाइनल कर लें”. ठीक है, अभी कप्तान नहीं हूँ, अगर कभी प्रमोट हो गया तो शायद दुबारा कप्तान भी ना बनूँ. पर उत्तर प्रदेश में नौकरी पा कर और दस जिलों में पुलिस कप्तान बन कर इतना तो हक मान ही लेता हूँ कि यदि कप्तान साहब की बात चल रही है तो उसमें मैं भी धक्का दे कर शामिल हो सकता हूँ. लिहाजा इसमें कुछ अपना सा दिखा और फिर आगे पढ़ना शुरू कर दिया.
पर देखा यहां तो व्यथा-कथा ही दूसरी है. टीवी जर्नलिस्टों की जो अपील है और रेट फाइनल करने के बारे में जो गुहार है, वह कुछ दूसरे ही प्रकार का है जिसे आम बोलचाल की भाषा में दो नंबर का काम कहते हैं. लेख एक खुले पत्र की शक्ल में है जिसमें लेखक तो अज्ञात हैं पर उनका दावा है कि यह पत्र “कार-ओ-बार बंद होने से आहत कई टीवी जर्नलिस्टों की तरफ से लिखित, संपादित और अग्रेषित पत्र” है जिसे “फिल्म सिटी में काम करने वाले तमाम पीड़ित पत्रकारों के स्वहित में जारी माना जाए”.
पत्र बड़े भावनात्मक ढंग से लिखा गया है, निश्चित रूप से किन्हीं सहिष्णु, उदार-चेता और समभावी विचारों के व्यक्ति द्वारा प्रेषित है. हमारे देश में भ्रष्टाचार, कदाचार, घूसखोरी, करप्शन, पैसे के लेन-देन पर लोग अक्सर उत्तेजित से रहते हैं और इस तरह की बातों के संज्ञान में आते ही तुरंत उस पर तीखी और तल्ख़ टिप्पणी करना शुरू कर देते हैं. उन्हें इस बात पर कड़ा ऐतराज़ होता है कि भारत जैसे महान देश में भ्रष्टाचार का कीड़ा उनके रहते कैसे यहां-वहां घूम पा रहा है. कई लोग तो शायद अंदर से इस बात पर भी आहत होते हैं कि जो माल-मसाला उनके हाथों में आना चाहिए था, जिसे उनकी तिजोरी की शोभा बनना चाहिए था, वह दूसरी जगह कैसे चला गया.
फिर यदि भ्रष्टाचार और कदाचार की सूचना किसी पत्रकार साथी को मिल जाए तो पूछिए ही मत. एकदम से आफत. अखबार वाले हैं तो कई सीरीज में लेख शुरू कर देंगे और टीवी वाले हैं तो एक बार फिर से वही शोर-गुल, चीखें और चिल्लाहट. कई बार तो मैं सोचता हूँ कि इन लोगों में कितना जीवट है भाई कि घोटाला नंबर एक, घोटाला नंबर दो से घोटाला नंबर सत्रह हज़ार तीन सौ अड़तीस का हाल देख कर भी ये जनाब घोटाला नंबर सत्रह हज़ार तीन सौ उनतालीस में फिर उसी तेजी से जुट जाते हैं जैसी तेजी उन्होंने पहली बार दिखाई थी. हमने तो मोहम्मद गौरी के बारे में पढ़ा था कि वो सत्रह हार के बाद भी नहीं माने और अंत में दिल्ली का किला फतह कर ही लिया. यहाँ तो सब के सब मोहम्मद गौरी की ही परम्परा का पालन करने पर लगे दिखते हैं.
खैर, मुख्य बात यह है कि पत्र लेखक का कहना है कि नोयडा में किसी प्रकार का कोई प्रशासनिक सत्ता परिवर्तन हुआ है जिसके कारण वहां कुछ ऐसी व्यवहारिक कठिनाईयां उभर आई हैं. वे इस प्रकार की दिक्कतों के प्रति सदभाव और सदिच्छा रखते हैं. उनका यह मानना है कि कई चीज़ें स्वाभाविक होती हैं और उन पर अनावश्यक रूप से आंदोलित और उत्तेजित नहीं होना चाहिए. वे इसे प्राकृतिक न्याय मानते हैं कि यदि कोई नया वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आएगा तो वह पहले सभी बातों को “गहराई” से अपने ढंग से समझने का प्रयास करेगा और इस प्रक्रिया में कुछ लोग स्वतः ही प्रभावित होंगे.
वे तो मात्र इतनी गुजारिश करते दिखते हैं कि जो भी प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है वह शीघ्र एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंच जाए और नोयडा फिल्म सिटी का वातावरण पहले की तरह एक बार फिर से गुलज़ार हो जाए, आबाद हो जाए और वहां की हंसी-खुशी, वहां की चहचाहट एक बार फिर पहले की तरह बिखरने लगे. वे यह स्वाभाविक मानते हैं कि –”साल में एक दो बार ऐसा ही होता है। ये दुकानें हटवा दी जाती हैं। जब भी यहां वसूली का रेट बढ़ाना होता है, ऐसा ही होता है।” सबसे बड़ी बात जो मुझे इस अज्ञात लेखक में दिख पड़ती है वह है इन्ही अदभुत सहिष्णुता. देखें तो ज़रा, वे क्या कह रहे हैं- ”ये कप्तान साहब पर आरोप नहीं है। तंत्र ऐसा है कि कोई किसी की मदद नहीं कर सकता।”
उन्हें तो बस यह फ़िक्र है कि फिल्म सिटी उदास है। सबसे गज़ब की बात यह है कि उनका अनुरोध भी बहुत सीधा-सादा, स्वाभाविक सा है- ”अगर नए कप्तान साहब ने फर्ज निभाते हुए ये दुकानें हटवाई हैं तो मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि जरा अट्टा में भी कुछ प्रबंध कर लें।”
लेकिन यदि मुझे इन भाई साहब के प्रति सहानुभूति है तो साथ ही मुझे नैसर्गिक रूप से यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मैं खुद भी एक कप्तान रहा हूं. एक बड़ी प्रचलित कहावत है- “संघे शक्ति कलियुगे.” ऐसे में जिस भी किसी संस्था, संगठन, संयंत्र में एकता का अभाव होगा और जहां लोग आपस में एक दूसरे का दुःख-दर्द नहीं समझते हुए एक-दूसरे के प्रति वफादारी का भाव नहीं रखेंगे, वहाँ निश्चित रूप से दुश्मनों के बल में वृद्धि होगी, तंत्र कमजोर हो जाएगा और व्यवस्था के नष्ट होने की पूरी संभावना रहेगी. मैं कदापि नहीं चाहूँगा कि अन्य विभूषणों के साथ-साथ मैं जयचंद के रूप में भी याद किया जाऊं. इसीलिए मुझे माफ करें, मेरे अज्ञात दोस्त. यदि आप अपने तमाम आहत टीवी जर्नलिस्टों की तरफ रहना उचित समझते हैं तो मेरा भी फ़र्ज़ बनाना चाहिए कि मैं भी ऐसे वक्तों में अपनी बिरादरी का पुरजोर समर्थन करता नज़र आऊं.
इसीलिए, मेरे सद-विचारी भ्राता, तनिक धैर्य धारण करें, सब ठीक हो जाएगा. कहते हैं ना कि सहज पके सो मीठा होए और हड़बड़ी का काम शैतान का. इसीलिए न तो आप शैतान बनिए और न दूसरों को शैतान बनने पर मजबूर कीजिये.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. इन दिनों आईआईएम, लखनऊ के शोधार्थी हैं.
vikas mishra
December 10, 2010 at 10:17 am
अमिताभ जी, आपने बहुत बढ़िया लिखा है। संघे शक्तिः जायज है, आप उधर ही रहिए, लेकिन आपने फिल्म सिटी का दर्द भी समझा, इसके लिए आपको धन्यवाद। मैंने भी कारोबार वाला लेख पढ़ा और मैं भी उस लेख के समर्थन में हूं। एक टिप्पणी भी आई है, बड़ी जोश वाली, लेकिन उससे नोएडा फिल्म सिटी के गुलजार होने के सवाल पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर ये दुकानें फर्ज निभाने, भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए और क्लीन नोएडा के मकसद से बंद की गई हैं, तो मैं प्रशासन के साथ हूं। लेकिन ये सच नहीं है। मैं भी यहीं के एक चैनल में काम करता हूं। करीब पांच साल यहीं गुजरे हैं। हर हकीकत से वाकिफ हूं। नजीर देने में फंस जाऊंगा, लेकिन क्या करूं सदा सुहागन की तरह रंगीन फिल्म सिटी विधवा की मांग की तरह सूनी दिख रही है। कार में बार चलाने को चलिए जायज न माना जाए, लेकिन एक कप चाय पीने आखिर लोग कहां जाएं। चाय सिर्फ पेय नहीं है, समाजवाद का सशक्त हथियार है। काफी हाउसेज में पहले क्रांति की तैयारियां होती थीं, आंदोलन का ब्लू प्रिंट तैयार होता था। हम आप भी मेहमानों को चाय पर बुलाते हैं। बेटी की शादी का ख्याल आने के बाद मम्मी बेटी के नौजवान दोस्त को चाय पर ही बुलाती हैं, जैसा कि एक गाने में भी कहा गया है। एक दूसरे चैनल के पत्रकार चाय की दुकान पर ही एक दूसरे का हाल चाल लेते हैं। बौद्धिक भड़ास निकालते हैं। खबरों पर बहस करते हैं। नई जानकारियों, नए नजरिए का आदान प्रदान होता है। चाय की तलब उतनी नहीं होती, जितनी जरूरत खुली हवा में, खुले आसमान के नीचे मेल मिलाप की महसूस होती है।
रहा सवाल कानून का तो बहुत समझने समझाने की जरूरत नहीं है। बात सिर्फ नजरिए की है। सरकार मद्य निषेध कानून बनाती है, शराब को नरक का जनक और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताने वाले विज्ञापनों से शहर पाटती है, लेकिन वही सरकार सेना के जवानों और अफसरों को बाजार से चौथाई दाम पर शराब मुहैया करवाती है। सरेआम भांग पीना, भांग बेचना कानूनन जुर्म है, लेकिन अगर बनारस में भांग और ठंडाई बंद करवा दी जाए। तो गोदौलिया चौराहा और लंका क्या उतना ही गुलजार रहेगा। लौंगलता और रसगुल्ले की बिक्री क्या उतनी ही रहेगी। सच मानिए, आधी रात बनारस की दुकानों पर रबड़ी खाने कोई नहीं आएगा। चाय-पान की ये दुकानें फिल्म सिटी की लाइफ लाइन हैं, इससे मैं भी इत्तेफाक रखता हूं। जिसे गाली देना हो दे ले, लेकिन दफ्तरी तनाव को कार-ओ-बार में ही दूर करने को मैं जायज भी मानता हूं। क्यों दफ्तरी गम को लेकर घर जाया जाए। घर का सुख सुकून खत्म किया जाए। यहीं लिया, यहीं देकर जाएं, खुशी खुशी दफ्तर आए तो खुशी खुशी वापस भी जाएं। हर्ज ही क्या है।
gaurinath
December 11, 2010 at 8:17 am
vikas mishra ji ki in lino se main sahmat hun…चाय सिर्फ पेय नहीं है, समाजवाद का सशक्त हथियार है। एक दूसरे चैनल के पत्रकार चाय की दुकान पर ही एक दूसरे का हाल चाल लेते हैं। बौद्धिक भड़ास निकालते हैं। खबरों पर बहस करते हैं। नई जानकारियों, नए नजरिए का आदान प्रदान होता है। चाय की तलब उतनी नहीं होती, जितनी जरूरत खुली हवा में, खुले आसमान के नीचे मेल मिलाप की महसूस होती है।
जिसे गाली देना हो दे ले, लेकिन दफ्तरी तनाव को कार-ओ-बार में ही दूर करने को मैं जायज भी मानता हूं। क्यों दफ्तरी गम को लेकर घर जाया जाए। घर का सुख सुकून खत्म किया जाए। यहीं लिया, यहीं देकर जाएं, खुशी खुशी दफ्तर आए तो खुशी खुशी वापस भी जाएं। हर्ज ही क्या है।