: भगवती चरण वर्मा की जयंती 30 अगस्त पर विशेष : कुछ लेखक होते हैं जो बहुत कुछ लिख जाने के बाद भी अपना पता नहीं दे पाते तो कुछ लेखक ऐसे भी होते हैं जिन की रचनाएं तुरंत उन का पता दे देती हैं। पर किसी लेखक की रचना ही अगर उस का पता बन जाए तो? किसी रचनाकार की रचना ही उस का पता हो जाए ऐसा नसीब मेरी जानकारी में दुनिया के सिर्फ़ एक ही लेखक के हिस्से में आया है। रचना है चित्रलेखा और लेखक हैं भगवती चरण वर्मा।
तब के दिनों में चिट्ठी लिखने का चलन था। और लोग भगवती चरण वर्मा को चिट्ठी लिखते थे और पता के रूप में लिखते थे चित्रलेखा के लेखक। न कोई मुहल्ला, न कोई शहर न कोई देश या प्रदेश। कुछ भी नहीं लिखते थे लोग। और मजा देखिए कि भगवती चरण वर्मा के पास वह चिट्ठी सही सलामत और समय से पहुंच जाती थी। और फिर ऐसी चिट्ठियों की संख्या दो-चार-दस नहीं असंख्य थीं। ऐसी लोकप्रियता वाले लेखक भगवती चरण वर्मा इसी लखनऊ में अपने जीवन का अधिकांश समय गुजार कर गए हैं। पर अब लखनऊ तो छोड़िए उसी महानगर मुहल्ले में जहां वह रहते थे चित्रलेखा नाम से ही घर बनवा कर उसी चित्रलेखा या भगवती बाबू के घर के बारे में पूछिए तो घर तो बहुत दूर की बात है भगवती चरण वर्मा को ही लोग जानने से मुकर जाएंगे। बताइए भी कि यह कौन सा समय है? आखिर किस समय में हम जी रहे हैं अब? एक वह समय था कि चित्रलेखा के लेखक भर लिख देने से चिट्ठी भगवती चरण वर्मा को मिल जाती थी। मैं ने तो वह समय भी देखा है कि जब लखनऊ के हजरतगंज में भी किसी से पूछ लीजिए कि भगवती चरण वर्मा कहां रहते हैं तो लोग बता ही देते थे। न सिर्फ़ पता बता देते थे बल्कि वहां जाने का रास्ता भी बता देते थे।
इलाहाबाद में एक त्रिवेणी और थी निराला, पंत और महादेवी की। तो एक त्रिवेणी लखनऊ में भी। कल-कल, छल-छल करती गोमती से भी ज़्यादा वेग में बहती यह त्रिवेणी थी भगवती चरण वर्मा, यशपाल और अमृतलाल नागर के साहित्य की त्रिवेणी। तीनों की धारा अलग थी, रंग और गंध अलग थी। भाषा, शिल्प और कथ्य में भी तीनों अलग थे। पर बहते रहते साथ-साथ थे। उठते-बैठते साथ-साथ थे। आपसी मतभेद भी बहुत थे पर मजाल क्या था कि कोई किसी पर कोई ऐसी-वैसी टिप्पणी भी कर दे या कोई सुन ले। तीनों आपस में एक दूसरे का सम्मान करते हुए थकते नहीं थे। एक छोटा सा वाकया सुनिए। भगवती बाबू के निवास चित्रलेखा पर ही कुछ लेखकों का जमावड़ा था। आपस में चुहुल भी जारी थी। यशपाल जी का घर भी उसी महानगर में थोड़ी दूरी पर ही बन रहा था। किसी ने मारे खुशी के यशपाल जी से कहा कि, ‘आप भी अपने घर का नाम दिव्या रख लीजिए !’ यशपाल जी ने बहुत धीरे से अपनी आपत्ति रख दी थी, ‘ मैं ने सिर्फ़ दिव्या ही नहीं लिखा है।’ और बात खत्म हो गई थी।
चित्रलेखा नाम से एक शानदार घर जरूर बनवाया भगवती चरण वर्मा ने लखनऊ में पर सच यह है कि लखनऊ उन्हें बहुत पसंद नहीं था। वह तो लखनऊ को खंडहरों का शहर बताते थे। वह इसे अपनी ग़लती बताते थे। उन्हों ने लिखा है कि, ‘हम खंडहर में बस गए हैं यानी हमारा मतलब यह है कि हमें अब आ कर पता चला कि हम खंडहरों के शहर में बस कर धीरे-धीरे खुद खंडहर बनते जा रहे हैं।’ इस पर उन्हों ने एक कविता भी लिखी : ‘ हम खंडहर के वासी, साधो, हम खंडहर के वासी/ ज्ञान हमारा बड़ा अटअटा, मति है सत्यानाशी/ हम तो जनम-जनम के मूरख, जग है निकट बिसासी/ दास भगौती अपनी ही गति, लखि-लखि आवत हांसी/ साधो हम खंडहर के वासी।’ सचमुच अगर वह आकाशवाणी की नौकरी न किए होते लखनऊ में तो शायद यहां घर तो नहीं ही बनाते। हुआ यह कि जब आकाशवाणी की नौकरी उन्हों ने छोड़ी तो उन की जगह इलाचंद्र जोशी की नियुक्ति हुई। जोशी जी को ले कर नगर महापालिका के तत्कालीन प्रशासक से वह मिले कि जोशी जी को महापालिका का एक फ्लैट किराए पर मिल जाए। उसी प्रशासक ने उन्हें महानगर में जमीन लेने की सलाह दे दी। तब के दिनों वह
विशेश्वरनाथ रोड पर अपने भतीजे के बंगले में रहते थे। उन्हों ने प्लाट ले लिया और 1960 में चित्रलेखा बन कर तैयार हो गया। वह स्थाई रूप से लखनऊ के वासी बन गए।उन्नाव के एक गांव सफीपुर में पैदा हुए भगवती चरण वर्मा कानपुर के रहने वाले थे। बचपन में पिता नहीं रहे। तो भी उन्हों ने बी.ए. एल.एल.बी. किया। कानपुर, हमीरपुर से लगायत प्रतापगढ़ तक में प्रैक्टिस की। पर वकालत उन की कहीं भी चली नहीं। भदरी के राजा सहित कुछ सेठों की भी नौकरियां की उन्हों ने पर टिक कर कहीं रहे नहीं। हफ्ते दस दिन वाली नौकरियां भी की उन्हों ने। पर उन का अक्खड़ स्वभाव उन्हें यहां वहां घुमाता रहा। कोलकाता से लगायत मुंबई तक की फ़िल्म इंडस्ट्री में भी वह रहे। पर बात कहीं जमी नहीं। कोलकाता में तो वह फ़िल्म छोड़ कर प्रेस खोल बैठे। और विचार नाम से एक पत्रिका भी निकाली। पर जल्दी ही वह मुंबई चले गए। देविका रानी की फ़िल्म कंपनी में रहे। पर देविका रानी के एक सहयोगी अमिय चक्रवर्ती से पटी नहीं तो वह फ़िल्म कंपनी भी छोड़ बैठे। मुंबई में भी वह प्रेस लगाने के जुगाड़ में थे कि लखनऊ से नवजीवन छपने की बात हुई। वह संपादक बन कर लखनऊ आ गए। पर मुख्यमंत्री गोविंदबल्लभ पंत और रफी अहमद किदवई की रस्साकशी में वह ज़्यादा दिन संपादक नहीं रह पाए। आकाशवाणी उन का नया ठिकाना बनी। और वह फिर लखनऊ के हो कर रह गए। भले वह लखनऊ को खंडहर कहते रहे हों पर उन की रचनाओं में लखनऊ लगातार उपस्थित है।
अमृतलाल नागर की तरह वह भले न लखनऊ पर फिदा होते रहे हों पर लखनऊ उन पर हमेशा फिदा रहा। उन के उपन्यास, उन की कहानियां और उन की कविताएं लखनऊ की आब और मस्ती में निरंतर ऊभ-चूभ रही हैं। दो बांके जैसी उन की कहानी लखनऊ के जिस खिलंदड़पने को बाचती हैं वह अविरल है। और सारी उठापटक के बाद जब बात आती है कि चारपाई के उस पार के तुम, और इस पार के हम तो फिर झगड़ा किस बात का? लखनऊ के रकाबगंज का रंग और लखनऊ की नफासत क्या तो इस कहानी में कलफ लगा कर बोलती है। यही हाल मुगलों ने सल्तनत बख्श दी में है। यह कहानी अपने रूप रंग में एक बार लगती है कि ऐतिहासिक है। पर सच यह है कि इस का इतिहास-उतिहास से कुछ लेना देना नहीं है। सिर्फ़ माहौल बुनते हैं भगवती बाबू इस में ऐतिहासिकता का। और इस बहाने वह चोट करते हैं साम्राज्यवाद पर। साम्राज्यवाद के विस्तार पर। भगवती चरण वर्मा के यहां असल में न ज्ञान है न ऐतिहासिकता न कोई दर्शन-वर्शन। उन के यहां तो सिर्फ़ और सिर्फ़ किस्सागोई है। आप को किस्सा कहानी का मजा लेना हो तो आइए भगवती चरण वर्मा के कथालोक में। नहीं ज्ञान, दर्शन, इतिहास आदि की भूख हो तो कहीं और जाइए। वह तो अपने को निरा भाग्यवादी बताते थे और गाते फिरते थे, ‘हम दीवानों की क्या हस्ती/ हैं आज यहां कल वहां चले,/ मस्ती का आलम साथ चला,/ हम धूल उड़ाते जहां चले।’ कवि सम्मेलनों में उन का यह गीत तब इतना मशहूर हुआ था कि किशोर साहू ने अपनी फिल्म ‘राजा’ में इसे इस्तेमाल किया। फिर तो यह गीत सिर चढ़ कर बोलने लगा।
वह यहीं नहीं रुके और लिखते रहे,’वैसे वैभव और सफलता से हमको भी मोह है’ पर क्या करें? /कि हम कायल हैं धर्म और ईमान के/ हमको तो चलना आता है केवल सीना तान के।’ लोग बताते हैं कि भगवती बाबू तब के दिनों कवि सम्मेलनों में अपने सस्वर पाठ और कविता में अलग गंध बोने के कारण खूब लोकप्रिय थे। उन के लेखन में वह चाहे कविता हो या कहानी, उपन्यास किसी में भी आलोचकों को कला वला नहीं मिलती। उन के यहां वैसे भी सीधे-सीधे नैरेशन हैं। कोई आलोचक जो उन्हें टोकता भी इस बात पर कि आप की कला कमज़ोर है, शिल्प पर ध्यान दीजिए। तो वह कहते कि यह कला वला अपने पास रखो। हमें तो बिना कला के ही सब से ज़्यादा रायल्टी मिलती है। मेरा बैंक बैलेंस इसी से बनता है। सचमुच लोग बताते हैं कि उन दिनों राजकमल प्रकाशन दो ही लेखकों को सब से ज़्यादा रायल्टी देता था। एक सुमित्रा नंदन पंत को दूसरे भगवती चरण वर्मा को। भगवती चरण वर्मा असल में मध्य वर्ग के लेखक हैं। मध्य वर्ग की ही तरह वह पूरे भाग्यवादी हैं। कर्म को हालांकि वह खारिज नहीं करते फिर भी भाग्य को वह बड़ा मानते थे। जीवन में भी और रचना में भी। उन के नाटक भी मध्यवर्ग की कथाओं में ही लिपटे हैं और कहानी उपन्यास भी। प्रेमचंद को वह अपना आधार मानते थे। और साफ कहते थे कि प्रेमचंद न होते तो हम न होते। सोचिए कि कभी सातवीं कक्षा में हिंदी में फेल होने वाला विद्यार्थी कक्षा नौ तक आते आते कवि बन जाता है। अठारह बीस बरस तक आते-आते वह बड़े-बड़े कवियों के साथ उठने बैठने लगता है। और एक दिन हिंदी का शीर्ष लेखक भी बन जाता है। यह भी क्या विरल संयोग है कि हिंदी सिनेमा में दो ही ऐसे उपन्यास हैं जिन पर दो बार फिल्म बनी है। एक शरत बाबू की देवदास पर दूसरी भगवती बाबू की चित्रलेखा पर।
अशोक कुमार, मीना कुमारी और प्रदीप वाली फ़िल्म तो रंगीन में बनी और पैसे भी खूब मिले। पर यह भी एक इत्तफाक ही है कि भगवती बाबू चित्रलेखा पर बनी दोनों ही फिल्मों से निराश थे। दोनों ही उन्हें अच्छी नहीं लगीं। चित्रलेखा की कहानी माना जाता है कि अनातोले फ्रांस के उपन्यास ‘थाया’ से मिलती जुलती है। बाद में उन्हों ने यह तो माना कि चित्रलेखा लिखने की प्रेरणा अनातोले फ्रांस की ‘थाया’ से मिली है और कि दोनों पुस्तकों की मूलभूत विषयवस्तु में कुछ समानता है। पर यह भी कहा कि चित्रलेखा और अनातोले फ्रांस की ‘थाया’ में वही अंतर है जो उन में और अनातोले फ्रांस में है। वैसे भी थाया में जो पाप और पुण्य की विवेचना जो गंभीरता लिए हुई है वह चित्रलेखा में उस घनत्व में नहीं है और कि कथा भी भारतीय परिवेश की हो गई है। जो तमाम पाठकों को ऐतिहासिक गंध भी देती चलती है। तब जब कि सच यह है कि चित्रलेखा का ऐतिहासिकता से कुछ भी लेना देना नहीं है। सिवाय एक माहौल बुनने के।
कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कि जब वह पद्मभूषण से सम्मानित किए गए तो लोगों से वह कहते फिरे कि, ‘अगर तुम्हीं को पद्मभूषण बना दिया जाए तो सरकार का क्या कर लोगे?’ उनका एक आत्मकथात्मक उपन्यास है धुप्पल। तो वह अपने को भाग्यवादी मानते हुए यह भी मानने लग गए थे कि उन के जीवन में जो भी कुछ घटा या मिला जुला सब धुप्पल में ही था। बताइए कि पैसे की जरूरत हो और आप उस के लिए एक नोटबुक खरीद कर जितने पन्ने उस में हों, उतनी कविताएं एक ही दिन में लिख कर प्रकाशक से पैसे लेने पहुंच जाएं क्या ऐसा हो सकता है? भगवती चरण वर्मा ने यह किया। और यह कविता संग्रह छपा भी एक दिन शीर्षक से। इस पूरे वाकए का बहुत ही विभोर भाव में नागर जी ने वर्णन लिखा है।
उन के पास कार थी, सारी सुविधाएं थीं फिर भी वह पैदल ही लखनऊ घूमते-धांगते मिल जाते थे लोगों को। वह महानगर से पैदल ही हजरतगंज काफी हाऊस चले आते थे या अमीनाबाद चले जाते थे, चौक में नागर जी के यहां चले जाते थे। कभी पैदल, कभी रिक्शे से। अजब था यह। मैं जब उन से पहली बार मिला तो जाहिर है वह अमृतलाल नागर की तरह दिल खोल कर नहीं मिले। न ही यह एहसास करवाया कि वह कितने मिलनसार हैं। संयोग देखिए कि मैं महानगर में उन के घर के पास ही थोड़ी दूर पर उन्हीं से उन्हीं के घर का पता पूछ रहा था। और उन्हों ने एक बार भी नहीं कहा कि मैं ही भगवती चरण वर्मा हूं। वह तो पान खाते हुए हाथ के इशारे से अपने साथ-साथ चलने का इशारा कर चलने लगे। इस के पहले मैं ने एक पान वाले से चित्रलेखा और भगवती चरण वर्मा का घर पूछा था। उस ने भी बिन बोले इशारे से उन की ओर हाथ दिखा दिया। शायद वह मारे संकोच के कुछ बोल नहीं पाया। और मैं उस का इशारा ठीक से समझ नहीं पाया। और उन्हीं से उन का पता पूछने लगा। चित्रलेखा जब आ गया तो वह बड़े इत्मीनान से घर के बरामदे में आ कर बेंत वाली कुर्सी पर बैठते हुए सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किए। मैं बैठ तो गया पर थोड़ा झल्लाते हुए बोला, ‘पर मुझे भगवती चरण वर्मा से मिलना है!’ उन्हों ने उगालदान में पान थूका और मुझे घूरते हुए धीरे से बोले, ‘मैं ही हूं। क्या काम है?’ मैं लज्जित हुआ। उन से क्षमा मांगी। और उन्हें बताया कि जो छपी फोटो उन की देखी थी उन से उन का चेहरा पहचानने में भूल हुई। वह बोले, ‘कोई बात नहीं। पुरानी फोटो रही होगी।’ फिर मेरे बारे में पूरी पूछताछ की। उन दिनों वह राज्यसभा में मनोनीत सांसद थे।
मैं ने राजनीति पर इंटरव्यू करना चाहा तो वह बोले, ‘राजनीति पर नहीं कोई और प्रश्न हो तो पूछो।’ यह सुनते ही मुझे धर्मवीर भारती का लिखा याद आ गया। लेख का शीर्षक ही था एक प्रश्न यात्री! खैर बात बहुत ज़्यादा नहीं हुई। क्यों कि उन्हें जल्दी ही कहीं जाना था। पर जितने सवाल मैं लिख कर लाया था वह सब पूछ चुका था। जिस के जवाब में मैं ने पाया कि उन्हों ने कुछ बहुत उत्साह नहीं दिखाया। जैसे सपाट मेरे प्रश्न थे वैसे ही सपाट उन के उत्तर। लगा ही नहीं कि मैं सबहिं नचावत राम गोंसाईं के लेखक से मिल रहा हूं। उन दिनों मैं सबहि नचावत राम गोसाईं नया नया पढे़ था। उस का जैसे नशा सा तारी था मुझ पर। दरअसल आप अगर अमृतलाल नागर जैसे व्यक्ति से मिलने के बाद भगवती चरण वर्मा जैसे व्यक्ति से मिलेंगे तो यही होगा। अगर आज मुझे कोई उस की तुलना करने को कहे तो कहूंगा कि अमिताभ बच्चन से मिलने के बाद अगर दिलीप कुमार से आप मिलेंगे तो ऐसा ही लगेगा। संयोग यह भी देखिए कि दिलीप कुमार नाम भी उन्हें भगवती चरण वर्मा ने ही दिया हुआ है। हैं तो वह यूसुफ ख़ान। खैर बाद में यह बात मैंने नागर जी को बताई तो वह बोले ऐसा तो नहीं होना चाहिए। पर उन्हों ने यह जरूर जोड़ा कि तुम भी दही खाने के बाद दूध पीयोगे तो यही होगा। फिर बोले हो सकता है व्यस्त रहे होंगे। मैं ने बताया कि नहीं वह तो अकेले थे। फिर नागर जी बोले दुबारा मिलना तब देखना। नागर जी उन्हें नेता कह कर संबोधित करते थे। पर कुछ दिन बाद जब दुबारा मिला तब भी वह थोड़ा खुले तो पर वह जो सहजता कहते हैं, वह बात नहीं आई। फिर मैं ने यह बात और दो एक मित्रों से चलाई तो सब सहमत थे इस बात पर कि भगवती बाबू नागर जी तो नहीं हो सकते।
खैर, हर आदमी का अपना-अपना स्वभाव होता है। किसी से वह खुल कर मिलता है, सहज हो कर मिलता है तो किसी से बंद-बंद या असहज भी हो सकता है। लेकिन इस से उस का काम या रचना का मूल्यांकन करना ठीक बात नहीं होती। कई बार कई चीजें हो जाती हैं। आप अपनी कल्पना में किसी को और तरह से जीते हैं और वह किसी और तरह से आप से मिलता है। भगवती बाबू भी शायद ऐसे ही रहे हों। जो भी हो उन की कविताएं, उपन्यास और कहानियां, नाटक आदि हमें ऐसे रचना समय में ले जाते हैं जिन का कोई और विकल्प नहीं सूझता। उन के पहले उपन्यास पतन में ही उन की कथा संभावना को हेरा जा सकता है। चित्रलेखा तो उन का उत्कर्ष ही है। पर टेढे़ मेढ़े रास्ते के मार्फत जो सामाजिक और राजनीतिक उथल पुथल का ताना-बाना वह बुनते हैं वह अविकल और अविस्मरणीय बन जाता है। गांधीवाद और मार्क्सवाद और फिर इस बहाने एक परिवार की सत्त्ता की जो मुठभेड़ वह कराते हैं वह लाजवाब है। भूले बिसरे चित्र में भी एक परिवार की चार पीढ़ी की कथा वह परोसते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर से नमक सत्याग्रह तक की कथा में तत्कालीन समाज में हो रहे बदलाव और मूल्यों के क्षरण का जो कोलाज वह रचते हैं, जो द्वंद्व परोसते हैं तब के कथा संसार में वह दुर्लभ ही है।
सीधी सच्ची बातें भी राजनीतिक उपन्यास है। और इस में गांधी से उन का मोहभंग साफ देखा जा सकता है। जब कि प्रश्न और मारीचिका अपनी कथा और काया दोनों ही में उन के बाकी उपन्यासों से जुदा है। साढ़े पांच सौ से भी अधिक पृष्ठों वाला यह उपन्यास तमाम अर्थों में दिलचस्प है। है तो यह भी राजनीतिक आंच में पका हुआ उपन्यास जो आज़ादी से चीन भारत युद्ध तक के समय को समेटे हुए है। सिस्टम को यह उपन्यास सीधे चुनौती भी देता दिखता है पर कोई समाधान नहीं परोसता है यह उपन्यास। तो कुछ आलोचक इस पर निराशा जताते हैं। वह शायद यह बात भूल जाते हैं जिस में कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण है। जो समाज में घटेगा उपन्यासकार वही तो दर्ज करेगा। पर हां एक बडे़ फलक पर कई प्रश्न यह उपन्यास जरूर उपस्थित करता है। शायद इसी लिए धर्मवीर भारती जैसे लोग उन्हें एक प्रश्न यात्री के रूप में देखने लगते हैं। तब के चाहे आज के समाज में या समय में प्रश्न करना, या सिस्टम से टकराना कोई आसान काम है? भगवती चरण वर्मा यह काम करते थे। अपनी रचनाओं के मार्फत वह प्रश्न भी करते थे और सिस्टम से टकराते भी थे। शायद इसी लिए वह आज भी प्रासंगिक हैं और कि आगे भी रहेंगे। वह यों ही नहीं लिखते थे कि, ‘हमको तो चलना आता है केवल सीना तान के।’ वह जैसा लिख गए हैं, वैसा कर भी गए हैं। मतलब केवल सीना तान कर चलना सिखा भी गए हैं। नहीं यह पूछना आसान नहीं था कि, ‘अगर तुम्हीं पद्मभूषण बन जाओगे तो सरकार का क्या कर लोगे?’ ठीक वैसे ही जैसे कि इलाज वह अपने कैंसर का करवा रहे थे पर हम सब से बिछड़े भी तो हार्ट अटैक से।
[email protected] के जरिए किया जा सकता है.
लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार तथा उपन्यासकार हैं. उनका यह लेख राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है. वहीं से साभार लेकर प्रकाशित किया गया है. दयानंद से संपर्क 09415130127, 09335233424 और
pj lal
August 30, 2011 at 11:38 am
you write well. Why not sometimes on novelist Gurudutt/
Kamta Prasad
August 30, 2011 at 12:49 pm
मैंने दसवीं जमात में इस पढ़ा था गजब का असर हुआ था। बिल्कुल वैसे ही जैसे दिलीप कुमार की फिल्मों को देखकर होता है।
भाषा भी संस्कृत-निष्ठ थी। फिर से याद ताजा कराने के लिए साधुवाद।
भारतेन्दु मिश्र
August 30, 2011 at 1:58 pm
सच्ची श्रद्धांजलि,बहुत बढिया लेख।
- लावण्या
August 30, 2011 at 2:44 pm
[b]और आप उस के लिए एक नोटबुक खरीद कर जितने पन्ने उस में हों, उतनी कविताएं एक ही दिन में लिख कर प्रकाशक से पैसे लेने पहुंच जाएं क्या ऐसा हो सकता है? भगवती चरण वर्मा ने यह किया। और यह कविता संग्रह छपा भी एक दिन शीर्षक से। इस पूरे वाकए का बहुत ही विभोर भाव में नागर जी ने वर्णन लिखा है।[/b] – यही तो थे हमारे चाचा जी , भगवती बाबू – वे मेरे पापा पण्डित नरेंद्र शर्मा के
अन्तरंग साथी थे और भगवती बाबू के आग्रह से पापा बंबई आये थे और देविका रानी
और हिमांशु राय की फिल्म निर्माण संस्था ‘ बोम्बे टाकिज ‘ में गीत लेखन
प्रथम फिल्म ‘ हमारी बात ‘ से आरंभ किया था . बाद में उनके बेटे भी बंबई पापा के घर ,
मिलने आया करते . बहोत सी यादें आपके आलेख ने ताज़ा कर दीं …
श्री भगवती चरण वर्मा जी उनकी कालजयी रचनाओं से अमर हैं .
उन की स्मृतियों को मेरे सादर प्रणाम !
– लावण्या
शेष नारायण सिंह
August 30, 2011 at 3:11 pm
मैंने भगवती चरण वर्मा की बहुत सारी कहानियाँ पढी हैं . कभी मिला नहीं लेकिन मुझे गर्व है कि मैं दयानंद पाण्डेय को जानता हूँ . हमारे युग के बेतरीन स्टोरी टेलर हैं दयानंद जी. आज भगवती चरण वर्मा के बारे में उनका लिखा पढ़ कर मन आह्लादित है . बेहतरीन .
बलराम अग्रवाल
August 30, 2011 at 5:02 pm
बेलाग टिप्पणी, बतकही अंदाज में।
neena
August 31, 2011 at 1:36 am
have read Bhagvati Charan Verma in school……liked to read about him after so long…Thanks to Dayanand Pandey ji.
nitya nand pandey
August 30, 2011 at 5:34 pm
adraniy verma ji ko mera sat sat naman lekh bahut hi acha hai
raghwendra
August 30, 2011 at 5:34 pm
अन्य पूर्व वर्ती लेखों की ही तरह एक और शानदार लेख, पढ़ कर आनंद की अनुभूति हुई . . .
sudhir awasthi
August 31, 2011 at 1:59 am
सर लेख पढकर बहुत आनंद की अनुभूति हुई धन्यवाद सुधीर अवस्थी पत्रकार बघौली हरदोई उत्तर प्रदेश
Anupam Srivastava
September 1, 2011 at 1:13 pm
You uplift the ordinariness of life to the realm of extra ordinariness by laying bare what lies beneath the surface reality.Most writers, wily-nily, produce social critiques that carry the burden of bitterness or anger.Your writings simply hold the mirror before the society. You manage to say so much without shouting. – Anupam