हरित क्रान्ति का टूटता इन्द्रजाल

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उत्‍कर्ष कुछ दिन पहले किसान यात्रा के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हरे-भरे खेतों को देखते हुए साथी किसान से क्षेत्र की समृद्धि की चर्चा की तो जो उत्तर मिला उसने हरित क्रान्ति के इन्द्रजाल को एक झटके से तोड़ दिया। किसान ने कहा था यह खेत हरे-भरे जरूर हैं लेकिन हकीकतन ये सभी फसल गिरवी पड़ी है। इस छोटे से जवाब ने बहुत सारे सवालों को जन्म दे दिया। आईये इसी सन्दर्भ में कृषक भारत के इतिहास की सबसे बड़ी घटना हरित क्रान्ति की पड़ताल करते हैं ।

हरित क्रान्ति सिर्फ भारत में ही नहीं हुई थी। छठे दशक के मध्य से दुनिया के वैज्ञानिकों पर एक चिन्ता मढ़ी गयी कि आबादी की बढ़ती रफ्तार से खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने वाला है और पारम्परिक तौर तरीकों से बढ़ी हुई आबादी का पेट नहीं भरा जा सकता है, अतः इसे बदलना होगा। यहां यह उल्लेखित करना उचित है कि यह अध्ययन विश्‍व बैंक का था और इसमें सिर्फ तीसरी दुनिया के आबादी एवं उत्पादन की चर्चा की गयी थी। निशाना बिल्कुल स्पष्ट था।

सैद्धान्तिक रूप से हरित क्रान्ति का मतलब तो गरीब किसानों द्वारा अधिक अन्न उपजाने का था, पर भारत की कड़वी हकीकत है कि यहां 20 करोड़ के लगभग लोगों के पास अपनी जमीन ही नही है या फिर इतनी ही जमीन है, जो कि परिवार का पेट नहीं भर सकती। तो फिर सवाल उठता है कि अत्यन्त सफल (सरकारी आंकड़ों के अनुसार) यह क्रान्ति क्या भूख खत्म करने में सफल हुई? हरित क्रान्ति ने शुरू में ऐसा आभास अवश्‍य दिया था, पर अनुभवों एवं समय की गति ने साबित किया कि केवल उत्पादन बढ़ने से ही पेट नहीं भरता, क्योंकि यह क्रान्ति आर्थिक ताकत यानी भूमि पर अधिकार एवं क्रियाशीलता के केन्द्रीयकरण को बदलने में सफल नहीं हुई है, और बिना भूमि सुधारों के उत्पाद का बंटवारा नहीं हो सकता। साफ सी बात है कि यदि आपके पास फसल उगाने की जमीन नहीं है, या फिर अनाज खरीदने को पैसा नहीं है, तो आप भूखे रहेंगे चाहे अनाज का उत्पादन कितना ही बढे़ और सरकारी गोदाम अन्न से भरे रहें। पिछले दिनों उड़ीसा में भूख से मौतों ने यह सिद्ध कर दिया। इस तरह से भूख पर नियन्त्रण के दावों की असलियत सामने आ गयी।

दरअसल हरित क्रान्ति के साथ भारत की पूरी खेती किसानी में बदलाव आया और भारतीय खेती आन्तरिक स्रोतों की बजाय बाह्य स्रोतों पर निर्भर होती गयी। विश्‍वविद्यालयों से निकले बीज, हल की जगह ट्रैक्टर, रासायनिक खाद और नए कीटों को मारने के लिए रासायनिक कीटनाशक, सबका नतीजा यह हुआ कि चौपाल या पड़ोसी के साथ होने वाली कृषि चर्चा अब रेडियो पर वैज्ञानिकों द्वारा की जाने वाली वार्ताओं पर टिक गयी। बढ़ते मषीनीकरण के कारण कृषि मजदूरों की उपेक्षा भी हुई। बाजार ने समाज के सम्बन्धों को बदलाव का रास्ता दिखा दिया।

लघु और सीमान्त जोत के किसानों पर हरित क्रान्ति का असर यह हुआ कि पारम्परिक उपज पर से ध्यान हट गया। मक्का, ज्वार, सांवा, कोदों की जगह गेहूं आ गया। दरअसल यह गेहूं ही हरित क्रान्ति का केन्द्र बना। पंजाब, हरियाणा आदि हरित क्रान्ति क्षेत्रों में गेहूं ने ही बदलाव का रास्ता दिखाया। सांवा, कोदों, मड़ुवां, टांगुन के कम होने से स्थानीय स्तर पर पोषण की स्थिति बिगड़ी।

1980 के मध्य में एक भ्रान्ति स्थापित की गयी कि हरित क्रान्ति से सिर्फ बड़े किसानों को ही नहीं बल्कि छोटे किसानों का फायदा हुआ है, पर कई अध्ययनों ने सबित किया कि यह सत्य नहीं है। कारण सिर्फ यह कि इन किसानों को बड़े किसानों के समान न तो सरकारी और कानूनी सुविधाओं पर पहुंच थी, न हीं प्रसार तन्त्र तक पहुंच, साथ ही साथ मंहगे संकर बीज, रासायनिक कीटनाशक, खाद और ट्रैक्टर आदि खरीद पाना उसके बस से बाहर था। सब्सिडी और कर्ज उसके लिए दूर की कौड़ी थी। संकर बीजों के प्रसार के साथ रासायनिक कीटनाशक, नए-नए खरपतवार खेती का हिस्सा बन गए। ये नई समस्या है। रसायनों से भूमि और पारिस्थितिकी तन्त्र को नुकसान होता है, नतीजतन क्रान्ति के प्रमुख केन्द्रों पर उत्पादन या तो स्थिर हो चुका है या गिर रहा है और खेती की लागत में कई गुना इजाफा इसका परिणाम है। बढ़ी हुई लागत के साथ किसान का फायदा तभी हो सकता है जब पैदावार की कीमत अधिक मिले, पर रसायनों की कीमत के अनुपात में उत्पाद की कीमत नहीं बढ़ती, तो घाटे की खेती करने के बजाय किसान खेत छोड़ कर शहर रोजगार की तलाश में चला जाता है।

बड़े किसानों के फायदे भी सीमित है। दरअसल हरित क्रान्ति से सबसे अधिक फायदा कम्पनियों को हुआ है, जो कृषि के काम आने वाली बुनियादी चीजें बनाते हैं और कर्ज देने वाली संस्थाओं को इसका लाभ हुआ। इस क्रान्ति का अगला चरण होगा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर आश्रय और फिर बायो टेक्नोलाजी का हमला। पेटेंट और टर्मिनेटर इसी की उपज है।

अब भी समय है। भारत के नीति नियन्ताओं को खेती और खेतिहर को अपने प्राथमिकता में लेना होगा और वह भी वास्तविक मुद्दों पर। क्रान्ति का इन्द्रजाल टूट चुका है, किसानों की आत्म हत्याएं इस सच की सबसे बड़ी गवाही है। आज की आवश्‍यकता है खेती के समग्र विकास का नक्शा खींचना। जमीन, तकनीक, पानी, विज्ञान, विरासत सबको यदि एक खाचें में डाल कर नहीं देखेंगे तो भारत के बहुसंख्यक समुदाय की दुश्‍वारियां हल नहीं होगी।

शायर ने खूब कहा है – जिस खेत से दहकां को मयस्सर नही रोटी…. उस खेत के हर गोश ए गंदुम को जला दो।।

लेखक उत्कर्ष सिन्हा फितरत से यायावर हैं तो मिजाज से समाजकर्मी. वर्तमान में दैनिक लोकमत, लखनऊ के प्रमुख संवाददाता हैं. किसान आन्दोलन सहित लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए चल रहे जन आन्दोलनों में शिरकत करते रहते हैं. एमिटी यूनिवर्सिटी में अतिथि प्रोफ़ेसर के तौर पर छात्रों को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाते हैं.

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