: तंत्र से गुहार करते-करते पूरी तरह टूट चुके हैं डा. केशव : 61 के हो चले इस गणतंत्र में तंत्र का शिकार बना विकलांग अध्यापक पिछले 12 सालों से अपने अधिकारों के लिए लड़ते-लड़ते आज राष्ट्रपति से सपरिवार आत्महत्या करने की अनुमति मांग रहा है। इस सारे जहां से अच्छा में डा. केशव ओझा को अपने साथ कुछ भी अच्छा होता नहीं दिख रहा है।
उनके द्वारा राष्ट्रपति से लेकर तमाम सक्षम विभागों को भेजे गए प्रार्थना पत्रों और दस्तावेजों के पुलिंदों पर बकायदे शोध करके ये जाना जा सकता है कि इस तंत्र में जायज मांगें क्यों औंधे मुंह गिरती है और क्यों कोई व्यक्ति आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर बाध्य हो जाता है। शिक्षा और ज्ञान की नगरी वाराणसी में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के साहित्य विभाग में अंशकालिक अध्यापक के रूप में कार्यरत विकलांग अध्यापक डा. केशव ओझा की स्थायी नियुक्ति का मामला आज तक अधर में लटका है। डा. ओझा के नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति भवन से लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दर्जनों निर्देश तंत्र के भूल-भुलैये में कहीं गुम
होकर रह गए हैं। और सिर पर लाखों का कर्ज लिए साल भर में आठ महीने मिलने वाले पांच हजार रूपये के मासिक वेतन के सहारे अपने परिवार को लेकर रोज की जरूरतों से मुठभेड़ करने वाले डा. ओझा टूटने के कगार पर पहुंच चुके हैं। यहां तक कि 19 अप्रैल 2006 में तत्कालीन कुलपति अशोक कुमार कालिया की मौजूदगी में कार्यपरिषद की बैठक में सर्वसम्मति से डा. ओझा की नियुक्ति का निर्णय लिया तो जरूर गया, लेकिन उस पर अमल करना विश्वविद्यालय प्रशासन ने जरूरी नहीं समझा।कहने को तो भारत सरकार द्वारा विकलांग व्यक्ति समान अधिकार अधिनियम 1995 एक प्रगतिशील और मागदर्शक कानून है, जो विकलांग जन को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए अधिकार मुहैया करवाता है, लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? या फिर अपने दोनों पैरों से विकलांग डा. केशव ओझा की विकलागंता इस कानून के दायरे में नहीं आती। डा. ओझा स्थाई नियुक्ति के बारे में राष्ट्रपति तक खुद हस्तक्षेप कर चुके है। राष्ट्रपति कार्यालय से 28 मई 09 को उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव को केशव ओझा की स्थाई नियुक्ति के बारे में निर्देश जारी किया जा चुका है। इस निर्देश को 28 अगस्त 09 को प्रदेश शासन प्राप्त कर चुका है।
प्रदेश्ा शासन ने भी इस बारे में सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय के कुलपति से उचित कदम उठाने का निर्देश दिया था, लेकिन विश्वविद्यालय के नकारे तंत्र का ठंडापन डा. ओझा की जिदंगी पर भारी पड़ता दिख रहा है। इस भीषण महंगाई के दौर में किराये के मकान में पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहने वाले केशव ओझा की जरूरतें साल भर में 8 महीने मिलने वाले पांच हजार रूपये में पूरी नहीं हो रही है। इन सबके बावजूद नियमित विश्वविद्यायल जाकर पूरी निष्ठा के साथ अपने छात्रों को सत्य और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले डा. ओझा की आर्थिक मदद उनके छात्र और विश्वविद्यालय के कर्मचारी तक करते रहते हैं। लेकिन अपने सिर पर लाखों का कर्ज लिए डा. ओझा के लिए आने वाला हर दिन किसी बोझ से कम नहीं है।
न्यायिक, नैतिक और मानवीय दृष्टिकोण से सही होने के बावजूद अपने हक से विरत कर दिए गए हालात के मारे डा. ओझा और उनका परिवार अगर ऐसे में कहीं कुछ कर बैठता है तो फिर इस तंत्र के बनाये समानता, न्याय, अधिकार के मूल्यों का क्या होगा, जिस पर गर्व करते तंत्र के पहुरूए कहते फिरते है सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। क्योंकि सालों से नाइंसाफी का शिकार हो रहे डा. केशव ओझा की बेबसी तो यही कह रही है कि ईश्वर करे यहां हम पैदा न हो दुबारा।
लेखक भास्कर गुहा नियोगी वाराणसी के निवासी हैं तथा हिन्दी दैनिक युनाइटेड भारत से जुड़े हुए हैं.
madan kumar tiwary
January 26, 2011 at 1:11 pm
सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा सिर्फ़ पेटभरओं के लिये है। भुखे पेट वाले तो जानते भी नही इसे । घुस देने की हैसियत नही होगी तो कुलपति कैसे आपका काम कर देगा । यहां तो महामहिम पैसे लेकर कुलपति कि नियुक्ति करते हैं। वैसे एक बार इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा कर देख लें , शायद न्याय मिल जाये ।