संगीत कला केंद्र द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह में मुम्बई के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. नंदलाल पाठक के काव्य संकलन ‘फिर हरी होगी धरा’ का लोकार्पण डॉ. कर्ण सिंह ने किया।
इस अवसर पर उन्होंने एक ऐसी रोचक टिप्पणी कर दी कि श्रोताओं से खचाखच भरे आईएमसी सभागार में देर तक तालियाँ बजती रहीं। उन्होंने कहा- ‘खड़ी बोली हिंदी की कविता की तुलना में मुझे लोकभाषा में लिखी हुईं कविताएं अधिक प्रिय हैं।’ उन्होंने अचानक रामचरित मानस से धर्म सम्बंधी दस-बारह चौपाइयों का लयबद्ध पाठ किया और फिर कहा- ‘खड़ी बोली हिंदी की किसी भी कविता में धर्म सम्बंधी इतनी सुंदर व्याख्या नहीं मिलती।’ फिर उन्होंने सभागार में मौजूद अतुकांत कवियों को लगभग धराशायी करते हुए ब्रजभाषा का एक रससिक्त छंद भी सुनाया जिसमें कुछ वैसे ही भाव थे- ‘तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला मन लेहु पै देहु छ्टाँक नहीं।’ कई बार कैबिनेट मंत्री रह चुके डॉ. कर्ण सिंह फिलहाल काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। किसी ज़माने में पाठकजी इस विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करते थे। मुम्बई में डॉ. कर्ण सिंह की मौजूदगी से लग रहा था जैसे वि.वि. ख़ुद चलकर छात्र के घर आ गया हो। डॉ.कर्ण सिंह ने अपनी कविता सुनाने के साथ ही पाठकजी के काव्य संकलन से अपनी प्रिय ग़ज़ल का पाठ भी किया –
वे जो सूरज के साथ तपते हैं
उनको इक शाम तो सुहानी दो
खेत की ओर ले चलो दिल्ली
गाँव वालों को राजधानी दो
डॉ. कर्ण सिंह ने जब इस ग़ज़ल का आख़िरी शेर पढ़ा तो लोग बरबस हँस पड़े –
मुझको मंज़ूर है बुढ़ापा भी
लेखनी को मेरी जवानी दो
संचालक कवि देवमणि पाण्डेय ने कहा कि पाठकजी की रचनाओं में इतनी ताज़गी इसलिए है क्योंकि उन्होंने आज तक बचपन को ख़ुद से जुदा नहीं होने दिया । वे लिखते हैं –
कल तितलियाँ दिखीं तो मेरे हाथ बढ़ गए
मुझको गुमान था कि मेरा बचपन गुज़र गया
अपनी किताब के लोकार्पण समारोह में चमकते हुए परिधान में दमकते हुए कवि नंदलाल पाठक बनारसी बारात के दूल्हे की तरह आकर्षक लग रहे थे। समारोह के संचालक कवि देवमणि पाण्डेय ने जब जीवन के 80 बसंत पार करने के लिए पाठकजी को सार्वजनिक बधाई दी तो समूचा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। पाण्डेयजी ने बताया कि उर्दू ग़ज़ल को फ़ारसी ग़ज़ल की नक़ल मानने वाले पाठकजी ने हिंदी ग़ज़ल को एक नई परिभाषा दी है –
ज़िंदगी कर दी निछावर तब कहीं पाई ग़ज़ल
कुछ मिलन की देन है तो कुछ है तनहाई ग़ज़ल
पाण्डेयजी ने आगे कहा कि उन्होंने अपनी हिंदी ग़ज़लों को हिंदुस्तानी बिम्बों, प्रतीकों और उपमानों से समृद्ध किया है । मसलन –
ज़हर पीता हुआ हर आदमी शंकर नहीं होता
न जब तक आदमी इंसान हो शायर नहीं होता
इसी क्रम में पाण्डेयजी ने पाठकजी का एक ऐसा शेर कोट कर दिया जिसे सुनकर सुंदर स्त्रियों ने शरमाने के बावजूद ख़ूब तालियाँ बजाईं –
ज़रूरत आपको कुछ भी नहीं सजने सँवरने की
किसी हिरनी की आँखों में कभी काजल नहीं होता
नवभारत टाइम्स के भूतपूर्व सम्पादक एवं नवनीत के वर्तमान सम्पादक तथा पाठकजी के प्रिय मित्र विश्वनाथ सचदेव उनका रचनात्मक परिचय देने के लिए जब मंच पर आए तो श्रोताओं की हँसी फूट पड़ी क्योंकि संचालक पाण्डेयजी ने उन्हें आमंत्रित करते हुए ख़लील धनतेजवी का एक शेर उछाल दिया था –
घूमे थे जिनकी गरदनों में हाथ डालके
वो दोस्त हो गए हैं सभी साठ साल के
साठ का आँकड़ा पार कर चुके विश्वनाथजी ने कहा कि पाठकजी की ग़ज़लों में एक फ़कीराना अदा है और उन्होंने दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल परम्परा को आगे बढ़ाया है । पाण्डेयजी ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पाठकजी का एक शेर कोट किया तो दर्शकों ने ज़ोरदार तालियों से इसका समर्थन किया –
उतारें क़ाग़जों पर पुल तो इतना देख लेना था
जहाँ पुल बन रहा है उस जगह कोई नदी तो हो
अँग्रेज़ी में सुशिक्षित संगीत कला केंद्र की अध्यक्ष श्रीमती राजश्री बिड़ला ने हिंदी में ऐसा सरस और धाराप्रवाह स्वागत भाषण दिया कि सुनने वाले अभिभूत हो गए । इन अभिभूत होने वालों में वरिष्ठ क़लमकार डॉ.रामजी तिवारी और वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल से लेकर मुम्बई के सीलिंक को रोशनी से सजाने वाले बजाज इलेक्ट्रिकल्स के मुखिया श्री शेखर बजाज और श्रीमती किरण बजाज तक शामिल थे । विविध भारती के सेवानिवृत्त उदघोषक कुमार शैलेन्द्र ने जो पुस्तक परिचय दिया वह आत्मीयता की मिठास से लबरेज़ था । प्रारंभ में श्रीमती सुरुचि मोहता ने पाठकजी का एक गीत बहुत सुरीले अंदाज़ में प्रस्तुत करके वाहवाही बटोरी ।
संचालक देवमणि पाण्डेय ने बताया कि मुम्बई में इन दिनों ग़ज़ल पर बहुत अच्छा काम हो रहा है । गीतकार सूर्यभानु गुप्त से लेकर पत्रकार कैलाश सेंगर तक दो दर्जन कवि बड़ी अच्छी ग़ज़लें लिख रहे हैं । इन सबका प्रतिनिधित्व करने के लिए यहाँ दो कवियों का चयन किया गया है । पहले कवि हस्तीमल हस्ती ने अपना एक शेर कश्मीर के भूतपूर्व राजा डॉ.कर्ण सिंह को समर्पित कर दिया –
शुक्र है राजा मान गया
दो दूनी होते हैं चार
इस शेर पर इतनी ज़्यादा तालियाँ बज गईं कि हस्तीजी दूसरी ग़ज़ल तरन्नुम में पढ़ना भूल गए । मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए दूसरे कवि राजेश रेड्डी ने तरन्नुम में वह ग़ज़ल सुनकर रंग जमा दिया जिसमें एक हासिले-मुशायरा शेर है –
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है
इसी ग़ज़ल का एक शेर रेड्डीजी ने राजा और प्रजा दोनों को समर्पित कर दिया और ख़ूब वाह-वाह हुई-
अजब ये ज़िंदगी की क़ैद है दुनिया का हर इंसां
रिहाई माँगता है और रिहा होने से डरता है
पुस्तक के प्रकाशक स्टर्लिंग प्रकाशन की प्रतिनिधि श्रीमती ख़ुशनुम राव बोलीं कम ज़्यादा मुस्कराईं, इस लिए उनकी तस्वीरें बहुत सुंदर आईं। कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए कवि देवमणि पाण्डेय ने कहा कि एक अच्छा कवि हमेशा अपने समय से बहुत आगे होता है। पाठकजी ने भी ऐसे शेर कहे हैं जो इस सदी के आने वाले सालों का प्रतिनिधित्व करते हैं –
क़दम क़दम पर है फूलमाला, जगह जगह है प्रचार पहले
मरेगा फ़ुर्सत से मरने वाला बना दिया है मज़ार पहले
पाठकजी ने आत्मकथ्य प्रस्तुत करते हुए कहा कि लेखन एक ज़िम्मेदारी और मुश्किलोंभरा काम है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने एक मुक्तक पेश किया –
शायरी ख़ुदकशी का धंधा है
लाश अपनी है अपना कंधा है
आईना बेचता फिरा शायर
उस नगर में जो नगर अंधा है
पाठकजी ने अपनी कुछ और रचनाएं सुनाकर उपस्थित जन समुदाय को उपकृत किया –
वे अपने क़द की ऊँचाई से अनजाने रहे होंगे
जो धरती की पताका व्योम में ताने रहे होंगे
अकेले किसके बस में था कि गोबर्धन उठा लेता
कन्हैया के सहायक और दीवाने रहे होंगे
पाठकजी का कहना है कि अगर उर्दू वाले ‘गगन’ जैसे संस्कृत शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर सकते हैं तो हमें ‘व्योम’ जैसे म्यूज़िकल शब्दों के इस्तेमाल में कंजूसी नहीं करनी चाहिए। अंत में संस्था सचिव श्री ललित डागा ने आभार व्यक्त किया । कुल मिलाकर यह एक ऐसा रोचक कार्यक्रम था जो लोगों को लम्बे समय तक याद रहेगा।
bharatkarecha
December 15, 2013 at 10:03 pm
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