गांधी पुण्यतिथि पर विशेष : इस वैश्विक दुनिया में बापू की पुण्यतिथि हर साल जयन्ती की तरह आती है और चली जाती है. अखबारों में चित्र दिखते हैं, कुछ लोग फूल चढ़ाते नज़र आते हैं और फिर हर साल हम गांधी से अपनी दूरी बढ़ाते ही जाते हैं. जैसे किसी कर्मकाण्डी की तरह चन्द क्षणों के लिए जुबान पर, और फिर लंबी छुट्टी. इसके अलावा कभी वो दिखते हैं प्रोडक्ट बेचने के नए हथकण्डे के रूप में. एक कंपनी के सीमेंट के विज्ञापन में टीवी पर अमिताभ बच्चन यह कहते हुए दिखते हैं कि देश छोड़कर जाने वाला विदेश में भी प्रभाव छोड़ता है. जैसे गांधी के दक्षिण अफ्रीका में सत्य के प्रयोग की तरह वो सीमेंट भी दुनिया में दिग्विजय यात्रा पर निकल पड़ी हो. कभी सियासी पार्टियों के सम्मेलनों-बैठकों में गांधी के चित्र झांकते नज़र आते हैं. गोया उनके लिए कॉस्मेटिक सरीखे भर रह गए हों बापू. तो ये है हमारी सच्चाई. सभी उनकी तस्वीर लगाते हैं, माल्यार्पण करते हैं, लेकिन व्यवहार में आचरण एकदम उलट.
कोई गलत न समझे. हमारा आशय पुण्यतिथि पर इस बाबत कोई उपदेश देना नहीं है क्योंकि ऐसा बहुत हो चुका. विनम्र प्रयास सिर्फ ये है कि कुछ खास बातें सामने रखूं. गांधी ने अत्यन्त संक्षेप में सात सामाजिक बुराइयों का न केवल जिक्र किया था, बल्कि इनसे बचने का आग्रह भी किया था. वे ये हैं- राजनीति बिना सिद्धान्त के. धन-संपत्ति बिना श्रम के. सुख बिना सदविवेक के, विद्या बिना चरित्र के, व्यवसाय बिना नैतिकता के, विज्ञान बिना मानवीयता के और पूजा-आराधना बिना आत्म-त्याग के. कितना सच है कि आज इन बुराइयों से बचना तो दूर हम इनके मकड़जाल में हर रोज पहले से भी ज्यादा उलझते जा रहे हैं. आज सदविवेक, चरित्र, सिद्धान्त, नैतिकता जैसी बातें अर्थ खोती जा रही हैं. अगर कुछ है, तो वो है उपभोक्तावादी समाज और भौतिक उपभोग पर जोर. सभी करोड़पति होना चाहते हैं और करोड़पति लोग अरबपति बनना चाहते हैं. लेकिन कैसे? उसका नैतिक पक्ष अब मायने नहीं रखता. गांधी साध्य से ज्यादा साधन की पवित्रता पर जोर देते थे लेकिन आज साधन की नैतिकता गौण हो चुकी है. जो कुछ है वो बस साध्य है. तो ये है मूल समस्या, जो बस गहराती ही जा रही है.
साठवें गणतंत्र दिवस पर सच्चाई ये भी है कि हम दुनिया के भ्रष्टतम देशों में से एक हैं. गरीब-अमीर की खाई बढ़ी है. ईमानदारी, मूल्य, संस्कार, नैतिकता सभी में चौतरफा गिरावट है. हजारों-लाखों किसानों की खुदकुशी के बाद अब युवाओं और बच्चों तक में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है. नए मध्य वर्ग के उदय के साथ युवाओं की संख्या में भी इजाफा हो रहा है. लेकिन उनका कोई रोल मॉडल नहीं है. उनमें आगे बढ़ने की चाहत तो है लेकिन चौतरफा गिरावट के चलते भारी द्वन्द्व भी. उनमें इच्छाशक्ति तो है पर हताशा-निराशा भी. छटपटाहट तो भरी पड़ी है. आर्थिक स्तर पर आगे बढते हैं तो सामाजिक-सांस्कृतिक-नैतिक धरातल की उघड़ती, बदलती, पोपली जमीन मजबूत आधार निर्मित नहीं कर पाती. नतीजा है ढाक के वही तीन पात.
11-12 साल से लेकर 20-22 साल के युवाओं में बढी खुदकुशी की प्रवृत्ति हमारी इसी सामाजिक विकृति का नतीजा है. सरकार 12वीं कक्षा में भी ग्रेडिंग प्रणाली लाकर युवाओं में बढ़ते तनाव को रोकना चाहती है, लेकिन सच तो ये है कि इस छोटे से इलाज से बात बनने वाली हो, ऐसा लगता नहीं. समाज को मुकम्मल इलाज की जरूरत है. उसे अपने तौर-तरीके सुधारने होंगे. माइण्ड सेट भी बदलने का प्रयास करना होगा. गांधी की मूलभूत भावना की ओर लौटना होगा.
अंधी दौड़ में शामिल समाज को, लोगों को क्षण भर रुक कर ये सोचना होगा कि क्या देश, समाज के प्रति दायित्व का अंश भर भी हम योगदान कर पा रहे हैं. क्या हमारे तरीकों से सामूहिकता की भावना का तेजी से क्षरण नहीं हुआ है? क्या समाज के साथ जुडाव के टूटते पुलों को फिर से मूल्यों-संस्कारों के आधार पर निर्मित करने की आवश्यकता नहीं है?
समझना होगा गांधी की दृष्टि को. ईमानदारी, साफगोई, दृढ़ इच्छाशक्ति, सामाजिक सरोकार और मनुष्य का सर्वांगीण विकास. गांधी के इन पक्षों को समय-समय पर देश-दुनिया में विभिन्न लोगों ने जागृत भी किया. चीन में समकालीन माओत्से तुंग ने ग्रामीण विकास को ही आधार बनाया, भले ही वो उनका अपना तरीका रहा. लेकिन अटलांटिक पार मार्टिन लूथर किंग ने अश्वेतों को समान अधिकार दिलाने के लिए सविनय अवज्ञा को ही अपनाया. पड़ोस के बर्मा में आंग सान सूकी ने बर्बर तानाशाही की मुखालफत में सत्याग्रह-अनशन का सहारा लिया, तो चीन के खिलाफ दशकों से दलाई लामा का अपनी अस्मिता का संघर्ष भी सत्याग्रह पर ही आधारित रहा. उधर, अफ्रीकी नेल्सन मण्डेला का जुझारू जीवन रहा हो या अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की अब तक की यात्रा, गांधी का असर वहां भी मौजूद है. देश में जेपी का 1974 का आन्दोलन हो या विनोबा की भूदान, ग्राम स्वराज्य की यात्रा, बापू को सभी ने अपने ढंग से व्याख्यायित किया है. लोहिया तो समाज के लोकतांत्रिक जागरण के लिए ´सत्याग्रह’ शब्द में परिवर्तन का सुझाव देते हैं और ´सिविल नाफरमानी’ का आग्रह करते हैं. कहने का आशय ये है कि ऐसे अनेक प्रयास देश-दुनिया में हुए हैं. और, ऐसे भी प्रयास हुए हैं जो देखने-सुनने में तो बहुत छोटे लगते हैं, लेकिन सिर्फ छोटे होने से उनका महत्व कम नहीं हो जाता.
जरूरी ये है कि प्रयास चाहे छोटे हों या बड़े, व्यक्ति के स्तर पर हों या सामूहिकता के स्तर पर, उनमें जहां ईमानदारी और पारदर्शिता हो वहीं जन सरोकारों की अभिव्यक्ति भी. आधुनिक समय में जब सारी दुनिया में युवाओं की शक्ति और संख्या भारत में सबसे ज्यादा होने वाली है, निश्चित रूप से गांधी को पुनर्व्याख्यायित करने की जरूरत है. खास कर ऐसे दौर में जब राष्ट्रपति ओबामा चीन के साथ भारत को भी गम्भीर आर्थिक खतरे के रूप में देख रहे हैं और भारत से आउटसोर्सिंग पर रोक की चेतावनी तक दे रहे हैं. निश्चित रूप से ऐसे में वैश्विक दौड़ में शरीक भारतीय युवा मन को अगर संबल मिल सकता है तो वो है गांधी मार्ग में. बापू के रास्ते में, जहां हर किसी की गरिमा की सुरक्षा है तो विकास भी. लेकिन इसके लिए जरूरी है बिना किसी दबाव का आत्मनिरीक्षण और नई पहल की चाहत. रास्ता बहुत कठिन है, लेकिन आसान भी….
और अन्त में
‘दुनिया में यूं तो होते हैं, कतरे बहुत मगर
कतरा वही है, जिसमें समन्दर दिखाई दे’
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीश से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
mukesh pandey
February 1, 2010 at 6:15 am
apne jandhiji ko schche man se yad kiya/ badhai
Prabhat K. Sharma
January 31, 2010 at 11:31 am
badaa afsos hua is kkhabar par kisi bhi media person ka comment nahin dhekhakar. yahi asliyat hai. aaj har patrkar ko fursat ke palon mey bhi chatkhara khabarein chahiyen. jo vyakti apni vakalat kee 15 hazaar doller kee kamaai chhodkar videsh se vapas apney desh aata hai aur mahaz ek dhoti me desh ko aazad karney ke liye nikal padta hai, usey hamarey is tiraskar par zaroor afsos hoga. gandhi ji se patrkaron ko kam se kam itna to sikhna hi chahiyey ki apney ko hom kar ek sahi samaj ka nirman hi hamara uddeshya hona chhahiye.
punah kahoonga is kkhabar kee itni berukhi na karein, aur comment zyada se zyada bhejein. Vandey Mataram