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विनय उस अन्याय से पटरी नहीं बिठा पाया

: क्षेत्रीय पत्रकारों का हाल- न्यूनतम वेतन, काम का बोझ और बदनामियां : आज हम अपने साथी विनय तरुण को याद करने के लिये यहां जमा हुए हैं, हम सब जानते हैं कि वह एक प्रॉमिसिंग जर्नलिस्ट था. एक ऐसा पत्रकार था जिसने कई संवेदनशील मुद्दों पर बेहतरीन रिपोर्टिंग की और जिसकी रिपोर्टों को पूरे देश में सराहना मिली. मगर मैं उसके जीवन का सबसे कड़वा सच बयान करूं तो आप हैरत से अवाक रह जायेंगे. उसने अपने करियर का लंबा वक्त उन हालातों में गुजारा जब उसे पेशे से पत्रकार माना ही नहीं जाता था.

<p style="text-align: justify;">: <strong>क्षेत्रीय पत्रकारों का हाल- न्यूनतम वेतन, काम का बोझ और बदनामियां </strong>: आज हम अपने साथी विनय तरुण को याद करने के लिये यहां जमा हुए हैं, हम सब जानते हैं कि वह एक प्रॉमिसिंग जर्नलिस्ट था. एक ऐसा पत्रकार था जिसने कई संवेदनशील मुद्दों पर बेहतरीन रिपोर्टिंग की और जिसकी रिपोर्टों को पूरे देश में सराहना मिली. मगर मैं उसके जीवन का सबसे कड़वा सच बयान करूं तो आप हैरत से अवाक रह जायेंगे. उसने अपने करियर का लंबा वक्त उन हालातों में गुजारा जब उसे पेशे से पत्रकार माना ही नहीं जाता था.</p> <p>

: क्षेत्रीय पत्रकारों का हाल- न्यूनतम वेतन, काम का बोझ और बदनामियां : आज हम अपने साथी विनय तरुण को याद करने के लिये यहां जमा हुए हैं, हम सब जानते हैं कि वह एक प्रॉमिसिंग जर्नलिस्ट था. एक ऐसा पत्रकार था जिसने कई संवेदनशील मुद्दों पर बेहतरीन रिपोर्टिंग की और जिसकी रिपोर्टों को पूरे देश में सराहना मिली. मगर मैं उसके जीवन का सबसे कड़वा सच बयान करूं तो आप हैरत से अवाक रह जायेंगे. उसने अपने करियर का लंबा वक्त उन हालातों में गुजारा जब उसे पेशे से पत्रकार माना ही नहीं जाता था.

उसके संस्थान ने तकनीकी तौर पर यह घोषित कर रखा था कि वह शौकिया लेखक है और उसका असली पेशा कुछ और है, ताकि उसे उसके मेहनत के लिये निर्धारित वेतन से वंचित किया जा सके और थोड़े से पैसे में उसे यह काम करने के लिये मजबूर किया जा सके. यह कहानी सिर्फ विनय की नहीं बल्कि हममें से कई साथियों की रही है, जो सालों इस तरह की नौकरी करने के बाद इस योग्य पाये गये कि खुद को पेशेवर पत्रकार कह सकें. विनय को इस बात का मलाल हमेशा रहता और मौका बेमौका वह कह बैठता कि हम लोग तो पत्रकार ही नहीं है. वह ताउम्र अपने साथ होने वाले अन्याय से पटरी नहीं बिठा पाया. यही वजह रही कि जब हम पहली बार उसे याद करने के लिये एक जुट इसी कड़वे विषय को बहस के लिये चुना. कई वरिष्ठ लोगों को इस विषय पर आपत्ति है और उनमें से कुछ सिर्फ इसी वजह से हमारे साथ नहीं है. मैं उनके लिये यह संदेश संप्रेषित करना चाहता हूं कि यह बिहार के क्षेत्रीय पत्रकारिता जगत की ऐसी त्रासदी से जिससे आंखें चुरा कर बचा नहीं जा सकता. हमें इसे स्वीकार करना पड़ेगा और इसे बदलना पड़ेगा. आखिरकार हम समाज को बदलने का दावा करते हैं, हम अगर अपने अंदर बदलाव नहीं ला सके तो हमारे शब्दों पर कौन भरोसा करेगा.

बहरहाल कई ऐसी घटनाएं हैं जो झकझोर देती हैं. एक साथी हमारे साथ बैठे हैं, उनके एक परिजन की अस्पताल में डाक्टरों की लापरवाही से मौत हो गई. जब उन्होंने डाक्टरों के सामने इसका विरोध दर्ज कराने की कोशिश की तो डाक्टरों ने उनकी पिटाई कर दी. उनके अखबार ने यह खबर छापी मगर कहीं इस बात का उल्लेख नहीं किया कि उक्त सज्जन पत्रकार हैं. अगर दलित पिटता है तो छपता है दलित की पिटाई, अफसर पिटता है तो छपता है अफसर की पिटाई पर अगर पत्रकार पिटता है तो अखबार वाले यह नहीं छापते कि पत्रकार पिटा. क्योंकि वे तो उनके हिसाब से कंट्रीब्यूटर हैं, पत्रकार हैं ही नहीं. उस साथी को यह बात बुरी लगी और विनय ने उसका साथ दिया. उसके पिटाई की खबर प्रतिद्वंद्वी अखबारों में पत्रकार विशेषण के साथ छपी. इसका नतीजा यह हुआ कि उक्त साथी की नौकरी ले ली गई. अभी वे एक अन्य अखबार में कार्यरत हैं.

एक और दहलाने वाली घटना है. जमुई का एक पत्रकार प्रमोद कुमार मुन्ना किसी खोजी खबर के चक्कर में देवघर में था. वहां अपराधियों ने बम मार कर उसकी हत्या कर दी. खबर अखबार में छपी मगर यह नहीं छपा कि उक्त पत्रकार फलां अखबार का रिपोर्टर था. यह हम हमारी जिंदगी. हालांकि हममें से कुछ लोग इसके बावजूद कुछ राहत की जिंदगी जीते हैं, क्योंकि संस्थान हमें हर महीने कुछ पैसे दे देता है. मगर बिहार में अधिकांश पत्रकार ऐसे हैं जिन्हें कवरेज के नाम पर संस्थान कोई नियमित वेतन नहीं देता, हालांकि एक खबर छूटने पर ऐसी झाड़ पिलाता है जैसा कोई क्रूर मालिक अपने नौकरों को डांटता होगा. यह उन हजारों कलमकारों की कहानी है जो अपने-अपने इलाकों में वीआईपी का दर्जा रखते हैं.

सबसे बड़ी विडंबना है कि क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस दौर में बिहार में खबरों की कीमत सिर्फ दस रुपये है. हमारे कई साथी यहां बैठे हैं, वे बेहतर बता सकते हैं. एक खबर को कवर करने में कितना पेट्रोल जलता है और कितना खून. मगर संस्थान उसके बदले उन्हें सिर्फ दस रुपये देता है. जिला मुख्यालयों और प्रखंडों में बैठे इन पत्रकारों को दस टकिया रिपोर्टर कहा जाता है. इस पत्रकारों की समस्या इतनी विचित्र है कि कोई इसके बारे में सोचना नहीं चाहता. आखिर एक व्यक्ति अपना पूरा समय एक अखबार को देता है. रोज उसकी तीन या चार खबरें छपती हैं और उसकी कुल आमदनी इस महंगाई के दौर में सिर्फ बारह सौ रुपये होती है. इस पत्रकारीय कर्म में औसतन उसका दो हजार रुपये का तेल जल जाता होगा, हजार रुपये मोबाइल में फिक जाते होंगे. मगर संस्थान उसके बारे में कुछ नहीं सोचता. अगर सोचने पर मजबूर किया जाये तो यही कहता है कि अरे दरोगा, वीडियो और एमएलए को ओबलाइज कर वह इतना कमाता होगा कि आप जैसे उसके सामने पानी भरेंगे. कई मामलों में यह सच हो सकता है, मगर क्या एक संस्थान के तौर पर यह जबाव कितना उचित है और इस तरह हम पत्रकारिता को किस दिशा में ले जा रहे हैं. एक युवक जो अपने समाज में बदलाव लाने के लिये इस पेशे को चुनता है वह देर सवेर भ्रष्टाचार के इस दलदल में फंस ही जाता है क्योंकि उसे अपना परिवार भी चलाना है. उसका पेशा उसे इमानदारी भरा जीवन बिताने की इजाजत नहीं देता और अंततः वह सत्ता प्रतिष्ठानों का उपकरण भर बन कर रह जाता है.

संस्थान इन पत्रकारों से उम्मीद रखता है कि उसके इलाके की कोई छोटी-बड़ी खबर न छूटे और मौका-बेमौका विज्ञापन भी मुहैया कराये. अखबार की बिक्री पर भी नजर रखे. इसके बावजूद उसके हिस्से में सिर्फ बदनामी होती है. वह बाहर तो बदनाम हो ही जाता है, वह संस्थान भी उसे उसी नजर से देखता है जो उसके पतन के लिये जिम्मेदार है. आखिर एक ब्ल़ॉक का पत्रकार गलत तरीके से कितना कमा सकता है. वह बहुत नीचे गिर जाये तो भी दस हजार से अधिक नहीं. अगर इन पत्रकारों को संस्थान सिर्फ पांच हजार रुपये प्रति माह देना शुरू कर दें तो इनमें से अधिकांश बेइमानी का रास्ता छोड़ देंगे. क्योंकि कोई इंसान बदनामी भरी जिंदगी नहीं जीना चाहता. पूरे बिहार में 38 जिले हैं और 534 ब्लाक हैं. हर जिले में औसतन पांच लोगों को अखबार नियमित वेतन देता है. ऐसे में तरीकरीबन सात सौ पत्रकार ऐसे होते हैं जिन्हे वेतन नहीं मिलता है. अगर इन्हें पांच हजार रुपये प्रतिमाह की दर से वेतन दिया जाये तो एक अखबार समूह पर प्रति माह 35 लाख का बजट आता है.

हालांकि यह एक बड़ी राशि है, मगर हर समूह अपने अखबार के जरिये जो मुनाफा कमाता है उसके हिसाब से यह राशि कोई बड़ा फर्क पैदा नहीं करती. हिंदुस्तान अखबार बिहार में औसतन हर माह एक करोड़ 50 लाख अखबार बेचता है इसके अलावा विज्ञापनों से इसकी आय भी अच्छी खासी होती है. अगर वह महीने का 30-35 लाख इस मद में खर्च कर दे तो न सिर्फ इन पत्रकारों का भला होगा, बल्कि पत्रकारिता के हालात में भी गुणात्मक सुधार होगा. ये अखबार हर माह इससे बड़ी रकम प्रोमोशन में खर्च कर देते हैं, मगर अपने जमीनी पत्रकारों से मुफ्त में काम करवाना चाहते हैं.

इसके अलावा एक बड़ा मसला इन पत्रकारों के प्रशिक्षण का है. इनमें से अधिकांश पत्रकार अपना प्रशिक्षण अखबार पढ़कर ही प्राप्त करते हैं. ऐसे में इन्हें सही-गलत और अच्छे बुरे की पहचान तक नहीं होती. मगर कोई मीडिया हाउस इस बात की परवाह नहीं करता कि उसे आखिरी छोर पर बैठा साथी जिम्मेदार पत्रकार हो. उसे पत्रकारिता के हुनर और इथिक्स से परिचित कराया जाये. अगर कोई अधिक बुरा निकला तो उसे बदल दिया जाता है. मगर प्रशिक्षण को अनावश्यक खर्च माना जाता है.

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जिला स्तर पर और प्रखंड स्तर पर पत्रकारों की नियुक्ति इस भाव के साथ होती है जैसे जागीरदारी बंट रही हो. हमारे अधिकांश साथी भी यही राय रखते हैं, मगर इसमें उनका दोष नहीं, मीडिया हाउसों ने कुल मिलाकर ऐसी परिस्थिति ही बनाकर रखी है. इस व्यवस्था में कोई सकारात्मक सोच ही कैसे सकता है. लिहाजा अगर कोई बदलाव लाना है ते सबसे पहले हालात बदलने होंगे…

सभी पत्रकारों के लिये नियमित वेतन की व्यवस्था करनी होगी…

प्रखंड और जिला स्तर के पत्रकारों के प्रशिक्षम की व्यवस्था करनी होगी…

कार्यालयों में काम करने वाले पत्रकारों को वेज बोर्ड के अंदर लाना होगा…

तभी क्षेत्रीय पत्रकारों के हालात बदलेंगे.

पुष्यमित्र की रिपोर्ट

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