हिंदी के ही नहीं, भारत के सबसे सिद्ध और प्रसिद्ध संपादकों में से एक राजेंद्र माथुर ने एक बार कहा था कि राष्ट्रीय अखबार की धारणा तेज चलने वाली रेलगाड़ियों, टैक्सियों और हवाई जहाजों ने छीन ली है। उनका कहना था कि जिन्हें राष्ट्रीय अखबार कहा जाता है वे उतने ही राष्ट्रीय हैं जितने दूर तक उन्हें रेल, जहाज और टैक्सियां समय पर ले जा सकते हैं। वह पीढ़ी अभी मौजूद है जिसने दिल्ली का अखबार मध्य प्रदेश, बिहार या राजस्थान के किसी गांव में डाक एडीशन के तौर पर दो या तीन दिन बाद पढ़ा था। अब जमाना बदल गया है और आम तौर पर हर जिले का अपना एक ऐसा अखबार है जिसे पढ़ कर भिंड, जौनपुर या आरा के पाठक को अधूरा अधूरा नहीं लगता। अब कहीं का पाठक भी हो, संसद या व्हाइट हाउस की खबरों के लिए अखबार नहीं पढ़ता। उसके लिए उसके पास टीवी के समाचार चैनल हैं। इतना जरूर है कि प्रिंट माध्यम की प्रामाणिकता इतनी बनी हुई है कि टीवी की खबरों की भी पुष्टि अखबारों से ही की जाती है।
जिलों से निकलने वाले कई अखबार महानगरों से और देश की राजधानी से निकलने वाले और अपने आपको राष्ट्रीय कहने वाले अखबारों से कई कदम आगे हैं। अगर आप याद करें तो मध्य प्रदेश के इंदौर जिले से निकलने वाला नई दुनिया हिंदी का पहला मानक अखबार माना जाता था। रांची से, जो जिला ही है, प्रभात खबर निकला तो पूरे देश के हिंदी पाठकों ने उसका स्वागत किया। नएपन और अपनेपन का हिंदी पाठक हमेशा स्वागत करता है। इसके अलावा भाषा अपनी सी हो और मुहावरा जाना पहचाना हो तो पाठक को ज्यादा तृप्ति मिलती हैं। भाषा और मुहावरे के किसी खेल को खिलाड़ी संपादक प्रभाष जोशी ने जनसत्ता निकालते वक्त पकड़ा था और अगर आप याद करें तो सुरेंद्र प्रताप सिंह ने जब आजतक निकाला था तो उसकी भाषा भी दूरदर्शन पर होने के बावजूद काफी हद तक सलीम जावेद वाली थी। इसीलिए इन्हें मंजूर किया गया।
पहले अखबार राष्ट्रीय थे और कम लोगों को याद होगा कि वीर अर्जुन जैसे अखबार के पाठक देश के दूर दूर के कोनो में थे। फिर क्षेत्रीय अखबारों का जमाना आया और कई संभाग तो ऐसे हैं जहां आधा दर्जन से ज्यादा दैनिक अखबार निकल भी रहे हैं और चल भी रहे हैं। जाहिर है कि बाजार में और विज्ञापनों के बही खाते में इनके लिए जगह है। क्षेत्रीय के बाद लोकल अखबारों का जमाना आया और वे भी अब जमने लगे है। बहुत सारा श्रेय इंटरनेट और ऑफसेट प्रिंटिंग के सुलभ हो जाने को दिया जा सकता है।
इसी तरह अब लोकल टीवी स्टेशन और टीवी चैनल भी न सिर्फ नजर आने लगे हैं बल्कि सफल भी होने लगे हैं। दिल्ली का टोटल टीवी, मुंबई का लेमन टीवी इसके साफ उदाहरण हैं। यूरोप और अमेरिका में जहां समाज शब्द का वैसा अर्थ नहीं है जैसा अपने यहां होता हैं, वहां भी कम्युनिटी रेडियो और कम्युनिटी टीवी काफी जोर शोर से चलने लगे हैं। अब इंटरनेट के जरिए टीवी प्रसारण की सुविधा का विकास और तकनीकी उद्धार होता जा रहा है और अगर लाइसेंसिंग आदि के झमेले नहीं रहे तो आप जल्दी ही मोहल्ले का टीवी देखेंगे। महानगर के कई नगरों में तो अखबार निकलने ही लगे हैं।
यहां पर पत्रकारिता के सरोकार की परिभाषा को बदलना पड़ेगा। दिल्ली के शकरपुर से निकलने वाले किसी दैनिक या साप्ताहिक का सरोकार वियतनाम और मैक्सिको की खाड़ी में तेल निकलना नहीं हो सकता। इसके पाठकों को तो पानी आने या नहीं आने, बसों के रास्ते बदलने और इलाके के थिएटरों में लगने वाली फिल्मों से मतलब है। यह फॉर्मूला एफएम रेडियो ने कब का अपना लिया है और वे सफल भी है और मुनाफा भी कमा रहे हैं।
इसका मतलब यह कतई नहीं हैं कि क्षेत्रीय या स्थानीय पत्रकारिता में विचार शब्द की कोई जगह नहीं रह जाने वाली है। जो अखबार अपने आपको बड़ा मानते हैं वे जमुना पार और अंधेरी के लिए अलग से चार पन्नों का पुल आउट ही सही, संस्करण निकालते है। उन्हें मालूम है कि पाठकों की अनिवार्यता क्या है। फिर भी सभी दर्जे के अखबारो में एक खतरनाक काम यह हुआ है कि विचार और दृष्टि और पक्ष संपादकीय पन्ने से निकल कर समाचारों के पन्ने तक पहुंच गया है और एक हद तक जिसे पेड न्यूज कहते हैं उसकी शुरुआत भी इसी बदले हुए दृष्टिकोण से हुई है।
भारतीय पत्रकारिता के संसार में जो अपना हित चाहते हैं उनके लिए जरूरी है कि जितनी जल्दी हो सके, स्थानीय और क्षेत्रीय ही नहीं, लोकल हो जाएं। अब दैनिक लांघ कर आंगन में घुसने का वक्त आ गया है और कई बड़े समाचार पत्र समूह इस बात को समझ चुके हैं इसलिए उनके ज्यादातर नए संस्करण जिलों से निकल रहे हैं। ईटीवी और सहारा समय के अलावा अब साधना टीवी ने भी सिद्धांत बना लिया है कि लोकल से लोकल खबरों को विस्तार दिया जाए। इसमें कई बार हास्यास्पद घटनाएं भी हो जाती है। हाल ही में एक टीवी चैनल पर सांड़ ने शायर को मारा और दूसरे टीवी चैनल पर जज के घर दूध फटा जैसी खबरें, अगर आप इन्हें खबर कहना चाहें तो ब्रेकिंग न्यूज में आ रही हैं। अब इतना लोकल होने की भी जरूरत नहीं है कि पाताल में ही समा जाएं।
लेखक आलोक तोमर जाने-माने पत्रकार हैं. डेटलाइन इंडिया के संपादक हैं. सीएनईबी से भी जुड़े हुए हैं.
sushil yadav
August 9, 2010 at 2:50 pm
locality ki seemma honi hi chahiye nahi to admi itna local ho jayega ki desh main kya ho raha hai iska pata hi nahi chalega. aur agar rashtriya khabron ke liye chanlon ki bat karte hain to ajj bhi gaon main chanlon ki pahuch to hai magar TV chalane ke liye liye gaonwalon ke pass bijli nahi hai. newspapers ko Gramin pathko ka dhyan rakhte hue natinol aur local dono main samnjasya bithakar hi chalna chahiye.
amit singh virat
August 9, 2010 at 10:35 am
alok ji aapne think global be local