हमारा हीरो – आलोक तोमर
आलोक तोमर का नाम ही काफी है। हिंदी मीडिया के इस हीरो से विस्तार से बातचीत की भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह ने। बातचीत कई चक्र में हुई और कई जगहों पर हुई। रेस्टोरेंट में, कार में, चाय की दुकान पर। इतनी कुछ बातें निकलीं कि उन्हें एक पेज में समेट पाना संभव नहीं हो पा रहा। इंटरव्यू दो पार्ट में दिया जा रहा है। पाठकों ने जो सवाल पूछे हैं, आलोक ने उनके भी जवाब दिए हैं। पेश है संपूर्ण साक्षात्कार-
-शुरुआत बचपन के दिन और पढ़ाई-लिखाई से करिए।
–27 दिसंबर सन 60 को चंबल घाटी के भिंड में पैदा हुआ। मुरैना जिले के गांव रछेड़ का रहने वाला हूं। इसी जिले में महिला डाकू पुतली बाई और क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल भी पैदा हुए थे। मातृसत्तात्मक परिवार है मेरा। माताजी एमए और बीएड करने वाली इलाके की पहली महिला हैं। पिता जी आठवीं पास थे। मां ने उन्हें एक तरह से मार-मार के पढ़ाया। माता जी जिस स्कूल में प्रिंसिपल थीं, वहां पिताजी टीचर बने। मेरे परिवार में भी बागी रहे हैं। हमारे यहां डाकुओं को सगर्व बागी बोलते हैं। लाखन सिंह तोमर दादाजी के मौसेरे भाई थे जो जाने माने बागी थे। प्राइमरी से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई भिंड में की। घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल होने और मां-पिता के टीचर होने का फायदा यह हुआ कि मुझे सीधे कक्षा चार में एडमिशन दिलाया गया और 17 साल की उम्र में ही भिंड के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया महाविद्यालय से वर्ष 1978 में बीएससी कंप्लीट कर लिया। मां-पिता डाक्टर बनाना चाहते थे इसलिए जबरन बायोलाजी पढ़वाया। बैच का सबसे जूनियर छात्र था। पढ़ाई के साथ खेती भी करता था। 21 किमी साइकिल से चलकर खेत पहुंचता था। रात में ट्यूबवेल की छत पर सोता था, सुबह ट्यूबवेल की मोटी धार से नहाता था, कलेवा आता था तो पेट पूजा हो जाती थी।
कोर्स से हटकर किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था। मां-पिता के पोलिटिकल साइंस में पढ़े होने से अरस्तू, कांट्स, सुकरात आदि को पढ़ गया था और लोकतंत्र, साम्राज्यवाद व साम्यवाद के बारे में जानने लगा था। घर में वीर अर्जुन और हिंदुस्तान अखबार आते थे। इनका नियमित पाठक था। मेरी एक दीदी एमए हिंदी से कर रहीं थीं तो उनसे शेखर एक जीवनी पढ़ने को मिला तो मैं अज्ञेय का मुरीद हो गया। अज्ञेय की अन्य किताबों के लिए भिंड शहर के गोल मार्केट लाइब्रेरी पहुंचा। वहां से अपने-अपने अजनबी को घर लाकर पढ़ा। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा जीतता था। कह सकते हैं, बकवास करने की आदत बचपन से है। मेरे नानाजी ठाकुर पुत्तू सिंह चौहान अपने जमाने की मशहूर पत्रिका सरस्वती के संपादक मंडल में थे। उन्होंने मेरी मां को बेहतर शिक्षा दी। मां की भाषा बहुत अच्छी है। हालांकि उनको अंग्रेजी अच्छी नहीं आती थी पर मुझे अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने के लिए जी-जान से जुटी रहती थीं। शायद उन्हें यह अंदाजा था कि आगे अंग्रेजी की उपयोगिता ज्यादा है। मां-पिता की इच्छा के अनुरूप मुझे डाक्टर बनने के लिए पीएमटी की परीक्षा देनी थी पर उम्र परीक्षा में शामिल होने की हुई नहीं।
इसी दौरान धर्मयुग का एक अंक हाथ में पड़ गया। बाद में इस पत्रिका के कई अंक पढ़े। उदयन शर्मा और एसपी सिंह का लिखा बहुत पढ़ता था। तभी समझ में आया कि लिखना भी कोई विधा है। उदयन शर्मा मेरे मानस गुरु और एक तरह से प्रेरणा बने। रविवार में उदयन जी का लिखा बहुत पढ़ा। उन्हें पत्र लिखने लगा। छपने के लिए कुछ लिखकर भेजने लगा। उदयन जी का जवाब आया कि निबंध की शैली में नहीं, रिपोर्ट की शैली में लिखो। भिंड की लाइब्रेरी में एक बार नवभारत टाइम्स देखा तो उसमें टाइम्स आफ इंडिया प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए वैकेन्सी निकली थी। मैंने भर दिया। नभाटा वालों ने शायद भिंड को मुंबई के पास समझा और मुझे टेस्ट के लिए मुंबई आफिस बुला लिया। घर वालों को बोला कि मैं ग्वालियर जा रहा हूं और निकल पड़ा मुंबई के लिए। रेल में रिजर्वेशन भी होता है, तब मुझे यह पता न था। मेरी उम्र 18 की नहीं हुई थी। पंजाब मेल के जनरल डिब्बे में बैठकर मुंबई गया। बीच में मेरे जूते गायब हो चुके थे। नंगे पांव स्टेशन पर उतरा। 12 रुपये में प्लास्टिक का चप्पल खरीदा। नभाटा आफिस बांबे वीटी के सामने ही था। मेरा हुलिया देख दरबान ने घुसने नहीं दिया लेकिन जब उसे टेस्ट के लेटर वगैरह दिखाए तो अविश्वास के साथ घूरते हुए अंदर जाने दिया।
तब मेरा नाम हुआ करता था आलोक कुमार सिंह तोमर ‘पतझर’। इसी नाम से धर्मयुग में गीत लिखगा था। नभाटा में रिटेन दिया और टाप कर गया। मेरा इंटरव्यू डा. धर्मवीर भारती, राम तरनेजा और फिल्म अभिनेता राजेंद्र कुमार ने लिया। डा. भारती बोले- ”तुम अभी 18 के नहीं हुए हो और नौकरी देने का मतलब है कि बाल श्रम का आरोप लगना। तुम हम लोगों को जेल में बंद करवाओगे!” मैंने कहा- ”देर से पैदा होने पर मेरा क्या कसूर।” आखिरकार उन लोगों ने मुझे नहीं लिया क्योंकि कानूनन यह संभव न था। मुझे लौटने का किराया दिलवा दिया। ग्वालियर लौटा तो अखबार में काम करने का कीड़ा अंदर पैदा हो चुका था। चंबल वाणी, स्वदेश, भास्कर आदि अखबारों के दफ्तर के चक्कर लगाने लगा। संघ की आइडियोलाजी वाले अखबार दैनिक स्वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा हुआ करते थे। उन्होंने मुझे प्रूफ रीडर पद पर 175 रुपये की तनख्वाह पर भर्ती कर लिया। तीन माह बाद पीटीआई और यूएनआई की खबरों के हिंदी अनुवाद की मेरी योग्यता को देखते हुए मुझे फ्रंट पेज प्रभारी बना दिया गया और तनख्वाह कर दी गई 350 रुपये। मैंने कहा कि मुझे इस अखबार में लेख भी लिखना है। पर मेरी उम्र का हवाला देते हुए और कम अध्ययन होने की आशंका व्यक्त करते हुए मना कर दिया गया।
उसी दौरान एक घटना हुई। मुरैना के एक गांव के स्कूल में विषाक्त दलिया खाकर 23 बच्चे मर गए। इस घटना को दबा दिया गया था। उस समय अर्जुन सिंह एमपी के सीएम हुआ करते थे। तत्कालीन विधायक के मुंह से इस घटना के दबाए जाने के बारे में एक जगह मैंने सुन लिया। मैं उस गांव गया और सबसे बातचीत की और फ्रंट पेज पर छाप दिया। जनसंघ तब विपक्ष में था और यह अखबार भी उसी के विचारधारा का था। विधानसभा में हंगामा मच गया। अर्जुन सिंह ने डीएम से फोन पर पूछा तो डीएम ने बता दिया कि जिस गांव में घटना होने की बात बताई जा रही है, उस गांव का तो अस्तित्व ही नहीं है। मतलब स्टोरी को फर्जी करार दिया गया। मैं फिर गांव पहुंचा और उस गांव के सरकारी पशु चिकित्सालय, खाद्य निगम आफिस आदि के डिटेल और गांव के उन परिजनों की तस्वीरें जिनके बच्चे नहीं रहे, इकट्ठा कर फिर फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया।
तब 72 प्वाइंट लीड की सबसे बड़ी हेडिंग होती थी। उसके उपर के फांट के लिए बड़े पोस्टर वाले फांट का इस्तेमाल करना होता था। ये स्टोरी बड़े पोस्टर वाले फांट में 108 प्वाइंट में प्रकाशित हुई। मुख्यमंत्री झूठ बोलते हैं हेडिंग और आलोक कुमार सिंह तोमर की बाइलाइन के साथ स्टोरी प्रकाशित हुई। फिर तो इतना हंगामा हुआ कि अर्जुन सिंह को गांव आना पड़ा। तब पहली बार किसी सीएम या मंत्री को नजदीक से देखा था। अर्जुन सिंह से मुझे मिलवाया गया तो मैं डरता हुआ पहुंचा था कि जाने अब क्या होगा। अर्जुन सिंह को जब बताया गया कि यही आलोक कुमार सिंह तोमर हैं तो उन्होंने लगभग 18 साल के ”बच्चे” को ऊपर से नीचे तक देखा और बोले कि यह जज्बा और हिम्मत काबिले-तारीफ है। वे मुझे अपने साथ हेलीकाप्टर में बिठाकर उस गांव ले गए। तब पहली बार हेलीकाप्टर में बैठा था और सीएम के साथ वाले लोग मुझसे उस गांव का रास्ता पूछ रहे थे पर उपर से गांव का रास्ता मुझे सूझ ही नहीं रहा था।
-आप बता रहे थे कि घरवाले डाक्टर बनाना चाहते थे और आपने पत्रकारिता शुरू कर दी। घरवालों ने आपको यूं ही पत्रकारिता करने दिया?
–घर में मुझे डंडा पड़ चुका था पीएमटी छोड़ने के लिए। मेरे लेखन के प्रशंसक बढ़ने लगे थे तो मुझे लगने लगा कि अब मुझे लिखने पढ़ने का काम ही करना है और हर हाल में पत्रकार बनना है। एक बार तो दो सिपाही आए और डिप्टी एसपी साहब बुला रहे हैं, कह कर साथ ले गए। पहुंचा तो पता चला कि डिप्टी एसपी साहब को मेरी छपी कविताएं और रिपोर्ट अच्छी लगती थी सो उन्होंने शाबासी देने और आगे इसी तरह लिखते रहने की नसीहत देने के लिए बुलवाया है। डाक्टरी के सपने को तोड़ने के बाद मैंने एमए हिंदी साहित्य में एडमिशन ले लिया था।
-आपने पहली स्टोरी ब्रेक की और सीएम तक हिल गए। दूसरी बड़ी स्टोरी क्या ब्रेक की?
–एक बार रछेड़ इलाके के भिडोसा गांव में शादी में गया था। वहां देखा कि एक लंबे से व्यक्ति को लोग बहुत ज्यादा सम्मान दे रहे हैं और उसका खास ध्यान रख रहे हैं। मुझे भी उत्सुकता हुई। पता चला कि वे मशहूर बागी पान सिंह तोमर हैं जो कभी बाधा दौड़ में टोक्यो एशियाड में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। मतलब, एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बागी बन गया। हां, एक चीज बताना भूल गया। उन दिनों मैं यूनीवार्ता का पार्ट टाइम स्टिंगर भी बन चुका था। मैंने पान सिंह तोमर से बातचीत करने के बाद उनके खिलाड़ी से बागी बनने की यात्रा पर यूनीवार्ता के लिए आठ टेक में स्टोरी फाइल कर दी। देश के सभी बड़े हिंदी अंग्रेजी अखबारों ने इस स्टोरी को फ्रंट पेज पर प्रकाशित किया। स्टोरी छपने के बाद एमजे अकबर और उदयन शर्मा सरीखे लोग पान सिंह तोमर के इंटरव्यू के लिए आए। माध्यम बना मैं। बाद में इन्होंने जो स्टोरी लिखी तो अपने नाम के साथ मेरा नाम भी जोड़ा। संयुक्त बाइलाइन गई। मतलब MJ Akbar with Alok। उदयन शर्मा / आलोक तोमर। इससे दिल्ली में मेरी पहचान बढ़ी।
-पान सिंह तोमर की स्टोरी के जरिए दिल्ली की पत्रकारिता में एक तरह से आपके नाम का प्रवेश हो चुका था। दिल्ली यात्रा कैसे हुई?
–उन दिनों दिल्ली में दैनिक हिंदुस्तान की संपादक हुआ करती थीं शीला झुनझुनवाला। मैंने इस अखबार के संपादकीय पेज के लिए एक लेख भेजा- क्या भारत अणु बम बनाए। तब पोखरण एक हो चुका था। मेरा लेख संपादकीय पेज पर मुख्य आर्टिकल के रूप में प्रकाशित हुआ। शीला जी की चिट्ठी भी आई, लिखते रहिए के अनरोध के साथ। मैं विज्ञान आधारित लेखों के फटाफट छपने को देखते हुए अपनी विज्ञान की पढ़ाई का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान लेखक बनने की ओर बढ़ चला। दैनिक हिंदुस्तान में लगातार छपने लगा। उन्हीं दिनों एमए का रिजल्ट आया। 70 फीसदी नंबर हिंदी में आए जो एक रिकार्ड बना। और इससे रिकार्ड टूटा अटल बिहारी वाजपेयी का जो ग्वालियर के इसी महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय के हिंदी के छात्र रहे थे और उन्होंने तब 59 प्रतिशत अंक हिंदी में पाकर रिकार्ड बनाया था। तब इसका नाम विक्टोरिया कॉलेज था। मेरे बारे में तब अखबारों में छपा, आलोक तोमर का सुयश शीर्षक के साथ। इसमें मेरी फोटो भी छपी। एमए टाप करने के बाद मेरी अस्थायी नौकरी महिलाओं के कालेज में लग गई। इस कालेज में जिन्हें मैं पढ़ाता वो मुझसे बड़ी लड़कियां और औरतें हुआ करती थीं। मैं जब उनके सामने विद्यापति, बिहारी, देव, जायसी के लिखे ऋंगार की व्याख्या करता तो वे मुझे हूट कर देती थीं। यहां तनख्वाह 1600 रुपये थे जो बहुत अच्छी थी पर लड़कियों-औरतों के इस व्यवहार से मैंने नौकरी छोड़ दी और फिर स्वदेश में आ गया। इन्हीं दिनों में मैंने एक आफ बीट विषय, जो मुझे हमेशा से पसंद रहे हैं पर स्टोरी की। अटल जी के बचपन व उनके कालेज पर, बगैर अटल जी को पेश किए। अटल जी तब भी महान नेता हुआ करते थे। स्वदेश के पहले संपादक भी वही थे। यह स्टोरी अटल जी को दिखाई गई। जब वे आए तो मुझे नाम लेके बुलाया और पीठ ठोंकी। तब मेरी तनख्वाह 450 रुपये हुआ करती थी जिसे बढ़ाकर 500 रुपये कर दिया गया।
उन दिनों मैं और प्रभात झा स्वदेश अखबार के रील वाले कमरे में ही सो जाते थे। प्रभात झा अब सांसद हैं। इसी बात पर याद आ रहा है मेरे तीन रुम पार्टनर इन दिनों सांसद हैं। प्रभात झा, राजीव शुक्ला और संजय निरुपम। स्वदेश में रहते हुए टीओआई के लिए एक बार फिर टेस्ट दिया था जिसमें पास हो गया पर अप्वायंटमेंट लेटर स्वदेश के पते पर आया तो मुझे मिला ही नहीं। इस तरह टीओआई में कभी काम नहीं कर पाया। ग्वालियर में मुझे लगने लगा था कि अब इस शहर में मेरा निबाह नहीं होगा। सीमाएं छोटी महसूस होने लगीं। जितना करना, बनना, पाना था वो हो चुका था। स्वदेश में 1978 से 81 लास्ट तक रहा। सरकारी नौकरी करनी नहीं थी, डाक्टर बनना नहीं था। ऑफिस से साइकिल खरीदने के लिए एडवांस मांगा और 1981 लास्ट में दिल्ली आ गया। मेरे मित्र हरीश पाठक दिल्ली प्रेस में नौकरी करते थे। वे कालेज के मेरे सीनियर थे। दिल्ली में स्टेशन पर उतरा तो आटो वाले ने निजामुद्दीन से आरके पुरम संगम सिनेमा के पीछे का 70 रुपये किराया उस जमाने में ले लिया। दिल्ली में हिंदुस्तान की संपादक शीला जी, माया के ब्यूरो चीफ भूपेंद्र कुमार स्नेही, दिल्ली प्रेस वालों से, यूएनआई के शरद द्विवेदी जी से मिला। नौकरी के लिए भटकता रहा।
यूएनआई के शरद द्विवेदी जी ने कुछ लिखकर दिखाने के लिए कहा। बाहर निकला तो प्यास लगी थी। पानी वाले से 5 पैसा प्रति गिलास के हिसाब से पानी पीने लगा। उससे बातचीत भी करने लगा। एक गिलास पानी पिलाने से मिले 5 पैसे में उसे कितना लाभ होता है, पूछने लगा। बातचीत काफी हो गई तो लगा कि ये तो स्टोरी है। आकाशवाणी के सामने रिजर्व बैंक की सीढ़ियों पर बैठकर प्यास बुझाने वाला खुद ही प्यासा शीर्षक से पूरी स्टोरी लिख दी। उस बंदे को पांच पैसे में से सिर्फ आधे पैसे ही लाभ के रूप में मिलते थे। शरद जी ने देखा और स्टोरी को अपने पास रख लिया। वहां से अमेरिकन सेंटर लाइब्रेरी चला गया जो मेरा फेवरिट अड्डा था। इस लाइब्रेरी से रिफरेंस बुक मिल जाया करती थीं और उन्हें पढ़कर – टीपकर माया और हिंदुस्तान टाइम्स में विज्ञान विषयों पर लिखा करता था। यहां से निकला तो देखा कि सांध्य टाइम्स में बाटम स्टोरी छपी है- वार्ता से रिलीज। स्टोरी मेरी पानी वाली थी। मैं दौड़ते हुए शरद द्विवेदी जी के पास पहुंचा। मैंने इस स्टोरी के मेहनताने की मांग की। उन्होंने कहा कि अभी लोगे तो कम रुपये मिलेंगे, अगले दिन लोगे, जब स्टोरी कहां कहां छपी है, इसकी इम्पेक्ट रिपोर्ट आ जाएगी, तो ज्यादा जगहों पर छपने से हो सकता है ज्यादा रुपये मिल जाएंगे। मैंने अपनी जेब की ओर देखा, 10 रुपये थे, आज का काम चल जाएगा, सो उनसे मैंने कल लेने को कह दिया। और अगले दिन 250 रुपये मिले। इस तरह से खून मुंह लग गया। मैं स्थायी लेखक रख लिया गया। जब मेरा महीने का भुगतान ज्यादा होने लगा तो मुझे ट्रेनी जर्नलिस्ट रख लिया गया। यहां से नौकरी किस तरह गई, वो भी मजेदार घटना है। खेल के मामले में मैं शून्य था और हूं। भले ही मैं प्रभाष जोशी का शिष्य हूं तो क्या। उन दिनों मैं नाइट शिफ्ट लेता था क्योंकि दिन में दूसरे अखबारों मैग्जीनों के लिए लिखता था और लाइब्रेरी में पढ़ाई करता था। एक दिन नींद के झोंके में खेल की एक खबर का अनुवाद करने में मर चुके एक खिलाड़ी से शतक बनवा दिया। अगले दिन कई अखबारों से शिकायत आई और मैं नौकरी से निकाल दिया गया। एक बार फिर सड़क पर आ गया। यूएनआई की नौकरी के दौरान ही हरिशंकर व्यास से मुलाकात हुई थी जिन्होंने जनसत्ता के जल्द प्रकाशन शुरू होने की जानकारी दी थी। यह बात सन 83 की है। मैंने संपर्क किया तो मेरा टेस्ट हुआ और इसमें टॉप कर गया। इंटरव्यू में सेकेंड पोजीशन पर आया। जनसत्ता में ट्रेनी उप संपादक रख लिया गया। पर मैं फैल गया कि मैं रिपोर्टर बनूंगा। व्यास जी ने मुझे रिपोर्टर बनवाया। तब राम बहादुर राय चीफ रिपोर्टर थे। मुझे क्राइम रिपोर्टिंग पसंद थी। प्रभाष जोशी जी को मेरा लिखा पसंद आता था, मेरी पीठ ठोंकते थे। 31 अक्टूबर सन 84 की बात है। रोजाना की तरह पुलिस कंट्रोल रूम को फोन कर किसी नए वारदात की सूचना के बारे में जानकारी के लिए फोन मिलाया। जानकारी मिली की पीएम हाउस में गोली चली है, तुगलक रोड थाने से पता कर लीजिए। थाने फोन किया तो वहां से सपाट तरीके से बताया गया कि इंदिरा गांधी मर लीं कबकी, लाश लेने गए हैं सब लोग। मैं उस समय चौधरी चरण और देवीलाल के पास गया हुआ था। वहीं शरद यादव भी थे। उस वक्त मेरे पास पैसे नहीं थे। मैंने शरद यादव से 50 रुपये मांगे और भागा। पहले प्रभाष जी को फोन किया। उनका कहना था कि गोली की बात तो सही है पर मौत हुई या नहीं, यह कनफर्म नहीं है। मैंने उन्हें मृत्यु की पुष्ट जानकारी दी। प्रभाष जोशी जी ने जनसत्ता का स्पेशल इशू निकालने की तैयारी कर ली। मैं एम्स गया, सारी जानकारियां इकट्ठी की और फोन पर ही खबरें बोलीं। मैं खबर लिखते समय कभी फाइव डब्लू और वन एच से शुरुआत नहीं करता। मैंने इंट्रो लिखा या बोला- आज दो हत्याएं हुईं। एक इंदिरा गांधी की। एक मनुष्य पर मनुष्य के विश्वास की। चूंकि बाडीगार्डों ने गोली मारी थी इसलिए एक तरह से विश्वास की हत्या की गई थी। जनसत्ता का यह स्पेशल इशू ब्लैक में बिका। बाद में दंगे शुरू हुए तो रो-रो के खबरें लिखता था क्योंकि जो कुछ सामने देखा था, वो बेहद भयावह था। उन दिनों मेरी उम्र 22 की रही होगी। यह टर्निंग प्वाइंट था मेरे लिए। सरदारों के बीच मैं बेहद लोकप्रिय हुआ क्योंकि मैंने उनका पक्ष लिया था। बाद में उन लोगों ने सरोपा वगैरह भेंटकर मुझे सम्मानित किया।
जब एनबीटी में एसपी सिंह और रविवार में उदयन शर्मा संपादक बने तो दोनों ने नौकरी के लिए मुझे बुलाया पर प्रभाष जी ने जाने नहीं दिया। उनका वचन मेरे लिए पत्थर की लकीर है क्योंकि वे पिता तुल्य हैं। हिंदी मीडिया के आज तक के इतिहास में संपूर्ण संपादक अगर कोई हुआ है तो वे प्रभाष जोशी ही हैं। एसपी सिंह, उदयन शर्मा और राजेंद्र माथुर के साथ कई अच्छाइयां हैं पर सबमें कोई न कोई एक ऐसी चीज रही जिसके चलते उन्हें कंप्लीट एडीटर नहीं कहा जा सकता। एसपी सिंह के लिए, श्रद्धापूर्वक कहूँगा कि खबरों की उन जैसी समझ कहीं नही देखी, उन्होंने पत्रकारिता को पूरी एक पीढी दी। जब रविवार में जाने से मैंने मना किया तो राजीव शुक्ला के पास आफर आया और वे जनसत्ता छोड़कर रविवार चले गए। बाद में मुझे चीफ रिपोर्टर बना दिया गया। 23 के उम्र में यह जिम्मेदारी मेरे लिए बड़ी थी। टीम में सभी लोग उम्र में सीनियर थे, सब अंकल की उम्र के थे। मैं अच्छा एडमिनिस्ट्रेटर नहीं हूं। सारा काम मेरे सिर पर आ जाता था। चीफ रिपोर्टरी बहुत दिन चली नहीं। प्रभाष जी ने मुझे 6 साल में 7 प्रमोशन दिए। सहायक संपादक / स्पेशल करेस्पांडेंट के रूप में काम किया। उन्हीं दिनों (सन् 1993 में) एक घटना घटी जिसके चलते प्रभाष जोशी जी ने मुझे जनसत्ता से बाहर कर दिया और मैं फिर सड़क पर आ गया था। मेरे पासवर्ड का इस्तेमाल करके किसी ने मेरे आफिस के कंप्यूटर से साहित्यकार गिरिराज किशोर के एक आर्टिकल का संपादन कर उसका अर्थ ही उल्टा कर दिया था। यह एक साजिश थी। बाद में इसकी जांच कराई गई तो कारनामा मेरे कंप्यूटर से हुआ पाया गया और प्रभाष जी ने मुझे बाहर कर दिया। हालांकि उन्होंने कृपा यह की कि समयावधि न होने के बावजूद ग्रेच्युटी दिलवाई, केके बिड़ला फाउंडेशन फेलोशिप दिलवाई।
चंद्रा स्वामी से डेढ़ लाख रुपये लेकर मैंने शब्दार्थ फीचर एजेंसी शुरू की। मैं इसे स्वीकार करता हूं कि मैंने चंद्रास्वामी से फीचर एजेंसी खोलने के लिए पैसे मांगे थे और उन्होंने अपने दराज में हाथ डालकर पचास पचास हजार की तीन गड्डियां सामने रख दी थीं। फीचर एजेंसी का काम चल निकला था। तब तक शादी हो चुकी थी। बेटी थी। बाद में सन 2000 में इंटरनेट न्यूज एजेंसी डेटलाइन इंडिया नाम से शुरू कर दी। टीवी में भी काफी काम किया। जी न्यूज और आज तक में रहा। टीवी पर चुनाव के विशेष प्रोग्राम करता रहा।
-आपने जैन टीवी के मालिक जेके जैन को एक बार पीटा था, क्या यह सही है?
–हां यह सही है। आज तक छोड़कर जैन टीवी चला आया था। यहां स्थितियां ठीक नहीं थी तो छोड़ दिया। तनख्वाह के पैसे नहीं दे रहे थे तो एक बार अशोका होटल में जैन मिल गए। उन्हें पीटा। वे बीजेपी से टिकट लेकर चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्हें टिकट नहीं मिलने दिया। डा. जेके जैन सर्जन तो अच्छा है पर आदमी बुरा है। मैंने तय कर लिया है कि जब तक मैं जीवित हूं उसे किसी बड़ी पार्टी की टिकट नहीं मिलने दूंगा चुनाव लड़ने के लिए।
-आप एस1 चैनल और सीनियर इंडिया मैग्जीन में रहे। वहां से भी आप निकाल गए थे?
–मैंने जहां भी नौकरी की वहां से अमूमन निकाला ही गया। अलका सक्सेना मेरी तबसे दोस्त हैं जबसे वे दो चोटियां बांधती थीं। उनके कहने पर एस1 के विजय दीक्षित ने राजनैतिक संपादक बना दिया। यहीं पर मैंने मैग्जीन निकालने का आइडिया दिया। हालांकि सीनियर इंडिया नाम मुझे पसंद नहीं था पर दीक्षित जी इस नाम को पहले ही बुक कराकर बैठे थे। इसी मैग्जीन में एक स्टोरी छपी जिसमें बताया गया था कि तत्कालीन दिल्ली पुलिस के आयुक्त केके पाल के बेटे अमित पाल जो सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते हैं, वे कोर्ट में उन अपराधियों का डिफेंस करते हैं जिन्हें केके पाल के निर्देश पर दिल्ली पुलिस पकड़ती है। केके पाल ने मिलने के लिए बुलवाया। बाद में धमकाने लगे। मैं उनके धमकाने में आने के बजाय इसी विषय पर एक नई स्टोरी के लिए कई सवाल फैक्स कर उनसे जवाब मांगा। वो फैक्स एक अपराधी अपने हाथ में लेकर मेरे आफिस मुझे ही धमकाने आ गया। तो इसी पर एक स्टोरी छाप दी गई कि सरकारी करेस्पांडेंट अपराधी ले के आया। केके पाल की नजर मेरे पर तिरछी थी। उसी समय डेनिश कार्टून को हम लोगों ने मैग्जीन में प्रकाशित कर दिया और केके पाल को मुद्दा मिल गया। उन्होंने मुझे उठवा लिया। मुझे तिहाड़ में हाई सिक्योरिटी जिसे काल कोठरी भी कहते हैं, में यह कहकर रख दिया गया कि जेल में मुसलमान ज्यादा हैं इसलिए मेरी जान को खतरा हो सकता है। मुझे जेल भेजे जाने के बाद साथियों और सीनियरों ने अदालत जा कर सरकार पर दबाव बनाया। इंटरनेशनल प्रेसर भी क्रिएट होने लगा। बाद में जमानत पर बाहर आया। उसके बाद की ही बात है कि मैं और मेरी पत्नी रायपुर से आ रहे थे। रायपुर में हम लोगों ने राज्यपाल के साथ नाश्ता किया था, सीएम के साथ लंच किया और मैंने डिनर अकेले हवालात में किया। धारा 420 के साथ एक पुराना केस चल रहा था, उसमें केके पाल की कृपा से एक बयान के आधार पर पुलिस ने मुझे अरेस्ट कर लिया। हालांकि पहली पेशी के साथ ही यह केस खत्म हो गया। सच कहूं तो प्रतिष्ठान की दंड मूलक विडंबनाएं अभी भी भुगत रहा हूं।
-जीवन में आपने प्रेम किया या सीधे शादी कर ली?
–जब मैं ग्वालियर में एमए प्रीवियस में था तो कस के प्रेम किया। प्रेम कविताएं लिखीं। वो मेरे से जूनियर थीं। बंगाली लुक लगती थीं। उनकी जिद थी कि मैं सरकारी नौकरी करूं तभी वो शादी करेंगी। वो नवगीत में पीएचडी लिख रही थीं। बाद में उन्होंने शादी किसी और से की। आजकल वो प्रोफेसर हैं। इसके भी पहले, किशोरावस्था में मैंने फिल्म गुड्डी देखी थी। इसमें जया जी मुझे बेहद भा गईं। मासूम चेहरा और ओस से भीगी आवाज़। मैं उनसे प्रेम करने लगा। उन्हें प्रेम में डूबी एक लंबी चिट्ठी भी लिख भेजी। मैंने तय कर लिया था कि जया जी से ही शादी करूंगा। जया जी से शादी के लिए मैंने बंगाली सीखने का ठानी। बंगाली रैपिडेक्स ग्रामर कोर्स खरीदकर सीखने की शुरुआत भी कर दी। बाद में पता चला कि जया जी से मेरी शादी नहीं हो सकती। हालांकि तब भी मैंने तय कर लिया था कि मैं जया जी जैसी या उनसे सुंदर लड़की से ही शादी करूंगा। और किया भी। सुप्रिया, मेरी पत्नी, बंगाली हैं और, यह मैं जया जी को भी बता चुका हूँ की उनसे सौ गुना ज्यादा खूबसूरत हैं। उनसे मैंने प्रेम किया और शादी की। दिल्ली आने पर जो पहली दोस्त बनी वो भी बंगाली। नाम- शर्मिष्ठा जो विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी की बेटी हैं। हम दोनों साथ खूब घूमते थे। बीअर, जिन, वोदका पीते रहते थे। हम दोनों ही स्वभाव के यायावर रहे। बाद में हम लोगों ने विश्लेषण किया कि हम दोनों अगर एक साथ रहने लगें तो पट नहीं सकती क्योंकि दोनों का मिजाज एक जैसा था। शर्मिष्ठा आज भी मेरे घनिष्ठ मित्रों में से एक हैं। वे कथक की बेहतरीन डांसर हैं।
-आपने सुप्रिया से शादी की। उनसे मुलाकात कैसे हुई। शादी कैसे संभव हो पाई।
—सुप्रिया दिल्ली प्रेस में काम करती थीं। असाध्य रूप से सुंदर थीं और हैं। दिल्ली प्रेस में उनके एक साथी उन पर मर मिटे थे। वे साथी सुप्रिया को लेकर मेरे पास आए इंप्रेशन झाड़ने के लिए। इतवार का दिन था। दिल्ली में बम विस्फोट होने के चलते आफिस में काम ज्यादा था इसलिए मैं उन लोगों से बातचीत कम कर पाया और काम में ज्यादा उलझा रहा। नंगे पांव आफिस में इधर-उधर टहलता रहा। मैं आफिस में नंगे पांव ही रहता था। मैं ठीक से सुप्रिया को तब देख भी नहीं पाया था। वे बोलीं, सर आपके पास टाइम नहीं है। मैं चल रही हूं। मैं उन्हें छोड़ने के लिए बाहर आया और उनसे उनका नाम पूछा। उन्होंने बताया- सुप्रिया रॉय। मेरी तो लाटरी खुल गयी। इतनी सुंदर कन्या, ऊपर से बंगाली। मैंने उनसे अटकते हुए बांग्ला में बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए उनसे बात न कर पाने के लिए माफी मांगी। सुप्रिया का ताव और गुस्सा थोड़ा कम हुआ। सुप्रिया चली गईं पर उनका सुंदर चेहरा मेरे चेहरे के सामने से हट नहीं रहा था। अगले दिन मैंने उन्हें उनके आफिस फोन किया। उन्हें किसी बहाने बुलाना चाहता था, देखने के लिए। मैंने कहा कि उस्ताद अमजद अली खान का इंटरव्यू करने चलना है, तुम भी साथ चलो। उस्ताद अमजद अली खान मेरे मित्र थे। उनसे मैंने बता दिया था कि लड़की पटाने के लिए ला रहा हूं, जरा मेरी झांकी जमा देना। तीसरे, चौथे दिन फिर फोन किया। मैंने उनसे कहा कि हाफ डे लेकर आ जाओ। वो बोलीं कि नौकरी चली जाएगी। मैंने कहा कि नौकरी छोड़ के चली आओ। वे आईं और उन्हें स्कूटर से प्रगति मैदान ले आया। मैंने उनसे एक वाक्य में सवाल पूछा और कहा कि जवाब हां या ना में देना। मैंने पूछा कि क्या आप मुझसे शादी करेंगी? वो जवाब हां या ना में देने की बजाय आधे घंटे तक घुमाती रहीं। बाद में बोलीं कि मां-पिता कहेंगे तो कर लूंगी। वहां से मैं सुप्रिया को लेकर गोल मार्केट गया। वहां सुप्रिया की फोटो खिंचवाई और एक फोटो अम्मा के पास यह लिखकर भेजा कि ये आपकी बहूं बनेंगी। एक तस्वीर भूतपूर्व प्रेमिका को भेजा कि देखो, ये तुमसे ज्यादा सुंदर हैं। इसी बीच प्रभाष जी ने मुझे जनसत्ता, मुंबई भेज दिया था। मैंने उनसे सुप्रिया के दिल्ली में होने की बात कहते हुए मुंबई जाने से मना कर दिया तो उन्होंने शादी करा देने की गारंटी देते हुए मुझे मुंबई जाने को कह दिया। बाद में प्रभाष जी मेरे लिए सुप्रिया को मांगने की खातिर नारियल वगैरह लेकर सुप्रिया के मां-पिता से मिले। उन्होंने मेरे बेहतर भविष्य की गारंटी दी और शादी के लाभ गिनाए। उधर, मुंबई में मेरा मन नहीं लग रहा था और मैं फिर दिल्ली भाग आया। शादी 1990 में हुई।
-”गुड्डी” में जया जी को देखकर आप उनसे प्रेम करने लगे और प्रेम पत्र भी लिखा, शादी तक का प्लान कर डाला। क्या कभी ये बात जया बच्चन जी को बताई?
–हां, बताई। केबीसी लिखने के लिए मुंबई में था। कौन बनेगा करोड़पति उर्फ केबीसी का नाम, इसके डायलाग…लाक कर दिया जाए…आदि ये सब मेरा लिखा है। हां, तो कह रहा था कि केबीसी को लेकर अमित जी के घर पर मीटिंग में देर रात तक रहता था तो वहां जया बच्च्न भी होती थीं। एक दिन उन्हें अकेले में बताया कि आप से मैं कभी प्यार करता था और शादी करना चाहता था। साथ ही यह भी बताया कि जब यह समझ में आया कि शादी नहीं हो सकती आपसे तो मैंने आपकी ही तरह किसी लड़की से शादी करने की ठानी थी और ऐसा किया भी। इस पर जया जी ने सुप्रिया की तस्वीर मांगी। जब उन्हें दी तो उनका कहना था कि सुप्रिया तो मुझसे ज्यादा सुंदर है। मुझे बेटी चाहिए थी और बेटी मिली भी। बिटिया का नाम है मिष्टी।
इंटरव्यू का शेष पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- ”टीवी सुरसा है जो सबको निगल रही है” (2)
neelesh singh
January 22, 2010 at 7:03 am
you are great tomar sir;apke liye ye kahna chahuga “samar me ghav jo khata usi ka nam hota hai;chupi uss bedna me madhur wardan hota,sirjan me choot jo khata cchini aur hathaure se wahi pasaad ke kici mandir me bhagwan hota hai”
neelesh singh
January 22, 2010 at 7:10 am
you are great tomar sir,apke liye kuch kahna chahuga”samar me ghav jo khata usi ka nam hota hai,chupi uss bedna me madhur wardan hota hai,sirjan me chot jo khata chiini aur hature ka wahi passad ke kici mandir me bhagwan hota hai”
रवि
February 13, 2010 at 12:43 pm
कमाल के शख्सियत से कमाल का इंटरव्यू, मजा आया.
pankaj jha ( bhind mp end delhi )
May 12, 2010 at 1:19 pm
is interview ko padkar to maja aaya magar alok sir aap se ek baar milne ki tamnna hai fesha to fesha or mail id par my id [email protected]
gourbesh singh
January 15, 2011 at 10:29 am
mindbloing interview, romantic and successfull………………..great…………..dil ko chunewali………….
vikas srivastava
March 20, 2011 at 2:07 pm
He was a wonderful person qnd fearless journalist. By his death, the media world has come across a great loss, which can not be abridged. He remained fearless while writing against any political party or person. He lived on his own conditions and did not bow down before any problem.
farooq afridy
March 20, 2011 at 3:07 pm
यशवंत भाई , आका ये साक्षात्कार ऐतिहासिक हो गया है. तोमर के जीवन के सभी पहलुओं को आपने सामने लाने का प्रयास किया है.आप तो खुद उस अभियान के हिस्से हैं जिस के लिए तोमर जीया .
हर्यश्व सिंह सज्जन
March 20, 2011 at 5:06 pm
यह इंटरव्यू पढकर ही आलोकजी से पहला परिचय हुआ था। इसके बाद एक गुरु तुल्य वरिष्ठ पत्रकार से उनके बारे में काफी जानकारी मिली। आलोकजी और वह दोनों दिल्ली में कभी रूममेट हुआ करते थे। उन्होंने ही पहली बार फोन पर बात कराई। बाद में फेसबुक के जरिए परिचय प्रगाढ हुआ। रात को ऑफिस से आने के बाद मैं अक्सर कई घंटे नेट पर रहता हूं। सुबह सारे अखबार पढकर सोने की आदत हो गई है। आलोक सर अक्सर सुबह सवेरे ही ऑनलाइन हो जाते थे। तो रोज सुबह ही उनसे बात होने लगी।
एक बात जो हमेशा के लिए यादों के पन्नों में रहेगी वो यह कि उन्होंने चैट पर लिखा कैसे हो ठाकुर। मैं उन दिनों जागरण में था। मैंने कहा- सर आजकल यहां मन नहीं लग रहा। सैलरी बगैरह पर बात होने लगी। आलोक जी ने कहा कि आये हो सरस्वती के घर और बात लक्ष्मी की करते हो। बडे दुर्जन व्यक्ति हो। मैंने दुर्जन शब्द पर आपत्ति जताई, तो जवाब मिला कि हमेशा दुर्जन ही कहूंगा। उनसे दसियों मर्तबा फोन पर बात हुई। कभी मुलाकात नहीं हो सकी। इसका मलाल हमेशा रहेगा।
जब कैंसर वाली बात पता चली तो कई बार दिल्ली जाकर दर्शन करने का मन हुआ। लेकिन, हर बार यह सोचकर रह गया कि अगले रविवार को चलेगे। एक बार मिलने की हसरत हमेशा के लिए मन में रह जाएगी, यह कभी सोचा भी नहीं था। कुछ समय पहले फोन किया था, तो किसी और ने रिसीव किया था। मालूम ही नहीं था कि ‘वक्त’ इतनी तेज अपनी चाल चलेगा कि मेरी एक हसरत हमेशा के लिए ‘लॉक’ हो जाएगी। ईश्वर आलोक सर की आत्मा को शांति दे।
nazar
March 24, 2011 at 2:05 pm
ese talented sayad ab nahi milenge media ko bahud ache the
Anandsuman Singh
March 27, 2011 at 3:32 pm
aalok tomar ek swabhimaani aur nirbheek patrakar the, veh kshatriye kul me janme the ateh unka swabhav vaisa hona unki majboori tha, hijdon kee satta me aalok jaise mard hen hee kitne, jis prakar sher bhee ab kewal 1400 hee bache hen, sher jangal me rahe, pinjde me ya sarkas me rahega to sher hee mauka milte hee cheer dega, aalok ka jana mardon ke liye kashtkari he to hijdon ke liye khushi kee baat, aalok tum hamesha ham sabki smiritoiyon me zinda rahoge, anandsuman singh
nitin sabrangi
April 1, 2011 at 5:46 am
बहुत अच्छा इंटरव्यू था यशवंत जी। बहुत दुःख भी है कि हमने पत्रकारिता के अनमोल खजाने के वारिस को खो दिया है। परम पिता परमात्मा से कामना करता हूं कि उनकी आत्मा को शांति मिले।
pawan ku bhoot
April 24, 2011 at 12:30 am
nice thx
sachin
July 31, 2011 at 8:31 am
like this……..
rajlakhan singh
March 11, 2012 at 1:01 am
alok sir bhale is dunia se chale gaye hai. lekin unki yade hum sab ke dil hamesha jeewant rahengi……….. yashwant sir apne unka parichay dekar hum logo ko urjawan bana diya