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यूपी सरकार मेरा फोन टेप करा रही है

कुछ दिन पहले ही मुझे बताया गया कि उत्तर प्रदेश में सरकार कुछ पत्रकारों के भी फोन टेप कर रही है जिनमे मैं भी शामिल हूँ। वजह मानवाधिकारों और उन लोगों का सवाल उठाना है, जिन्हें पुलिस माओवादी बताती है। यह जानकारी हमारे इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी ने तब दी जब गिरफ्तार की गई सीमा आजाद को लेकर कई खबरें लिखी गईं। हमने उन्हें बताया कि फोन पिछले कई सालों से टेप हो रहा है और इसकी परवाह भी हम लोग नहीं करते हैं। इससे पहले मिर्जापुर जेल में नक्सली बताकर गिरफ्तार की गई बबिता से लेकर अन्य युवतियों के पुलिसिया शोषण की खबरें दी गईं।

<p style="text-align: justify;">कुछ दिन पहले ही मुझे बताया गया कि उत्तर प्रदेश में सरकार कुछ पत्रकारों के भी फोन टेप कर रही है जिनमे मैं भी शामिल हूँ। वजह मानवाधिकारों और उन लोगों का सवाल उठाना है, जिन्हें पुलिस माओवादी बताती है। यह जानकारी हमारे इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी ने तब दी जब गिरफ्तार की गई सीमा आजाद को लेकर कई खबरें लिखी गईं। हमने उन्हें बताया कि फोन पिछले कई सालों से टेप हो रहा है और इसकी परवाह भी हम लोग नहीं करते हैं। इससे पहले मिर्जापुर जेल में नक्सली बताकर गिरफ्तार की गई बबिता से लेकर अन्य युवतियों के पुलिसिया शोषण की खबरें दी गईं।</p>

कुछ दिन पहले ही मुझे बताया गया कि उत्तर प्रदेश में सरकार कुछ पत्रकारों के भी फोन टेप कर रही है जिनमे मैं भी शामिल हूँ। वजह मानवाधिकारों और उन लोगों का सवाल उठाना है, जिन्हें पुलिस माओवादी बताती है। यह जानकारी हमारे इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी ने तब दी जब गिरफ्तार की गई सीमा आजाद को लेकर कई खबरें लिखी गईं। हमने उन्हें बताया कि फोन पिछले कई सालों से टेप हो रहा है और इसकी परवाह भी हम लोग नहीं करते हैं। इससे पहले मिर्जापुर जेल में नक्सली बताकर गिरफ्तार की गई बबिता से लेकर अन्य युवतियों के पुलिसिया शोषण की खबरें दी गईं।

एक बड़ी मानवाधिकार कार्यकर्त्ता रोमा का जेल से बाहर आना संभव न था क्योकि पुलिस ने संगीन मामले दर्ज कर जेल भेज दिया था। तब भी इसी सामंती, बुर्जुआ और लघु अखबार यानी जनसत्ता ने पहल की और मुख्यमंत्री मायावती ने खबर को संज्ञान में लेते हुए रोमा पर से फ़ौरन एनएसए हटाने का निर्देश दिया।

कुल चार पांच दिन ही हुए जब इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार वीरेंदर नाथ भट्ट ने जनसत्ता की खबर – ‘किसानों के सवाल पर सड़क पर उतारी वाम ताकतें’ पढ़ कर फोन किया और कहा- ”अंबरीश जी, आपके अखबार की यह खबर पढ़कर लग रहा है कि हरिशंकर परसाई का व्यंग्य पढ़ रहा हूँ। कहां पाई जाती हैं ये तथाकथित वाम ताकतें। सुना है कुछ ब्लाग ब्लाग खेलती ताकते हैं जिनके नाम मार डालो, काट डालो, फाड़ डालो या फिर कट्टा बम विस्फोट टाइप होते हैं। पर ये जमीन पर तो कहीं दिखती नहीं।”

इससे पहले जब संजरपुर में मुस्लिम समुदाय पर सरकारी दमन का दौर चल रहा था और प्रदेश के विराट और विशाल अखबार (जिनका संस्करण हर आठ कोस पर बदल जाता है)  पुलिस के बयान को खबर में बदल रहे थे तब भी इसी लघु और ख़त्म हो चुके अखबार ने उनका सवाल पूरी ताकत से उठाया। पहले तो विशाल और विराट अखबारों के तीन साल के ठेके वाले पत्रकार सर्कुलेशन मैनेजर की तरह बात करते थे पर अब वे जनवादी वाम ताकते भी उसी अंदाज में बोल रही है जिनकी हम रोज खबरे कर रहे हैं।

अखबार कैसे चलेगा, यह प्रबंधन तय करता है उसका पत्रकार नहीं। जब जनसत्ता ने प्रसार संख्या में टेलीग्राफ को पीछे किया तो रामनाथ गोयनका का निर्देश हुआ कि प्रसार संख्या कम की जाये क्योकि सत्ता के खिलाफ खड़े रहने की वजह से विज्ञापन नहीं मिलता और जितना ज्यादा अखबार बिकेगा उतना घाटा बढेगा। उसके विस्तार में नहीं जाना चाहता हूँ। उस रणनीतिक गलती का नुकसान ज्यादा हुआ।

पर जनसत्ता में समाज के बदलाव और जन आंदोलनों को जितनी जगह मिली है, उतनी जगह देश के किसी अखबार ने नहीं दी, यह तथ्य है। माओवादियों की हिमायत लेने वाली खबरें भी जनसत्ता ने सबसे ज्यादा दी। अरुंधती से लेकर आनद स्वरुप वर्मा इसी अखबार में छपे। और मीडिया में हम जैसे पत्रकार माओवादियों के समर्थक ही माने जाते रहे हैं।

सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी यही हालत थी तब देशबंधु में रुचिर के साथ सबसे ज्यादा खबरें जनसत्ता ने ही दी। जिनमे बताया जाता था कि किस तरह पुलिस नक्सलियों का दमन कर रही है। उसी दौर में मेधा पाटकर मेरे साथ ही बस्तर के दौरे पर गई थी और कांग्रेस के गुंडों ने सर्किट हाउस में उन पर हमला कर दिया था। वजह हम उन ताकतों का समर्थन कर रहे थे जो बस्तर में नगरनार प्लांट का विरोध कर रही थी।

तब भी मुख्यमंत्री अजित जोगी और उनके डीजीपी आरएसएल की शिकायत रहती कि जब कोई अखबार नहीं लिख रहा तो हम क्यों नक्सलियों के ऊपर पुलिस जुल्म की खबरे दे रहे हैं। वहां हमारे संवाददाता राज कुमार सोनी को तो नक्सली घोषित ही कर दिया गया था। ऐसे में एक लेख को लेकर इतनी हाय तौबा क्यों?

हिदुस्तान टाइम्स के पत्रकार प्रदीप मैत्रा ने एक नहीं, दर्जन भर खबर दी है कि माओवादियो के कैम्प में क्या क्या हो चुका है। वे वाम धारा वाले है और जब छत्तीसगढ़ में थे तो सरकार से इस सवाल पर भिड भी जाते थे। अब जिस तरह की प्रतिक्रिया हो रही है उससे जरुर हैरान हैं क्योकि क्या लिखा जाए, यह आप नहीं तय करेंगे। लेख पर असहमति है तो अपनी बात लिखें पर लिखने वाले के खिलाफ अभियान न चलायें क्योकि आपको तो देश संभालना है, हम लोगों को फिलहाल कलम ही चलाना है।

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मृणाल के लेख के बहाने जनसत्ता और उसके पत्रकारों पर कीचड़ उछालना बंद होना चाहिए। यह सवाल जरूर पूछना चाहूँगा कि मुख्यधारा का कौन सा बड़ा अखबार आप यानी माओवादी आन्दोलन की कवरेज करता है। सीमा आजाद की ही कवरेज को नाप लें। वेब पत्रकारिया की खास बात यह है कि जो कोई कुछ लिखे, पहले उसकी खबर लो, मुद्दा से कोई लेना देना नहीं होता। आप भी वही कर सकते हैं।

लेखक अंबरीश कुमार यूपी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. जनसत्ता के उत्तर प्रदेश ब्यूरो चीफ हैं. वे ब्लागर भी हैं. उनके ब्लाग का नाम ‘विरोध’ है.

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0 Comments

  1. Sanjay Sharma. Editor Weekand Times

    September 11, 2010 at 8:02 pm

    अम्बरीश जी बहुत सही बात लिखी है आपने. आप की बबिता बाली खबर मैने पड़ी थी और भले ही कोई बोलने की हिम्मत न करे पर सभी जानते है कि सीमा विश्वास के साथ गलत हुआ. जनसत्ता और आप की खबरों पर किसी को शक नहीं होना चहिए. मैंने खुद गृह विभाग की पीसी मैं देखा है नक्सल्बाद की पुलिस की रटी रटाई कहानी पर अपना कोई साथी सवाल नहीं पूछता. पूछ कर करे भी क्या ? बड़े घरानों के अखबारों के लिए गरीबो और नक्सलबाद की समस्या कोई मायने नहीं रखती. आप लिखिए और कस कर लिखिए. सच की इस लड़ाई में हम आप के साथ हैं. आप लिखिए हम वीक एंड टाइम्स में भी छापेंगे ..फ़ोन टेप करवाने से या धमकाने से हर पत्रकार को नहीं दबाया जा सकताम्बरीश जी बहुत सही बात लिखी है आपने. आप की बबिता बाली खबर मैने पड़ी थी और भले ही कोई बोलने की हिम्मत न करे पर सभी जानते है कि सीमा विश्वास के साथ गलत हुआ. जनसत्ता और आप की खबरों पर किसी को शक नहीं होना चहिए. मैंने खुद गृह विभाग की पीसी मैं देखा है नक्सल्बाद की पुलिस की रटी रटाई कहानी पर अपना कोई साथी सवाल नहीं पूछता. पूछ कर करे भी क्या ? बड़े घरानों के अखबारों के लिए गरीबो और नक्सलबाद की समस्या कोई मायने नहीं रखती. आप लिखिए और कस कर लिखिए. सच की इस लड़ाई में हम आप के साथ हैं. आप लिखिए हम वीक एंड टाइम्स में भी छापेंगे ..फ़ोन टेप करवाने से या धमकाने से हर पत्रकार को नहीं दबाया जा सकता.

  2. kamta prasad

    September 12, 2010 at 5:32 am

    फोन टेप नहीं होता उसकी टैपिंग होती है। माने बीच में सेंध भिड़ाकर कोई तीसरा सुनता है। यशवंत जी खबर प्रकाशित करते वक्‍त प्रूफरीडिंग तो कर लिया करें।

  3. yogesh tripathi yogi

    September 12, 2010 at 6:51 am

    dear ambrish ji
    ap jaise mahan journalisto ki badaulat hi up me journalism jinda hai………………………….
    apko meri shubhkanaye aur bhadhai……………………………………………

  4. rajesh kumar

    September 12, 2010 at 7:59 am

    आप ऐसी कौन सी बात करते हैं जिसको लेकर बिचलित हैं ‘ मेरा भी फोन टेप कर ले सरकार तो क्या होगा ऐसी कोई बात ही नहीं करता हूँ ‘ खुद को सुधारो और मौज करो भाई’ …सरकार दुश्मनी मान रही होती तो अब तक जेल में होते…मायावती की कार्यप्रणाली तो जानते ही हो

  5. Brijesh kumar singh

    September 13, 2010 at 2:34 pm

    Amrish ji mai niymit apaka likhe news aur blog padhta hoo. kuch bhi ho aap ki lekhni mere jaise hajaro logo ko pasand hai. jansatta ka prasar kam hai lekin khabaro me dam hai. kam se kam aap ka news paper logo ko dhokha to nahi deta
    phone tape se darane ki jaroorat nahi hai aj bhi pradesh ka prabudh varg aapke sath hai..

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