गज़ब है. ”अनिल चमड़िया ऐट दी रेट आफ जीमेल डॉट काम” की मेल आईडी से एक मेल भड़ास4मीडिया के पास आया. इस मेल में एक प्रेस रिलीज, एक फोटो और एक डिजिटल हस्ताक्षर अटैच था. प्रेस रिलीज दो फार्मेट में थे. एक वर्ड डाक्यूमेंट फाइल और दूसरा पीडीएफ फाइल में. अनिल चमड़िया की प्यारी-सी तस्वीर और उनका डिजिटल हस्ताक्षर जेपेग (जेपीईजी) फार्मेट में था. किसी को कोई शक-सुबहा होने का मतलब ही नहीं था. मेल भड़ास4मीडिया के पास पहुंचा तो पब्लिश करने से पहले अनिल चमड़िया को औपचारिकतावश फोन कर एक बार कनफर्म कर लेने की कवायद की गई.
हालांकि यह कवायद हम न करते तो भी कोई अपराध न था. पूरी खबर को अनिल चमड़िया के हवाले से पब्लिश कर दिया जाता तो भी कोई गुनाह नहीं था. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर किसी शख्स के नाम की मेल आईडी, उसके डिजिटल हस्ताक्षर, उसकी लैटेस्ट फोटो, उसकी कही गई बातें चली आईं हों तो लगता तो यही है कि उसी शख्स ने भेजा होगा. इसलिए उसे पब्लिश करने में कतई कोई दिक्कत नहीं है. पब्लिश होने के बाद उसकी आपत्ति आती तो उसे एक अलग पोस्ट के रूप में पब्लिश कर खंडन किया जा सकता था. पर अब ऐसा नहीं है. आगे से किसी की भी आई मेल को सच नहीं मान लेना चाहिए. खासकर उन लोगों को जो वेब माध्यमों के जरिए खबरों का धंधा करते हैं. यह बिलकुल गलत और फ्राड भी हो सकता है.
इस तरह की हरकत कोई भी साइबर एक्सपर्ट आपके साथ या मेरे साथ कर सकता है. अनिल को लेकर किए गए इस अपराध का पता तब चला जब भड़ास4मीडिया ने अनिल चमड़िया से सिर्फ इसलिए संपर्क कर लिया कि उन्होंने जो भेजा है, वह वाकई उन्हीं का है ना. अनिल ने सुनते ही तुरंत कहा- ”यह साइबर क्राइम का मामला है. किसी ने मेरे साथ धोखा किया है. आप प्लीज, जो मेल आया है, उसे पुलिस को फारवर्ड कर दें.”
हम पुलिस को यह मेल फारवर्ड करने के साथ-साथ उसे यहां इस मकसद से प्रकाशित कर रहे हैं ताकि वेब यूजर्स, वेब पाठकों को पता चल सके कि कोई शख्स किसी के पीछे पड़ जाए तो वह किस हद तक गिर-उतर सकता है. नीचे जो कुछ दिया जा रहा है वह वही फर्जीवाड़ा है जो अनिल चमड़िया की मेल आईडी के नाम का गलत इस्तेमाल कर किसी शख्स ने फर्जी ई-मेल आईडी क्रियेट कर किया है और उसके साथ मैटर को अटैच कर सेंड किया है.
कृपया नीचे प्रकाशित तथ्य-कापी को अनिल चमड़िया के खिलाफ दुर्भावना रखने वाले किसी शख्स की साजिश मानते हुए पढ़ें ताकि आपको भी पता चल सके कि देश में वेब-ब्लाग की बढ़ती ताकत का दुरुपयोग करने के लिए कुछ लोग किस कदर आमादा हैं और किस नीच हरकत पर उतर आए हैं.
उपरोक्त तस्वीर अनिल चमड़िया की ही है जिसे उनके ”दुश्मनों” ने भेजा है. उपरोक्त फोटो भी इसी मकसद से प्रकाशित किया गया है कि साजिशकर्ताओं के मंसूबों का पता चल सके. फोटो संपादित कर प्रकाशित किया गया है लेकिन जो मैटर नीचे दिया जा रहा है वह संपादित नहीं है.
– यशवंत
मुझे बख़्श दीजिए, आभारी हूं : अनिल चमड़िया
लगभग पिछले एक सप्ताह से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय पूरी मीडिया (खासकर ब्लॉगिंग जगत) के लिए खबरों का केन्द्रबिन्दु बन गया है. इन खबरों की प्रस्तुति को लेकर एक बात बहुत साफतौर पर समझनी होगी. विश्वविद्यालय में मेरी नियुक्ति को लेकर भले ही लोगों के मन में कई तरह की आशंकाएं होंगी, लेकिन यहां मै स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरी नियुक्ति और अब टर्मिनेशन में किसी भी तरह का, किसी भी स्तर पर कोई दबाव नहीं रहा है. चूंकि विश्विद्यालय एक सांगठनिक ईकाई है जिसके कई मानक होते हैं, नियम कानून होते हैं इसलिए व्यवस्था एवं प्रणाली की निष्पक्षता को लेकर किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है.
दरअसल पिछले कुछ महीनों से मैं खुद को एक अजीब सी उलझन के बीच असामान्य एवं असहज महसूस कर रहा था. शुरू से ही मेरी नियुक्ति का मामला निर्विवाद नहीं रहा तथा तमाम तरह के कयाश लगाए जा रहे थे. प्रोफेसर पद की नियुक्ति हेतु आवश्यक न्यूनतम योग्यताओं की बात करें तो मुझे इस बात का एहसास हो रहा है कि मै उस पर खरा नहीं उतरता. अपने टर्मिनेशन से शुरू में मैं बहुत आहत था, दुखी था. स्वभाविक रूप से सबसे पहले तो मैंने मीडिया समुदाय खासकर वेबमीडिया को अपने पक्ष में लामबन्द करने की भरपूर कोशिश की और मेरे तमाम मित्रों ने इस पहल में मेरी मदद भी की. लेकिन आज मैं खुद अपने किए को लेकर बेहद शर्मिंदा हूँ और मुझे अब बड़ा अफसोस हो रहा है. आरोप-प्रत्यारोप का जो सिलसिला मैंने शुरू किया था, उससे मेरी बहुत फजीहत हुई है और मैं आत्मग्लानि महसूस कर रहा हूँ. पूरी घटना पर यदि गौर करें तो कुछ बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं –
1. मैंने अपनी नियुक्ति और टर्मिनेशन के सम्बन्ध में विश्वविद्यालय प्रशासन और ई.सी. के निर्णय पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, वह गलत है. क्योंकि ई.सी. के निर्णय के मूल में मेरी न्यूनतम योग्यताओं का अभाव होना था.
2. मैं अपनी नियुक्ति की मान्यता को लेकर आरम्भ से ही असमन्जस में था. कभी-कभी इच्छा होती थी कि मैं खुद ही इस्तीफा दे दूं. मुझे याद है कि मैं अपने पी.एच-डी शोधार्थियों के कैरियर और भविष्य को लेकर तमाम तरह की आशंकाओं से खुद को घिरा हुआ महसूस कर रहा था. मेरी योग्यता – अयोग्यता का प्रश्न किसी न किसी रुप में मेरे छात्रों से भी जुड़ा हुआ था. यह अपने आप में हास्यासपद है कि एक गैर पी.एच-डी व्यक्ति विश्वविद्यालय में बतौर शोध निर्देशक कार्यरत हो.
3. इस बात के पीछे कोई सच्चाई नहीं है कि विश्वविद्यालय प्रशासन खासकर कुलपति वी.एन.राय से मेरे मतभेद थे. वैसे भी ई.सी. के निर्णय में आपसी मतभेद मायने नहीं रखते. इसके बावजूद मैं अपनी नियुक्ति निरस्त होने के पश्चात भावावेश में इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, जिसके लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूँ.
4. एक्जक्यूटिव काउंसिल के सदस्यगण मेरी नियुक्ति के सम्बंध में अन्तिम निर्णय लेने से पहले सभी पहलुओं पर चर्चा करके ही निर्णय लिए होंगे.
अतः मित्रों! मेरे मुद्दे को और अधिक तूल न दें, क्योंकि मीडिया में चल रहे तमाम चीजों के बीच मैं अपनी गलती को स्वीकार करता हूँ और महसूस कर रहा हूँ कि इसमें मेरी ही फजीहत हो रही है तथा इन सभी घटनाक्रम के पश्चात मैं अपनी और अधिक फजीहत नहीं चाहता. बहरहाल मैं नियतिवादी नहीं हूँ, फिर भी मानने में कोई परहेज नहीं, जो होना था वह हो गया; गलत हुआ या सही हुआ, इस पर बहुत बहस हो चुकी है. बहस से दूसरों को फायदा हुआ या नुकसान हुआ, मुझे नहीं पता. लेकिन मेरा बहुत नुकसान हुआ है. मेरी छवि बिगड़ी है. यह दीगर बात है कि आप सभी मित्रों की ऐसी मंशा कदापि नहीं रही होगी. अतः आप सब से विनम्र अपील है कि मेरे मुद्दे पर चर्चा-परिचर्चा को बंद कर दें, मुझे बख़्श दें.
आपका
अनिल चमड़िया
vijay pratap
February 5, 2010 at 4:10 pm
yashwant ji is mail karne wale ko saja honi chahie.
suman
February 5, 2010 at 8:06 pm
yah sab vibhooti narayan ray hi karava rahe hai. ab is par utar aaye hai aap is link par dekhe vibhooti 4 mah poorv kis tarah se anil chamadiya ke peeche pade the.
http://mgahv.blogspot.com/2010/02/blog-post_04.html
sanjay
February 6, 2010 at 3:18 am
पिछले कुछ दिनों से महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की ख़बर कुछ ब्लॉग-वेबसाइटों पर सुर्खियां बटोरने का काम कर रही हैं। ख़बर पर लोग अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया भी दे रहे है, ब्लॉग के माध्यम से अनिल चमड़िया व उनके साथीगण अपनी भड़ास निकालने की पूरी कोिशश में लग हुए हैं।
उन्होनें तो कुलपति महोदय पर ही इंजाम लगाया कि वो मेरे पीछे पड़े हैं। कहीं आप विश्व सुन्दरी या किसी पार्टी के जाने माने नेता या फिर चोर तो नहीं, जो वीएन राय उनके पीछे पड़े हैं। अनिल चमड़िया के पीछे पड़े रहने के अलावा शायद उनके पास और कोई काम नहीं है, चमड़िया जी को यह अवश्य ज्ञात होगा कि उनको विश्वविद्यालय में कुलपति महोदय ही लेकर आए थे, जब विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में अध्यापकों का अभाव था और उन्होने इस आस से उनकी नियुक्ति भी की थी कि वे छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता के गुण सिखाएंगे, पर हुआ कुछ अलग। चमड़ियाजी अपनी कमेटी बनाते रहे, छात्रों को प्रशासन के खिलाफ भड़काने का काम करते रहे। उनके कुछ छात्र तो इतने अच्छे हैं जो कुलपति, प्रति-कुलपति, विभागाध्यक्ष, िशक्षकगण को गाली देने से भी नहीं चूकते। ये बात सभी के संज्ञान में है, पर कहने वाला कोई नहीं? शायद यही िशक्षा आपने छात्रों को दी है, दे भी रहे हैं कि अपने से बड़ों को गाली दें, उनका अनादर करें। बहुत अच्छा पाठ पढ़ाया है आपने।
अनिल चमड़िया जिस प्रकार का आरोप लगा रहे हैं, यदि उन पर गौर फरमाया जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी होने में जरा-सी देर भी नहीं लगेगी। आप वीएन राय पर आरोप लगा रहे हैं कि स्वजातीय लोगों की बातों में आकर आपकी नियुक्ति को निरस्त किया है। यदि ऐसा ही है तो आप इतने माह इस विश्वविद्यालय में कैसे और किस आधार पर टिके रहे? यदि जातिगत ही मामला है तो विश्वविद्यालय में आपको भी पता होगा कि दलित छात्रों की संख्या कितनी है। जहां तक पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग दोनों से तो ज्यादा है। और तो और कुछ विभाग तो ऐसे भी हैं जहां सामान्य वर्ग का एक भी छात्र नहीं है, तो इसको आप क्या कहेंगे- दलितवादी निर्णय? आप तो यहां तक भी कहते हैं कि यहां पढ़ रहे लड़कों के दबाव में आकर वीसी ने आपकी नियुक्ति की थी, कहीं ऐसा सुना है कि किसी विश्वविद्यालय के छात्रों के दबाव में आकर किसी की नियुक्ति हुई हो। तब तो छात्र यदि चाहेगें कि किसी आठ पास या पांचवी फेल को टीचर बना दिया जाए तो क्या वो टीचर बन जाएगा, चाहे उसने सम्बंधित फील्ड में कांट्रीव्यूशन क्यों न किया हो। विश्वविद्यालय में कर्मचारियों की नियुक्ति उसकी योग्यता के आधार पर वीसी या सम्बंधित प्रािधकारी तो नियुक्त कर सकते हैं, पर किसी प्रोफेसर/रीडर/लैक्चरर को नियुक्ति नहीं कर सकते। जब तक वह टीचर बनने की पूर्ण योग्यता नहीं रखता?
यदि आपको लगाता है कि आपको बिना डिग्री के आधार पर प्रोफेसर बनाये जाने चाहिए तो अपने मित्र और साथीगण जो अभी एम.ए. कर रहे हैं या फिर एम.फिल/पी-एचडी कर रहे हैं, उनको भी सलाह दें कि वे पढ़ाई छोड़ दें, तब भी वे प्रोफेसर बन जाएगें?? मेरा यहां दो बार? लगाने का तात्पर्य केवल इतना है कि सभी लोगों को पढ़ाई छोड़ देनी चाहिए । इसमें मैं भी शामिल हूं, क्योंकि मैंने भी बी.कॉम पास किया है, मुझे भी पी-एचडी नहीं करनी चाहिए क्योंकि पी-एचडी में पूरे-पूरे दो तीन साल के बाद, तब भी संभावना ही है कि टीचर बनूगां या नहीं, पर आप तो बिना डिग्री के पैमाना पूरा कर रहे हैं। रही बात अपनी बसी-बसाई गृहस्थी छोड़कर पराए शहर में आने की, यह तो धन का मोह ही है जब पैसे के खातिर इंसान अपना जिस्म, हत्या, चोरी-डकैती-लूटपाट, यहां तक की अपने मां-बाप को भी बेच देता है, तब आपनी बसी-बसाई घर-गृहस्थी को छोड़कर आना कौन सी बड़ी बात है।
जिस एक्जीक्यूटिव कमेटी (ईसी) की बात आप कहे रहे हैं, उसमें 18 सदस्य हैं और केवल 8 सदस्यों ने वीसी के कहने पर आपको निकाल दिया। यानि आपके कहने का मतलब यह भी है कि ईसी में जितने भी सदस्य हैं वो नासमझ/अज्ञानी हैं। सारा ज्ञान आप में कूट-कूटकर भरा हुआ है। आपका तो यहां तक कहना है कि वीएन राय के कामकाज के तरीके के कारण विश्णु नागर ने ईसी से इस्तीफा दे दिया है, इसका तात्पर्य यह है कि कुलपति महोदय को आप से सीखना पडे़गा कि किस प्रकार काम किया जाता है तब तो वीएन राय जी को प्रोफेसर न बनाकर आपको अपनी जगह कुलपति बनाना चाहिए? रही बात विष्णु नागर जी के इस्तीफे की तो किस कारण से उन्होंने इसी से इस्तीफा दिया। ये तो उन से अच्छा और कोई नहीं बता सकता? विश्वविद्यालय में जिस प्रकार की गतिविधियां इस समय चल रही हैं, यदि प्रशासन ने जल्द ही कोई उचित कदम नहीं उठाए तो विश्वविद्यालय की गरिमा को धूमिल होने से कोई नहीं बचा सकता।
(वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा लिखा गया.)
suman
February 6, 2010 at 4:27 am
ये जो विश्वविद्यालय के सभी छात्रों का ठेका लेकर लिखने वाले अनिल राय अंकित के चेले हैं इनसे पूछना चाहिये कि नाम स्पष्ट लिखे. क्योंकि २४७ छात्रों के इस विश्वविद्यालय में a.s.f. के १०० से अधिक छात्र और बाकी ७० से अधिक अन्य छात्रों ने इस कार्यवाही का विरोध और कुलपति की निंदा की है. कुछ छात्र विश्वविद्यालय में नहीं आते फिर गणित जानते हैं तो प्रतिशत लगा लीजिये और अगर चोर गुरु ने थोड़ी भी इमानदारी सिखायी है (जो कि संभव नहीं है) तो हिन्दी वि.वि के छात्रों का नाम हटवा लीजिये.
Vivek
February 6, 2010 at 4:52 am
I am absolutely shocked and hurt that journalist of the stature and class of Anil Chamriya is facing such a nasty sitution. Not only that he is very committed journalist/writer, he is great human being. In the early 90s, we used to do lot free-lancing and i knew him since then. I know for sure that the hardships would not able to break him. Anil ji is a fighter to the core and emerge ev
en stronger.
Vivek Shukla
sanjay singh
February 6, 2010 at 5:40 am
ye sab sahi nahi hai
sunita
February 6, 2010 at 7:34 am
अनिल चमड़िया न तो कोई बड़े पत्रकार हैं और न ही विद्वान। इधर-उधर से टीप कर हिंदी में फीचर लिखने से ज्यादा कुछ किया नहीं है। इसी के दम पर हो गए बन गए टीपू सुल्तान। कौन सी पत्रकारिता आती है और कितना पढ़ा है जो पढ़ाएंगे।
bhuvan, kolkata
February 6, 2010 at 5:59 pm
ye lime light mein rehne ka anil jee ka naya shagufa hai. unhe to bus prachar chahiye aur kutch nahi.
kishan mishra
February 7, 2010 at 10:59 am
he is intelectual and simple
omdev
February 7, 2010 at 3:45 pm
Anil Ji darne ki bat nahi hai hum aap ke sath hai. aap ke sath ho rahe atyachar ke peche jo koi sajis kar raha hai uase saja milni chaihye. aapka om dev
Manjula
March 2, 2010 at 8:44 am
patrakarita shiksha mein kya kam ghaple hain. Bechare Anil ji.