एक कहानी (9) : साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे : एक दिन चुपचाप प्रकाश ने अभिजीत के सामने प्रस्ताव रखा, मैं तुम्हारे साथ वहां चल सकता हूं लेकिन मुजरा कराना पड़ेगा, फोटो खींचना चाहता हूं। उसके मन में मुजरा देखने सुनने की भी बहुत पुरानी दबी इच्छा थी जो इस समय आसानी से पूरी हो सकती थी। इस इच्छा से भी बड़ी वह गुत्थी थी जिसे खोलने के लिए मड़ुवाडीह जाना शायद जरूरी था। एक शाम रुटीन के फोटो प्रेस में डाउनलोड करने के बाद वह जल्दी निकल गया और मड़ुंवाडीह की उस बस्ती में पहुंचकर उसने पाया कि वहां की बिजली काटी जा चुकी है। बस्ती के दोनों तरफ भरे पानी के उस पार बुलडोजरों की गड़गड़ाहट और छपाक-छपाक मिट्टी फेंकने की आवाजें आ रही थीं।
पहली बार ध्यान से उसने कोठों को देखा, जिन्हें एक खास तरह के भ्रम के कारण कोठे कहा जाता था। एक टूटी फूटी सड़क के किनारे ईंटों के एक मंजिला, कहीं दुमंजिला मकान थे। ज्यादातर के पिछले हिस्से में पलस्तर नहीं था। पतली-पतली गलियों में खिड़कियों से लालटेनों और मोमबत्तियों की रोशनी आ रही थीं। बस्ती के दोनों तरफ बरसात का सड़ता पानी भरा था और चारों ओर हवा में बदबू थी, मच्छर भिनभिना रहे थे। सड़क किनारे की खाली पड़ी दुकानों की चाय की भट्ठियों में और छज्जों की छांव में अलाव जल रहे थे, जिनके गिर्द औरतें और रुखे बालों वाले कुम्हलाए बच्चे बैठे हुए थे। यह दलितों का कोई गांव लग रहा था। जहां उदास रात उतर रही थी।
मुजरे के तुरंता इंतजाम के तहत किसी घर से हारमोनियम, कहीं से ढोलक मंगाई गई। एक झबरे बालों वाला नशेड़ी लगता लड़का एक बैजों ले आया। एक घर के दालान में कई लालटेनें रखी गईं जिसकी छत के कोनों में मकड़ी के जाले थे जिनके आसपास सुस्त छिपकलियां रेंग रही थीं। दीवारों पर मामूली कैलेंडर और फ्रेमों में परिवारों के मेले, ठेले या चलताऊ स्टूडियोज में खिंचवाए फोटो लटक रहे थे। अंदर के दरवाजे पर नॉयलान की साड़ी को फाड़कर बनाया गया, चीकट हो चुका परदा लटक रहा था। थोड़ी देर में कमरा औरतों, बच्चों और दलालों से ठसाठस भर गया, उसे किसी तरह अपना कैमरा गोद में रखकर
ऊकड़ू बैठना पड़ा। परदे की ओट से एक काले रंग की मोटी सी औरत आई जिसके चेहरे पर पुते पाउडर के बावजूद चेचक के दाग झिलमिला रहे थे, बैठकर घुघंरू बांधने लगी। प्रकाश को लगा कि वह घुघंरू नहीं बांध रहीं, कहीं जाने से पहले जूते पहन रही है। उसके पीछे घुघंरू बांधे एक खूबसूरत सी लड़की आई जिसकी आंखे बिल्कुल भावहीन थीं। वह होंठ आगे की तरफ निकालकर बीच में खड़ी हो गई। उसे देख कर प्रकाश को लगा कि उसे कहीं पहले देखा है। वह इतनी दुबली थी कि एनीमिया की मरीज लगती थी। अचानक सुर मिलाने के लिए टूटी भाथी वाले हारमोनियम ने हांफना शुरू किया और दोनों औरतें नाचने लगीं। वे हाथ-पैर ऐसे झटक रही थी जैसे उन पर जमी धूल झाड़ रही हों। दोनों ने भावहीन तरीके से एक चालू फिल्मी गाना गाया। एक ऊंघती बुढ़िया ने जैसे नींद में फरमाइश की, ‘बाबू को पंजाबी सुनाओ, पंजाबी।’
एक क्षण के लिए मोटी औरत ने होंठ फैलाकर प्रकाश की तरफ देखा फिर अपने आंचल को कमर से निकालकर सिर पर पटका बांध लिया। ढोलक की गमक के साथ उचकते हुए उन्होंने गाना शुरू किया, ‘बोले तारा रा रा, बोले तारा रा रा!
साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे, दुनिया के सारे मजे कैश करोगे…’
कई बच्चे भी कूदकर नाचने लगे और धक्का-मुक्की होने लगी। कमरे में धूल उड़ने लगी, लालटेनों के आगे कुहासा सा गया। अब चीख पुकार के बीच सिर्फ उछलती हुई आकृतियों का आभास भर हो रहा था मानो रात के धुंधलके में प्रेत नाच रहे हों। वाकई यह भूखे और क्रुद्ध प्रेतों का ही नाच था जिन्हें घेरकर सड़ते हुए पानी और पुलिस के पहरे में बंद कर दिया गया। धूल के गुबार के काऱण अब फोटो खींच पाना संभव नहीं रह गया था। वह उठकर बाहर निकल आया। धूल उड़ाने की बेकार कोशिश करते हुए अभिजीत ने कहा, ‘यही इनकी जिदंगी है सर।’
अभिजीत को साथ लेकर प्रकाश चला तो सड़क आते ही पुलिस वाले चिल्लाते हुए लपके। इससे पहले कि वह कुछ बोल पाता एक लाठी से मोटर साइकिल की हेडलाइट फूट कर छितरा चुकी थी। अभिजीत ने तेजी से कहा, मुड़ लीजिए, दूसरी तरफ से निकलिए जानबूझकर मार रहे हैं, ये प्रेस बताने पर भी सुनेंगे नहीं।
मुड़ते-मुड़ते एक लाठी अभिजीत की पीठ पर पड़ी वह बिलबिला गया। बस्ती के दूसरे छोर पर मुस्तैद पर पुलिस वाले दूर से ही लाठियां लहराते, गालियां देते हुए बुला रहे थे, वह समझ गया ये निकलने नहीं देंगे। आज की रात यहीं काटनी पड़ेगी। बहुत दिनों के बाद उसे उस रात सचमुच का डर लगा। लग रहा था जैसे पेट में पानी भर गया है और मुंह से बाहर आ जाना चाहता है। थोड़ी देर तक बस्ती के दोनों छोरों से गालियां लहरातीं आती रही, ‘साले, मादरचोद प्रेस के नाम पर रंडीबाजी करने आते हैं।’
मोटरसाइकिल खड़ी कर संयत होने के बाद दुखते हाथ को सेंकने के लिए वह एक अलाव के आगे बैठ गया। अभिजीत वहां पहले ही जैकेट उतारकर अपनी पीठ सेंक रहा था और दो बच्चे, सिपाहियों को गालियां देते हुए, मास्टर साहब की पीठ की मालिश कर रहे थे। दोनों नाचने वालियां यास्मीन और विमला उसे छेड़ रही थी, और कराओ, खुलेआम मुजरा, समुझावन-बुझावन का प्रसाद मिल गया न।
वे दोनों अब प्रकाश को देखकर मुस्करा रही थी। कुछ इस भाव से जैसे अब आटे-दाल का भाव समझ में कुछ समझ में आने लगा होगा पत्रकार जी को। दोनों के चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने से पावडर जगह-जगह बह गया था। उसने यास्मीन से कहा, तुम दोनों नाचती अच्छा हो, खूब नाचती हो। वह जैसे बुरा मान गई, खाली पेट खाक नाचेंगे दीवाली अंधेरे में गई, शादी ब्याह में सट्टा होता था, वह भी बंद हुआ देखिए कितने दिन नुमाइश के लिए नाचते हैं। अलाव से फूस का एक तिनका खींचते हुए यास्मीन ने उलाहना दिया, जिनको खिलाया, पिलाया, बाप-भाई माना जब वही दुश्मन हो जाएं तो कोई क्या गाएगा और क्या नाचेगा।
प्रकाश ने अभिजीत से पूछा इनके कौन बाप-भाई है जो दुश्मन हो गए हैं। वह हंसा, ‘खुद ही देख लीजिए, अब रुक ही गए हैं तो सब समझ में आ जाएगा। उसके कहने पर विमला एक घर से एक छोटा सा फोटो अलबम ले आई। वापसी में उसके पीछे छोटी सी भीड़ चली आ रही थी। उसने फोटो दिखाने शुरू किए, ‘यह देखिए सावित्री की बिटिया का कन्यादान हो रहा है।’ अगल बगल बैठी कई औरतों, बच्चों के चेहरे उस फोटों में थे वे। सभी एक सरपत के मंडप के नीचे खड़े थे। एक आदमी झुका हुआ वर के पैर धो रहा था।
‘ये मायाराम पटेल हैं, जो इस लड़की के बाप हैं। यहीं से डेढ़ साल पहले शादी हुई थी आज यह हम लोगों को भगाने के लिए कचहरी पर धरना देकर बैठा हुआ है।
यह देखिए, असगरी बेगम के लड़के के खतने में सभासद तीरथराज दुबे मुर्गा तोड़ रहे हैं।
बोतलों, गिलासों, जूठी प्लेटों के पीछे दो औरतों को अगल-बगल दबाए तीरथराज दुबे फोटो से बाहर भहराने वाला था।
‘यह देखिए, हम लोगों के छोटे भइया सलमा से राखी बंधवा रहे हैं।’
पान की दुकान चलाने वाले राजेश भारद्वाज के हाथों में इतनी राखियां बंधी थी कि उसकी कलाइयां फूलदान लग रही थीं।
‘यह देखिए प्रधान जी सुहानी के साथ चांद पर जा रहे हैं।’
शिवदासपुर के उपप्रधान राम विलास यादव किसी मेले के स्टूडियो में चमकीली पन्नियों से सजे लकड़ी के चांद तारे पर एक लड़की से गाल सटाए बेवजह मुस्करा रहे थे।
‘यह देखिए… यह देखिए…वे एक के बाद एक मामूली कैमरों से खींचे हुए गैरमामूली फोटो दिखाए जा रही थीं।’
हमारी दारू, हमारा मुर्गा, आंदोलन उनका : जैसे फोटो अलबम में कोई पंप लगा था। हर फ्लैप पलटने के साथ प्रकाश की छाती में हवा भरती जा रही थी। ये सभी तो बदनाम बस्ती को हटाने के लिए आंदोलन चला रहे, कचहरी पर आमरण अनशन पर बैठे नेता थे। बस इनके छपने की देर थी कि उनके पाखंड को बारुद लग जाता और सारा आंदोलन कुछ घंटे में चिथड़े-चिथड़े हो जाता। अपनी उत्तेजना पर काबू पाने के बाद उसने अलबम हाथ में लेते हुए कहा, लेकिन ये लोग तो कह रहे हैं कि उनके बच्चों की शादियां नहीं हो पा रही हैं, बहू-बेटियों का जीना मुश्किल हो गया है।
लगा मधुमक्खियों की छत्ते पर ढेला पड़ गया। अलाव की आग से भी तेज जीभें लपलपाने लगीं, ये असली दल्ले हैं, अपनी बहू बेटियों का जीना खुद इन्होंने मुश्किल कर रखा है। इनके घर में कौन सी ऐसी शादी हुई है, जिसमें हम लोगों ने पचास हजार-लाख रूपया जमा करके न दिया हो और मुफ्त में गाना बजाना न किया हो। हमारे सामने तो आएं, जबान ही नहीं खुलेगी। हम लोग तो राजेश भारद्वाज की बारात में भी गई थीं, उसकी शादी यहीं की महामाया ने कराई है। जिस मकान में वह रहता है वह भी महामाया का ही है। उसके पास रजिस्ट्री के कागज हैं, चाहिए तो अभी ले जाइए। प्रपंची हैं, कुकर्मी हैं सामने पैसा देखकर बदल गए हैं कोढ़ फूटेगा सालों को।
इस कुहराम से अभिजीत हकबका गया। थोड़ी देर तक लाचार भाव से देखने के बाद उसने खड़े होकर पूरी ताकत से चिल्लाकर कहा, हल्ला करने से कोई फायदा नहीं महामाया को बोलने दिया जाए। वह सबको जानती हैं। ज्यादा अच्छी तरह बताएगी। भुनभुनाहट के बाद फिर थोड़ी के लिए खामोशी छा गई।
नेपालिन महामाया के बस्ती में तीन मकान थ। शायद सबसे मालदार और मानिंद वही थी। वह आग को खोदते हुए एक चमकीले शाल में लिपटी चुपचाप बैठी हुई थीं। सबके चुप होने के बाद उसने झुर्रियों में धंसी, काजल पुती, चमकीलीं आखें उठाईं, नशे से लरजती आवाज में वह ठहर-ठहर कर बोलनें लगी, देखिए कोई छठ आठ महीने पहले की बात है ये नेताजी लोग और भी कई शरीफ लोग बस्ती में रोज आते थे। हमारी दारू पीते थे हमारा मुर्गा तोड़ते थे और हमारे ही साथ सोते थे। हम लोग भी इनसे हर तरह का रिश्ता रखते थे। यह बात उनके बाल-बच्चों को भी पता है। लेकिन उनका लालच बढ़ता ही जा रहा था। ये लोग पुलिस के भी बाप निकले, आए दिन इतना पैसा मांगते थ कि देना हमारे बस में नहीं रहा। मास्टर साहब के कहने पर सब औरतों ने पंचायत करके तय किया कि बहुत हो गया। अब पैसा, दारू, मुर्गा बंद। हां, बोल-बात रहेगी, उनके प्रयोजन में पहले की तरह नाच-गाना भी रहेगा लेकिन पैसे की मदद किसी को नहीं की जाएगी। यही नाराजगी की वजह है। वरना, हम लोगों को तो इन्हीं लोगों ने और उनके बाप-दादों ने ही यहां बसाया था। बसाया भी अपने फायदे के लिए। बाजार से तीन गुने रेट पर भाड़ा लिया और पांच गुने रेट पर जमीन और मकान बेचे। अपनी सारी पूंजी लगाकर हम लोगों ने अपने ठीहे खड़े किए, अब रंडिया आंख दिखाएं, उन लोगों से यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है। प्रकाश को बस्ती के भीतर एक नई बस्ती नजर आ रही थी।
महामाया ने ऊपर ताक कर कहा, ‘कागज लाओ… मकान ही नहीं बस्ती के भीतर जितनी दुकानें हैं, वे भी उन्हीं लोगों की हैं। घर-घर में झगड़ा हो रहा है कि उनकी जिद की वजह से पचासो परिवारों की रोजी-रोटी मारी जा रही है। उसने एक-एक दुकानदारों के नाम गिनाने शुरू किए तो उन्हीं के साझीदार, भाई, रिश्तेदार या नौकर-चाकर थे। कोई दुकान छूट जाए तो बच्चे बीच में उचककर याद दिला देते थे। आधे घंटे के भीतर प्रकाश के पास इक्कीस मकानों की रजिस्ट्री के स्टैंप लगे असली कागज जमा हो चुके थे। बीस-बाइस साल पहले वाकई शहर से बाहर की जलभराव वाली जमीन के मनमाने दाम लिए गए थे।
अब अभिजीत ने बोलना शुरू किया ‘असलियत वैसी इकहरी नहीं है, जैसा कि आप लोग सोचते हैं। दरअसल यह आंदोलन ये बुलडोजर वाले चलवा रहे हैं। जलभराव के अगल-बगल के खेत और परती दिल्ली की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने खरीद लिए हैं। यहां के कई बड़े नेता, बिल्डर और माफिया कंपनी के फ्रेंचाइजी हैं। उन सबकी नजर इस बस्ती पर हैं, गांव और पड़ोस के मुहल्लों के चालाक लोग डीआईजी की शह पाकर आंदोलन इसलिए चला रहे हैं कि वेश्याएं अपने मकान औने-पौने में इन्हें बेचकर भाग जाएं फिर ये उनकी प्लाटिंग करके बिल्डरों की मदद से यहां अपार्टमेंट और मार्केटिंग काम्प्लेक्स बनवाएंगे और रातों-रात मालामाल हो जाएंगे। यकीन न हो तो इनमें से जिनके घर हैं, किसी से पूछ लीजिए दलाल और बिचौलिए मकानों की कीमत लगाने लगे हैं। उन्हें लगता है कि धंधा बंद होने के बाद वेश्याएं यहां ज्यादा दिन नहीं टिक पाएंगी। आप गौर से देखिए जो संस्थाएं आजकल डीआईजी का अभिनंदन करने में लगी हैं, उनका कोई न कोई पदाधिकारी कंस्ट्रक्शन कंपनी या फिर बिल्डरों से जुड़ा हुआ है।
प्रकाश के सीने में फिर से हवा भरने लगी। वह तुरंत उड़ जाना चाहता था। उसे तीस साल पहले इस इलाके की जमीनों के असल रेट और वेश्याओं को की गई रजिस्ट्री के रेट का तुलनात्मक व्यौरा, कंस्ट्रक्शन कंपनी के भू-उपयोग और ले-आउट प्लान का खाका, आंदोलन कर रहे नेताओं और डीआईजी की बिल्डरों से सौदेबाजी के सबूत और कुछ पुराने प्रापर्टी डीलरों और रीयल इस्टेट के धंधेबाजों के बयानों का इंतजाम करना था बस! यह कोई बड़ी बात नहीं थी। रजिस्ट्री दफ्तर, विकास प्राधिकरण और कंस्ट्रक्शन कंपनी के मार्केटिंग डिवीजन और पीआरओ से मिलकर ये सारे काम चुटकी बजाते हो सकते थे। एक सनसनीखेज स्टोरी सीरिज उसकी मुट्ठी में थी। उसने अभिजीत से कहा, ‘हमें एक बार फिर निकलने की कोशिश करनी चाहिए।’
‘अब ज्यादा खतरा है, सुबह से पहले निकलने की सोचिए भी मत, इस समय पुलिस वाले ट्रकों को रोककर वसूली कर रहे होंगे, बौखला जाएंगे।, अभिजीत ने कहा।
एक लड़की ने आकर बताया कि आज रात खाने का इंतजाम रोटी गली में है। ज्यादातर लोग खाकर जा चुके हैं, वे लोग भी पहुंचें, नहीं तो खाना खत्म हो जाएगा। प्रकाश हिचकिचाया तो एक अधेड़ औरत ने हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, ‘हम लोगों का कोठी, बंगला और गाड़ियां सब तो आपने देख ही लिया, अब चलकर खाना भी देख लीजिए। बड़े-बड़े लागों का खाना तो रोज ही खाते होंगे, एक दिन हमारा भी खाइए।
एक गली में पेट्रोमेक्स की रोशनी में वेश्याओं की पंगत बैठ रही थी। बच्चों को पहले ही खिला दिया गया था। यह शायद आखिरी पंगत थी। पत्तल पर जब खिचड़ी और अचार आया तो यास्मीन हंसी, पत्रकार जी आजकल हम लोग यही खा रहे हैं। जो कमाया था डेढ़ महीने में उड़ गया। अगर पैसा हो भी तो सामान लाने निकल नहीं सकते। चोरी-छिपे चावल लाकर यही इंतजाम किया गया है।
प्रकाश अचरज को दबाना चाहता था लेकिन मुंह से निकल गया, ‘तवायफें साधुओं की तरह खिचड़ी खा रही हैं और जहां यह बंट रही है, उस जगह का नाम रोटी ही गली है।’
अभिजीत ने सामने की पंगत में खा रही पत्थर जैसे भावहीन चेहरे वाली एक औरत से कहा, ‘ये पत्रकार है, इनको बताओ रोटी वाली गली को किसने बसाया।’
जल्दी-जल्दी चार-पांच कौर खाने के बाद वह बोलने लगी, असली रोटी गली यहां नहीं कानपुर में है। वहां भी एक पागल पुलिस अफसर आई थीं, नाम था उसका ममता विद्यार्थी, उसने धंधा बंद करा दिया और पीटकर सब आदमियों को भगा दिया। आसपास के लोग भी हमें हटाने के लिए धरना प्रदर्शन करने लगे। डेढ़ साल तक हम लोग बैठकर खाते रहे, सोचते थे कि धंधा फिर शुरू होगा लेकिन नहीं हुआ। सबकी हालत बहुत खराब हो गई तो भागना पड़ा। मेरा बच्चा डेढ़ साल का था और बूढ़ी मां थी। सावित्री, जानकी और रेशमा के भी बच्चे छोटे-छोटे थे। हम लोग किसी परिचित के साथ यहां आ गए। बाकी औरतें कहां-कहां गई पता नहीं। हम लोगों का नाम ही रोटी गली वाली पड़ गया है। प्रकाश जान गया, अगर ये यहां से गईं तो पता नहीं कितने नए मड़ुंवाडीह और आबाद होंगे।
खाना खाने के बाद दोनों बाकी रोटी-गली वालियों के घर गए जहां मोमबत्ती की मद्धिम रोशनी में लटकते चीथड़ों के बीच उने बच्चे बेसुध सो रहे थे। प्रकाश ने ऐसे सैकड़ों घर देखे थे जहां गरीबी, भूख और दीनता बच्चों की आंखों में आंसुओं की पतली परत की तरह जम जाती है और वे दुनिया को हमेशा भय के परदे से देखने के आदी हो जाते हैं। यहां उनकी आंखें बंद थीं। सोते बच्चों की तस्वीरें खींचने के बाद वे फिर अलाव के पास वापस आ गए। वहां एक लूली बुढ़िया, वही रोज वाला किस्सा सुना रही थी कि कैसे एक बारात में नाचते हुए उसने बंदूक की नाल पर रखे सौ रुपए के नोट को छुआ तभी बंदूक वाले ने घोड़ा दबा दिया। उसकी जो हथेली अब नहीं है, उसमें दर्द महसूस होता है। बच्चे उसे चुप कराने के लिए शोर मचा रहे थे। ….जारी….
कथा लेखक अनिल से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
mukul yadav
March 12, 2010 at 1:07 am
apni kahani suna rahe ho anil bhai dusare ko mohra bana ke kuch bacha nahi hai kya daru ki bottle me naya nikalo sath pine me aur maja ayega jari rakho
Biswajeet Banerjee
March 12, 2010 at 12:35 am
Anil bahut bhadiya expressions the. Keep it up yaar.
vikram
March 11, 2010 at 7:26 am
bahut din baad koyi kaayde ki kahaani padhne ko mili hai. es kahani mei ek kami khal rahi hai ki media wala hisaa gaayab hokar vesyawo pe jyada kendrit ho ja raha hai. vesyawo ko lekar media mei kya kya chala, media kaise manage hoyi, kis kis ne kis kis tarah se manage kiya… ye sab aana chahiye tha lekin en binduwon ko kewal chhuwa bhar gaya hai. nayapan modern media ki vesyavritti wala hissa hai. vesyaawo ki karun gatha pe to jaane kitni kahaniya aa chuki hain. han, anil ne kayi nayi cheejen pakdi hain jisse lagta hai ki ve jeevan ko bahut gahre utarkar jeete dekhte hain.
best wishes
vikram
Ddun
एक बनारसी
March 11, 2010 at 7:29 am
और कुच नहीं, अनील बनारस के अपने दारूबाजी के दौर में किये जीये गये जीवन अनुभव को फोटोग्राफर पात्र के जरिये बाट रहे है और मन की भडास निकाल रहे हैय़ पर अच्छी है ये भडासय़ बहुत सारी सडाध पर से पर्दा हट रहा हैय़ इनतजार है अगले पीस का..
kamta
March 11, 2010 at 7:07 am
यह कहानी रिपोर्टरी का बाय-प्रोडक्ट जैसी लगती है। वह जगह जहां बच्चों के दुनिया को भय से देखने वाला विवरण है, सोचने का एक नया नुक्ता प्रदान करता है।
मैं कवि-लेखक होता तो ऐसा ही एक वाकया मैंने एम्स में देखा था।
एक सज्ज्न जो यूरोलॉजी में अटेंडेंट का काम कर रहे थे, मरीजों को उनकी पारी
आने पर बुलाते थे, शायद मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, चेहरा आदि-आदि देखकर कि गुजरी जिंदगी
में उन्हें कुष्ठ रोग हुआ था। कुछ यूं बुलाते थे मानो दुनिया की शराफत और कररुण
पर यकीन करना चाह रहे हों और कृतज्ञ हों मानवता के अगली पायदान पर आने का पर
गुजरी जिंदगी की छाया उन्हें डरा भी रही थी।
यह दृश्य मैं कभी नहीं भूलूंगा। अनागरिक व्यवहार, कफन कहानी के पात्र का अमानवीकरण,
अघाये मध्य वर्ग का अमानवीकरण, मानवता पर से विश्वास उठ जाना, सतत आर्थिक असुरक्षा और
स्व को उत्पन्न खतरा आदि- आदि बिंदुओं पर सोचता हूं पर पिरो नहीं बाता वाक्यों में। स्व और इगो में फर्क है, स्व व्यक्तित्व में जो असर्ट करने लायक होता है।
आखिर, में आदि विद्रोही को याद करें मुझ जैसे कमजोर दिल वालों पर रहम करते हुए बहुत अप्रिय प्रसंगों को संकेतित भर कर दें तो बेहतर रहेगा।
dhanish sharma
November 19, 2010 at 3:58 am
mast hai punch line.