एक कहानी (2) : एक हफ्ते बाद सिर मुड़ाए डीआईजी का बयान आया कि यह आत्महत्या नहीं, महज एक दुर्घटना थी। उनकी पत्नी पान मसाले की शौकीन थीं। बिजली जाने के बाद अंधेरे में उन्होंने पान मसाला के धोखे में, घर में पड़ा सल्फास खा लिया था। साथ ही खबर आई कि लवली त्रिपाठी के पिता ने डीआईजी पर अपनी बेटी को प्रताड़ित करने व आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा किया है और अदालत जाने वाले हैं। क्राइम रिपोर्टर यह खबर फीडकर रहा था और सी. अंतरात्मा पान का चौघड़ा थामे पीछे खड़े थे।
तभी एक चपरासी कंप्यूटर की स्क्रीन देखते हुए खुद से कहने लगा, ‘आप कौन सा मसाला खाती थीं मेमसाहेब। सल्फास की गोली उंगली जितनी मोटी होती है और पान मसाला एकदम चूरा। गजब हैं आप जो सूई के छेद से ऊंट पार करवा रही हैं।’ अचानक डीआईजी के ससुर ने सारी परिस्थितियों पर गौर करने और सदमे पर काबू पाने के बाद अपनी एफआईआर वापस ले ली। उन्होंने भी अपनी बेटी की मौत को अंधेरे में हुई दुर्घटना मान लिया। पुलिस ने इस मामले की फाइल बंद कर दी और डीआईजी लंबी छुट्टी पर चले गए। जानते बूझते मक्खी निगलनी पड़ी थी।
रुटीन की संपादकीय बैठकों में कभी नहीं आने वाले प्रधान संपादक आए, उनसे नीचे के स्थानीय, असोसिएट और समाचार संपादकों ने रिपोर्टरों को झाड़ा कि वे एकदम काहिल, कामचोर और धंधेबाज हैं। उन्हें अखबार की कम, अफसरों से अपने संबंधों की चिंता ज्यादा है, इसीलिए वे अपने ढंग से तथ्य और सबूत खोजकर लाने के बजाय पुलिस की कहानी सुनकर संतुष्ट हो गए। रिपोर्टरों में संपादकों की झाड़ सुनने और बहाने गढ़ने की अदभुत क्षमता होती है। ये बहाने अखबार की गति से उपजते हैं। उन्हें पता होता है कि बहानों समेत यहां सब कुछ अगले दिन पुराना, बासी, व्यर्थ हो जाता है। उन्होंने एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया। हर दिन नई घटनाएं और नई खबरें थी, कौन एक लवली त्रिपाठी को याद रखता।
एक महीने बाद, डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी छुट्टी से लौटे तो बिल्कुल बदल गए थे। वे दफ्तर में आरती के इलेक्ट्रानिक दीपों से सज्जित मैहर देवी की तस्वीर के आगे माथे पर त्रिपुंड लगाकर बैठने लगे। शहर के कई मठों, मंदिरों में जाना बढ़ गया और साधु-संत रोज दफ्तर और घर में फेरा डालने लगे। उनका एकरस, खाकी कार्यालय अचानक रंगीन और सुगंधित हो गया। उन्होंने अपनी पत्नी की स्मृति में शहर के मुख्य चौक गोदौलिया पर एक प्याऊ लगवाया। शहर में उसकी स्मृति में बेसहारा महिलाओं और बच्चों के लिए दो-तीन संस्थाएं बन चुकी थीं जिनके संरक्षक धर्मरक्षक रमाशंकर त्रिपाठी थे। धर्मरक्षक की उपाधि उन्हें इन संस्थाओं के प्रमुखों ने दी थी। छुट्टी के दौरान उन्होंने पुलिस की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए सामान्य ज्ञान की एक किताब लिखी थी। इस किताब में कंप्यूटर का पहला उपयोग यह बताया गया था कि यह उपकरण सफल दांपत्य में सहायक है क्योंकि यह विवाह के पूर्व कुंडली एवं नक्षत्रों के मिलाने और कालगणना के काम आता है। इस किताब को सभी थानेदार अपने-अपने हलकों में बुक स्टालों पर कोटा बांधकर बिकवा रहे थे।
सारा पसीना नौकरी चलाने वाली रुटीन खबरों के लिए बहाया जाता है, बड़ी खबरें अपने आप चलकर अखबारों, चैनलों तक आती हैं। वे परस्पर विरोधी स्वार्थो के टकराहट से चिनगारियों की तरह उड़ती, भटकती रहती हैं और एक दिन बुझ जाती हैं। एक शाम एक बीमा कंपनी का एक मरियल सा क्लर्क तथ्यों और सबूतों के साथ खबर लाया कि पुलिस ने भले ही मामला दाखिल दफ्तर कर दिया हो लेकिन बीमा कंपनी इसे दुर्घटना नहीं मानती। लवली त्रिपाठी की मौत के कारणों की जांच एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी से कराई जा रही है। डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी ने ससुर के हलफिया बयान के साथ अपनी पत्नी के बीमे की बीस लाख की रकम के लिए दावा किया था जिसके तुरंत बाद यह जांच शुरू हुई थी।
प्रकाश को यह बूढ़ा कभी-कभार एक सस्ते बार में मिला करता था और दो पैग के बाद पीछे पड़ जाता था कि वह एक पॉलिसी ले ले ताकि उसके बीमा एजेंट बेटे का टॉरगेट पूरा हो सके। प्रकाश उससे हमेशा यही कहता था कि फोकट की दारू पीने वाले उस जैसे पत्रकारों को इतने पैसे नहीं मिलते कि वे बीमा का प्रीमियम भर सके लेकिन कई साल बाद भी बूढ़े ने अपनी रट नहीं छोड़ी।
पुष्टि की गई तो खबर बिल्कुल सही थी। लेकिन बीमा कंपनी का कोई अधिकारी इस खबर के साथ अपना नाम देने को तैयार नहीं था। वह मरियल क्लर्क ऐसी खबर लाया था जिसे वाकई स्कूप कहते हैं, दो दिन की पड़ताल और स्पेड वर्क के बाद उसे छापना तय किया गया। लेकिन जिस दिन खबर कंपोज हुई, पता नहीं कैसे लीक होकर डीआईजी तक जा पहुंची फिर मोबाइल फोनों की तरंगें खबर की गर्दन पर लिपटने लगीं। डीआईजी ने राजधानी में एक मंत्री और फिर पुलिस महानिदेशक को कातर भाव से सैल्यूट बजाया। इन तीनों ने अखबार के दो डाइरेक्टरों को मुंबई फोन लगाया। डाइरेक्टरों ने आपस में बात की फिर प्रधान संपादक को तलब किया। प्रधान ने स्थानीय संपादक को फोन किया। स्थानीय ने असिस्टेंट को, असिस्टेंट ने न्यूज एडीटर को, न्यूज एडीटर ने ब्यूरो चीफ को, ब्यूरो चीफ ने सिटी चीफ को खबर रोकने के लिए आदेश दिया। इतनी सीढ़ियों से लुढ़कती यह आशंका आई कि यह खबर आपसी स्पर्धा में किसी बीमा कंपनी ने इस बीमा कंपनी को बदनाम करने के लिए प्लांट कराई है। इसलिए इसे कुछ दिन तक रोककर स्वतंत्र ढंग से जांच-पड़ताल की जाए। प्रकाश के पास मणिकर्णिका घाट की जमीन पर बैठकर सिर मुड़ाते डीआईजी की फोटो भी थी, जिसका कैप्शन ‘सिर मुंड़ाते ही ओले पड़े’ उसने पहले से ही तय कर रखा था लेकिन ओले अब फोटो से बाहर छिटक कर कहीं और पड़ रहे थे।
उसी शाम बुर्के में चेहरा ढके एक अधेड़ औरत लगातार पान चबाते एक किशोर के साथ तीन घंटे से दफ्तर के बाहर खड़ी थी। वह एक ही रट लगाए थी कि उसे अखबार की फैक्ट्री के मालिक से मिलना है। दरबान ने उसे कई बार समझाया कि यह फैक्ट्री नहीं है और यहां मालिक नहीं, संपादक बैठते हैं, वह चाहे तो उनसे जाकर मिल सकती है। औरत जिरह करने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है कि अखबार का कोई मालिक ही न हो और उसे तो उन्हीं से मिलना है। आते-जाते कई रिपोर्टरों ने उससे पूछा कि उसकी समस्या क्या है लेकिन वह कुछ बताने को तैयार नहीं हुई। रट लगाए रही कि उसे मालिक से मिलना है। काम भी कुछ नहीं है, बस सलाम करके लौट जाएगी। सी. अंतरात्मा की नजर उस पर पड़ी तो देखते ही भड़क गए, ‘तुम यहां कैसे, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई प्रेस में आने की, भागो चलो यहां से। हद है अब यहां भी…।’ घबराई हुई वह औरत लड़के का हाथ पकड़कर तेजी से निकल गई। वह सी. अंतरात्मा के मोहल्ले की औरत थी और वे उसे अच्छी तरह पहचानते थे।
प्रकाश इस तरह हाथ में आयी कामयाबी के हताशा में बदल जाने के खेल का आदी थी। वह उस नजरबंद को पहचानने लगा था जिसके चलते बीसियों स्कैंडल, घोटाले और रहस्य ऐसे थे जो सबको पता थे लेकिन नजरअंदाज किये जाते थे। उन पर दिमाग लगाने को अबोध, लौंडपन समझा जाता था लेकिन आज उसे समझ नहीं आ रहा था कि छवि को कैसे समझाएगा। सॉरी, मैं तुम्हारी दोस्त के लिए कुछ नहीं कर पाया के जवाब में आंसुओं से रूंधी आवाज में छवि ने कहा, ये अखबार और चैनल मदारी की तरह खुद को सच का ठेकेदार क्यों बताते हैं। साफ कह क्यों नहीं देते कि उन्हें डीआईजी जैसे ही लोग चलाते हैं।
लंबी चुप्पी के बीच ‘सत्य का मदारी’ को कई बार उसने थूक के साथ गुटका। वह सोच रहा था कि क्या सचमुच उसके फैशन फोटोग्राफर बनने का समय आ गया है कम से कम तब उसे उन भ्रमों से तो छुटकारा मिल जाएगा जो उसे कभी-कभार सच साबित हो कर उसका रास्ता रोक लेते हैं। अचानक छवि ने कहा कि चलो तुमने मरने के बाद ही सही, लवली से चिढ़ना तो बंद कर दिया लेकिन फोटोग्राफी के बहाने मॉडलो के बीच रासलीला के मंसूबे मत पालो। प्रकाश चौंक गया कि किस सटीक तरीके से वह उसके सोचने के ढंग को ट्रैक करने लगी है। …जारी…
Comments on “आप कौन सा मसाला खाती थीं मेमसाहेब”
[b][/b] aapkoun se anil ho. hist anil ho ya pust anil ho. pehchana mai koun hon. chaliye’ aisi rachanaye dil ki geheraio ko chhu jati hai our ise padkar mai banaras ko yad karti houn.
badhai ho bhai sahab aapne gajab ka kaam kiya agar isi tarah se likte rhe to jald hi iska ek achha parinam samne aayega
भाई साब्
बहुत बहुत बधाई..,
आगॆ भी इन्तजार रहॆगा,
yeh part bhi lazwaab hai. bhiya………
esi traha dalaloo ko chadhi utar kar unhe sachchi ka eahsas kroo.
Gajab ka lekh hai, Aaj ki is badlati media ki tasveer aapne ujagar karne ki koshish ki hai dhanyawad
Thanks Anil Ji
Jo Ap Itne Ache Lekh Likhate Hain Kasam Se Maza a Gaya
Age Bhi Likhiyega Meri Duya Apke Sath Hai.[/b][/b][/i]
badhai ho bhai sahab aapne gajab ka kaam kiya agar isi tarah se likte rhe to jald hi iska ek achha parinam samne aayega
Ravinder Chouhan Dainik Bhaskar Yamuna Nagar Haryana