कई लोगों के विचार पढ़े। सभी लोगों ने अपने-अपने हिसाब से हिंदुस्तान के नये ग्रुप एडिटर शशिशेखर का आकलन किया है। सभी धन्यवाद के पात्र हैं। चूंकि, मैं शशि के काफी पुराने और करीबी मित्रों में से एक हूं, इसलिए कह सकता हूं कि गलत किसी ने भी नहीं लिखा- जैसा कि पत्रकारिता को दरोगा स्टाइल में चलाना, संपादक या फिर रिपोर्टर की लानत मलानत करना, बिना देखे-सुने आसपास कौन है आदि। शशि उस समय यह भूल जाते हैं कि जिस व्यक्ति को फटकारा जा रहा है, उसकी मानसिकता पर कैसा असर पड़ रहा है, वह या उसका कोई घरवाला गंभीर रूप से बीमार है, वह डाक्टर से चेकअप करा रहा है, पूजा पर बैठा है, मंदिर में दर्शन करने जा रहा है या कि वह इस समय कहां-किन परिस्थितियों-किस मानसिकता-किस जगह है।
परिवार के बीच है या अकेले है या फिर गाड़ी चला रहा है या पैदल है, उसकी उम्र कितनी है और पत्रकारिता का उसका कितना अनुभव है। सबसे बड़ी बात कि उसके परिवारवालों पर इसका क्या असर पड़ रहा है। शशि का करीबी मित्र होने के बावजूद उनके साथ काम करते हुए मैं ऐसी स्थिति से रोज-ब-रोज दो चार होता रहा। यह भी सुना कि कई बार अचानक शब्दबाण बरसना शुरू होते ही लोग एक्सीडेंट कर बैठे और गंभीर रूप से चोटिल हो गए। ऐसा मेरे साथ भी हुआ और मैं बोल्डर लदे डम्पर और 24 चक्के वाले ट्राला के नीचे जाते-जाते बचा। हालांकि, शशि यह कर्म सिर्फ और सिर्फ समाचारों को लेकर ही करते थे, उनकी प्राथमिकता में सिर्फ और सिर्फ अखबार की तरक्की ही होती थी, उसके पीछे कोई और भावना या व्यक्ति विशेष के प्रति दुर्भावना कतई नहीं होती थी। फिर भी कभी-कभी मन करता था कि नौकरी छोड़-छाड़ कर भाग जाएं, कहां आकर फंस गए? ऐसा सोचकर कइयों ने उनसे किनारा किया होगा। अब तक मैं यह सोचता था कि शायद ऐसा सिर्फ मेरे ही साथ होता है अब जबकि मुझे भड़ास4मीडिया के माध्यम से पता चला कि सभी के साथ ऐसा होता था तो दिल को सुकून मिला। आप मेरी मानसिक स्थिति समझ सकते हैं- रांड़ खुश जब सब रांड़। बहरहाल अब जबकि शशि अमर उजाला के संपादक नहीं हैं, अमर उजाला के लोग नयी परिस्थिति से खुश होंगे, स्वयं को काफी हल्का महसूस कर रहे होंगे, खबरों, पेज, लेआउट पर काम करने का संकल्प भयविहीन वातावरण में चौगुना हो गया होगा। दूसरी ओर हिंदुस्तान में उनके पूर्व-वर्तमान और संभावित रूप को सोच-सोचकर भारी हलाकान और दहशत की स्थिति होगी।
पर, यह शशि का एक रूप है। उनका दूसरा रूप बड़ा मानवीय है। फटकार खाने वाले से तो नहीं पर दूसरे अन्य लोगों से अपने इस रूक्ष्ण व्यवहार के बारे में अफसोस भी जाहिर करते थे। संकटग्रस्त काबिल लोगों को नौकरी देने में एक सेकेंड नहीं लगाया। यह दीगर बात है कि कुछ लोगों को विपरीत परिस्थतियों में दुखद रूप में जाना भी पड़ा होगा। आगे बढ़ने की तमन्ना और दूरदृष्टि शशि में शुरू से मैंने देखी। मुझे याद है बनारस ‘आज’ की एक घटना। उस समय बनारस से सिर्फ ‘आज’ ही छपता था, दूसरा कोई अखबार नहीं था। बनारस से उस समय ‘जागरण’ का प्रकाशन शुरू होने ही वाला था। पदमपति शर्मा उन दिनों खेल पृष्ठ के वजनी प्रभारी हुआ करते थे। जागरण में उनके सहित अन्यान्य संपादकीय सहकर्मियों के जाने की सुगबुगाहट के चलते उन्हें बेइज्जत करने के लिए जनरल डेस्क (उस समय अनुवाद टेबुल कहा जाता था) पर बैठा दिया गया था। अचानक ही शशि को खेल पृष्ठ देखने को कह दिया गया। उन्हें आए कुछ ही दिन हुए थे और अनुभव भी बेहद कम था। पदमपति शर्मा की स्टाइल क्रिकेट पर लंबी रिपोर्ट्स लिखने की थी। कह सकते हैं लगभग आधा-पौन पेज। उनके हटते ही खेल पेज में शून्यता की शिकायत आने लगी। शशि ने बिल्कुल कोरा होते हुए भी पेज को ऐसा संभाला जैसे लंबे समय से काम कर रहे हों। उन्होंने टीवी या रेडियो सुनकर जैसा कि पदमपति करते थे, परंपरा को खत्म कर मूल खबर काफी छोटी करनी शुरू की और खेल के हाईलाईट्स को ज्यादा तवज्जो देनी शुरू की, जैसा आज होता है। सिटी रिपोर्टिंग के दौरान पूरे तथ्य समायोजित कर समाचार या विज्ञप्ति इतनी छोटी बना देते कि कहना पड़ता था- शशि इसे थोड़ा बढ़ाओ और नाम-वाम डालो।
आज जबकि 1200-1400 कैरेक्टर या बाइट पर पहले पेज की लीड सिमट आई है, विज्ञप्ति का जमाना लद गया है तो उनकी 25-27 साल पहले की दूरदृष्टि को सलाम करने का दिल करता है। शशि बनारस स्कूल आज जर्नलिज्म के काबिल संपादकों की श्रेणी में शुमार हो चुके हैं। विद्या भास्कर, लक्ष्मी शंकर व्यास, चंद्रकुमार, भैयाजी बनारसी, शिवशंकर शुल्क अटल (स्वर्गीय विनोद शुक्ल के पिताजी) जैसे संपादकों की श्रेणी लिए अजय उपाध्याय के बाद हिंदुस्तान जैसे बड़े अखबार का संपादकीय सिरमौर बनने का रास्ता वाकई आसान तो नहीं ही रहा होगा।
इसके साथ ही उनसे खार खाने वालों की संख्या में भी नित इजाफा हो ही रहा होगा। वैसे मित्र होने के नाते उम्मीद है कि शशि हिंदुस्तान में अपनी खास स्टाइल और एरोगेंसी को बदलेंगे और नयी परिस्थिति का निर्माण कर नये लोगों को जोड़ेंगे और ब्रांड के साथ खुद भी तरक्की के रास्ते पर बढ़ेंगे। कान से नहीं, आंख से देखने में महारत हासिल करेंगे। मैंने काशी पत्रकार संघ के नये अध्यक्ष योगेश कुमार गुप्त पप्पू से आग्रह भी किया कि बनारस स्कूल आफ जर्नलिज्म के नये अवतार शशिशेखर का संघ की ओर से सम्मान और अभिनंदन होना चाहिए। शशि भले ही बराक ओबामा के हाथों कभी सम्मानित हों पर, काशी में अपने लोगों द्वारा सम्मानित होना किसी नोबेल सम्मान से कम नहीं होगा।
लेखक आशीष बागची हिंदी मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों में से एक हैं। उनसे संपर्क करने के लिए bagchiashish@rediff.com का सहारा ले सकते हैं।