एक बड़े हिन्दी अखबार के दफ्तर में एक पत्रकार साथी ने अपने संपादक से एक बहुत ही सामान्य शब्द का हिज्जे पूछा. उस पत्रकार ने अपने संपादक जी से पूछा- सर जी, किताब के ‘क’ में छोटी मात्रा होगी या बड़ी?
संपादक ने मुस्कराते हुए बताया- छोटी मात्रा होगी बेवकूफ.
पूछने वाला पत्रकार संपादक को कृतार्थ भाव से देखते हुए धन्यवाद बोलकर अपनी सीट पर वापस लौट आया.
इस माजरे का गवाह बना पत्रकार का दोस्त जो आफिस में उससे मिलने आया था. उस दोस्त ने पत्रकार से पूछा- “यार, किताब शब्द में भी कंफ्यूजन है? क्या हो गया है तुम्हें?”
पत्रकार हंसने लगा. उसने पहले तो कहा- आल इज वेल.
तत्पश्चात, पत्रकार न इस कथा के गूढ़ अर्थों का खुलासा करना शुरू किया- ”बॉस को खुश रखने के लिए यह सब करना पड़ता है दोस्त. इससे बॉस को लगता है कि उसे जानकार माना जाता है. इससे बास को लगता है कि वह वाकई संपादक होने लायक था. इससे बास को लगता है कि उसके अधीन काम करने वाले उससे कम बुद्धि के हैं इसलिए वह उन्हें हटाने की साजिश नहीं रचता. जिस दिन किसी के बारे में बास को लग जाता है कि वह तेज दौड़ रहा है या वह उससे विद्वान है तो बास उसकी खाट खड़ी करने के लिए ताक में लग जाते हैं.”
मित्र ने कहा- अरे यार, फिर भी, पूछा भी तो इतना आसान शब्द?
पत्रकार ने सांस छोड़ने के बाद लंबी सांस लेते हुए बोला- ”भारी शब्द तो उसे बिलकुल ही नहीं आते दोस्त. जैसे, ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ पूछ दूंगा तो मामला उल्टा हो जाएगा. वह अपनी खोपड़िया पकड़ लेगा. कुछ देर में वह मान लेगा कि मैं उसे चिढ़ाने के लिए आया हूं. उसे मूर्ख साबित करने आया हूं. इस प्रकार वह मन ही मन मुझसे नाराज होकर मेरा तबादला झुमरीतलैया की तरफ करा देगा.”
दोस्त की जिज्ञासाएं शांत होने का नाम नहीं ले रहीं थीं- ”पर यार, किताब शब्द पर छोटी मात्रा होगी या बड़ी, यह तो संपादक के अलावा भी बाकी लोग बता सकते थे. पर सभी लोग चुप रहे, जबकि कइयों से तुमने पूछा भी. ऐसा क्यों? जरा इस रहस्य पर भी रोशनी फेंकें.”
पत्रकार ने आंखें मूंदकर पूरे मर्म को विस्तार से समझाया- “सब मेरे साथ हैं. सभी चाहते हैं कि संपादक को लगे कि स्टाफ उन्हें जानकार मानता है. सबको नौकरी बचानी है. इसीलिए सबमें यह मूक सहमति है कि हर रोज कोई न कोई शख्स किसी हल्के-फुल्के शब्द में मतिभ्रम का नाटक करेगा और उसका हल आसपास वालों से पूछेगा. आसपास वाले अपने को सीमित ज्ञान वाला पत्रकार प्रदर्शित करते हुए महाविद्वान संपादक की ओर जाने का इशारा करेंगे. संपादक से वही सवाल पूछा जाएगा. संपादक गर्व से सही जवाब दे देगा. उसके बाद सारे अधीनस्थ पत्रकार संपादक की ओर इस नजर से देखेंगे कि जैसे उनसे बड़ा विद्वान संपादक अब तक देखा ही न हो.”
मेहमान मित्र यह सुनकर अवाक रह गया. उसे लगने लगा कि गिरोह लेकर एक अखबार से दूसरे में जाने और फिर तमाम शूटरों को विभिन्न नाकों पर फिट करने के फेर में लगे संपादकों के कारण अखबार में आतंक का यह आलम है.
Hemant Tyagi Journalist
March 6, 2010 at 4:37 am
isey kahte hai gadho ka panjeeree khaana.RAAMJI KI BHAINS MALLAI KHA RAHI HAI.
Krishna Mohan Jha
February 26, 2010 at 12:40 am
भैया सब जगह यही आलम है.अख़बार हो या के न्यूज चैनेल .
Balram Shrivas
February 26, 2010 at 5:25 am
ek dam sach or satik
herry
February 26, 2010 at 6:35 am
shrimanji…jab allah meharvan to gadha pahalwan…yahan allah maalik hai.jiski najar sirf maal par rahati.aese log unhen ullu banane ki kla jante hai.isliye kuchh samay maje kar lete hai.pol khul jane par fir nai jugad me lag jate hai.yahi in bicharo ka jeevan hai yahi inki niyati hai……..Herry.Bhopal
prabhat
February 26, 2010 at 6:43 am
ha,ha,haaaaaa ! bahut sahee likha re dost…. it is harsh truth.
shame-shame
wellwisher
February 26, 2010 at 7:00 am
mai haste haste pagal ho gaya. thank u. i will also try this formula
avinash jha
February 26, 2010 at 11:55 am
exxxxxilent….maja aa gaya.
anoop srivastava
February 27, 2010 at 3:44 am
sir maza aa gaya, kuch aur maharathiyon par comment karen
bhopali
February 27, 2010 at 4:50 am
maja aa gaya aaj mujhe bhi aage badane ka formula mil gaya.
Dr. H.R Tripathi
February 28, 2010 at 11:16 am
THIS IS BEST OF ALL THE 5 ITEMS PUBLISHED SO FAR UNDER THIS HEADING.ALTHOUGH IT IS NOT A JOKE [chutkula], IT IS AN EXCELLENT SATIRE BASED ON TRUTH.—-H.R.T.
dilip
April 3, 2010 at 2:58 pm
MAN GAYE JI, BILKUL SAHI BAAT HAI, AGAR BOSS KO LAGA KI MERE NICHE WALE JAYADA JANTA HAI, PAHLE USKO NIBTATA HIA,ISLIYE TO KAHETA HAI——-AIDA BANKAR PEDA KHAIO BOSS KE SAMNE PAGLA BAN JAIO