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चीफ रिपोर्टर के पद पर कई जोड़ी नजरें थीं

नौनिहाल शर्माभाग 21 : मेरठ में जागरण के पहले छह महीने जमकर काम करने और अखबार को जमाने के रहे थे। लेकिन उसके बाद स्टाफ बढ़ा। अखबार का दायरा और रुतबा बढ़ा। इसके साथ ही बढ़े तनाव और मतभेद भी। काम का श्रेय लेने, दूसरों को डाउन करने और अपना पौवा फिट करने के दंद-फंद उभरे। भगवतजी सख्त प्रशासक थे। सबको काम में झोंके रखते थे। किसी को फालतू बात करने के लिए एंटरटेन नहीं करते थे। जो कह दिया, कह दिया। फिर उस पर कोई बहस नहीं। मंगलजी में सख्ती नहीं थी। उनका मिजाज अफसरी वाला भी नहीं था।

नौनिहाल शर्मा

नौनिहाल शर्माभाग 21 : मेरठ में जागरण के पहले छह महीने जमकर काम करने और अखबार को जमाने के रहे थे। लेकिन उसके बाद स्टाफ बढ़ा। अखबार का दायरा और रुतबा बढ़ा। इसके साथ ही बढ़े तनाव और मतभेद भी। काम का श्रेय लेने, दूसरों को डाउन करने और अपना पौवा फिट करने के दंद-फंद उभरे। भगवतजी सख्त प्रशासक थे। सबको काम में झोंके रखते थे। किसी को फालतू बात करने के लिए एंटरटेन नहीं करते थे। जो कह दिया, कह दिया। फिर उस पर कोई बहस नहीं। मंगलजी में सख्ती नहीं थी। उनका मिजाज अफसरी वाला भी नहीं था।

देखा जाये, तो वे भोले-भंडारी थे। इसलिए कभी-कभी एक कमजोरी का शिकार भी हो जाते थे। अगर कोई किसी की बुराई कर दे तथा फिर एक-दो और लोग उसी बात को दोहरा दें, तो मंगलजी उस बात पर सहज ही भरोसा कर लेते थे। अगर उनमें प्रशासनिक सख्ती होती और वे बिना सच्चाई जाने यों ही झूठी बातों पर भरोसा न करते। तो वे दिल के बादशाह आदमी थे।

मंगलजी का पूरा व्यक्तित्व ही एक सीधे-सादे से आदमी का था। अक्सर शर्ट-पैंट पहनते थे। कभी तो कुर्ता-पायजामा पहनकर ही दफ्तर आ जाते। चप्पल घसीटकर चलते थे। उनके पास एक पुराना स्कूटर था। हमेशा तिरछा करके ही स्टार्ट होता था। मंगलजी के मुंह में हमेशा पान होता। जेब में भी कई बीड़े रखे रहते। गाल पान से फूले रहते। जब कोई कुछ पूछता, तो एक-दो बार में उन्हें सुनाई ही नहीं पड़ता। या फिर वे ऐसा दिखावा करते। जब उन्हें किसी से कुछ कहना होता या किसी की बात का जवाब देना होता, तो वे ऊपर को मुंह करते। पान के पीक को मुंह में एडजस्ट करके बोलने की कोशिश करते। फिर भी नहीं बोला जाता, तो उठकर टॉयलेट में जाते। पीक थूककर आते। फिर बोलते, ‘मने क्या कहना चाहते हो? दोबारा बोलो तो जरा।’

उनका ‘मने’ बहुत महशूर था। बिना ‘मने’ के मंगलजी से किसी संवाद की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। वे चुपचाप न्यूज डेस्क पर आकर बैठ जाते। चीफ सब की जिम्मेदारी पलाश दादा, नन्नू भाई या राकेशजी की होती। वे ही न्यूज एजेंसियों की खबरें छांटते। हर डेस्क की खबरें उस डेस्क के नाम वाली ट्रे में रखते जाते। जब टेलीप्रिंटरों की खबरों का ढेर बढ़ जाता, तो मंगलजी भी छंटाई में लग जाते। वे हर काम करने को तैयार रहते। उन्हें संपादकीय प्रभारी होने का कोई घमंड नहीं था। जरा भी एटिट्यूड नहीं। बस कभी-कभी यह क्रम टूटता। ऐसा होता ‘आचमन’ के बाद। मंगलजी शुरू में मेरठ में अकेले ही थे। उनका परिवार बाद में आया। उन्होंने भी खाने का इंतजाम साकेत में एलआईसी के पास के एक ढाबे में कर लिया था। कई बार उन्हें वहीं ‘आचमन’ करते देखा गया था। खाना नहीं होता, तो वे ब्रेड के साथ भी ‘आचमन’ कर लेते थे। रासायनिक प्रभाव उन पर जल्दी नहीं होता था। कभी हो जाता, तो वे दफ्तर नहीं आते। लेकिन एक बार ‘परम अवस्था’ में दफ्तर आ गये। स्कूटर खड़ा किया। इधर-उधर देख ही रहे थे कि सामने विश्वेश्वर नजर आ गया।

‘मने यहां क्या कर रहे हो? खबरें सब बना दीं?’

‘वो जरा चाय पीकर आया हूं। दो खबरें अभी लिखनी हैं।’

‘आप काम बीच में छोड़कर चाय पीने क्यों गये?’

‘चाय का तलब लग रहा था।’

‘तलब लग रहा था, तो काम बीच में छोड़ देंगे?’

‘छोड़े नहीं ना हैं। आये तो हैं पूरा करने।’

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‘नहीं यह अनुशासनहीनता है। बर्दाश्त नहीं की जायेगी।’

अब तक विश्वेश्वर का धीरज जवाब दे चुका था। वह मंगलजी को पकड़कर स्कूटर तक ले गया। उनके हाथ से चाबी ली। स्कूटर स्टार्ट किया। मंगलजी के हाथ में दिया। बोला, ‘आप अभी इस पर बैठ जाइये और घर जाइये। आपसे कल बात होगी।’

मंगलजी सचमुच चले गये। अगले दिन हम सबको लग रहा था कि आज विश्वेश्वर पर जमकर डांट पड़ेगी। लेकिन मंगलजी ने कुछ नहीं कहा। शायद उन्हें कुछ याद ही नहीं रहा।

यह किस्सा नौनिहाल को सुनाया गया, तो वे विश्वेश्वर से बोले, ‘तुम तो बड़े खिलाड़ी निकले। मंगलजी को दफ्तर से वापस भेज दिया और डांट से भी बच गये।’

ऐसी घटनाएं कभी-कभी होती थीं, लेकिन जब भी होतीं उनकी चर्चा महीनों तक रहती। बीच में लोग बोर होने लगते। फिर शुरू होती गॉसिप। असल में ज्यादातर तो ऐसा टाइम पास करने के लिए किया जाता। पर कभी-कभी मामला गंभीर हो जाता। जब तक गंभीरता का पता चलता, तब तक कई लोग उस गॉसिप में शामिल हो चुके होते। फिर धीरेन्द्र मोहन के डर से बात वहीं छोड़ दी जाती। दरअसल सबको सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि मंगलजी के आलावा धीरेन्द्र बाबू किसी को एंटरटरटेन नहीं करते थे। इस वजह से किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी उनके सामने किसी की शिकायत लेकर जाने की। यह स्थिति मंगलजी के लिए बहुत सुविधाजनक थी। वे सीधे-सादे और भोले-भाले भी बने रहते, उनके लिए कोई चुनौती भी खड़ी नहीं होती।

लोग सबसे ज्यादा अभय गुप्ता के पीछे पड़े रहते। कुंतल वर्मा के जाने के बाद चीफ रिपोर्टर के पद पर कई जोड़ी नजरें थीं। गुप्ताजी की हालांकि संपादकीय विभाग में कोई लॉबी नहीं थी, पर वे थे मजबूत आदमी। इसलिए न्यूज डेस्क के कई लोग लोकल डेस्क के उनके नेतृत्व पर सवाल उठाते। रतीश झा खुद चीफ रिपोर्टर बनना चाहते थे। उन्हें और कुछ खामी तो मिलती नहीं, वे महीने में तीन-चार बार दबी जुबान यह जरूर कहते कि उन्हें तो अमुक खबर में कोई रैकेट लग रहा है। अगर कोई ध्यान से उनकी बात सुन लेता, तो वे उसका भी नाम लेकर कहते, ‘देखिये, इन्हें भी यह बात पता है।’

वह बेचारा सफाई देते परेशान हो जाता कि मुझे तो दादा ने ही बताया था। दादा को भी पता था कि ऐसा करके कुछ होना-जाना नहीं है। फिर भी वे लगे रहते।

गुप्ताजी किसी की परवाह नहीं करते थे। बात उन तक भी पहुंचती। वे कोई गुस्सा या दिलचस्पी नहीं दिखाते। चेहरे पर हाथ फेरते हुए बस इतना कहते कि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो जैसा करना चाहे, करता रहे।

नौनिहाल की राय में गुप्ताजी को कोई हिला नहीं सकता। हालांकि उनका संघ का बैकग्राउंड था, पर खबरें लिखते और लिखवाते समय वे सच्चे पत्रकार बन जाते थे। कभी किसी का पक्ष नहीं लेते थे। हर पार्टी में, हर समुदाय में उनके सोर्स थे। उन्हें हर तरह की और हर तरफ की खबरें मिलती थीं। जागरण की एक अच्छा अखबार निकालने की नीति कारगर थी। तब तक समाज और राजनीति में आज जैसा ध्रुवीकरण नहीं हुआ था। राजनीति में सांप्रदायिकता और अपराधीकरण इतने नहीं उभरे थे। नैतिकता बची थी। कम से कम नजर तो आती ही थी। ऐसे माहौल में पत्रकारिता काफी जवाबदेह थी। जन समस्याएं उठाने से गुरेज नहीं करती थी।

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वो जागरण के उठान का दौर था। उसके नये-नये संस्करण आ रहे थे। प्रसार क्षेत्र बढ़ रहा था। अगर आज जागरण दुनिया भर में सबसे ज्यादा रीडरशिप वाला अखबार है, तो यह असल में उसी दौर की मेहनत का फल है। नरेन्द्र मोहन जानते थे कि हर वर्ग के पाठकों को साथ लिए बिना आगे बढऩा नामुमकिन है। इसलिए उन्होंने संपादकीय विभाग को जनता के मुद्दे उठाने की भुवेंद्र त्यागीपूरी छूट दी थी। यही वजह है कि मेरठ जागरण में मंगलजी जैसे कांग्रेसी, पलाश विश्वास जैसे मार्क्सवादी, अभय गुप्ता जैसे संघी और कुछ छद्म समाजवादी, नारीवादी व बहुजनवादी सहजता से एक साथ काम करते थे। उनमें वैचारिक भिन्नता थी, लेकिन खबरों के मामले में वे लगभग एकमत होते थे। जागरण ही नहीं, हिन्दी पत्रकारिता के परवान चढऩे का दौर था वो। सचमुच यादगार और दिल से लगाकर रखने वाला दौर।

लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected]  के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. O.P. PAL

    June 5, 2010 at 3:45 pm

    भुवेंद्र जी. आपने स्मरण अच्छे लिखे हैं. कुछ छान मुझे भी यद् हैं. मै भी जागरण में मुज़फ्फरनगर का १९८८ १९९८ तक इंचार्ज रहा हूँ, अंतिम दिनों में अभय गुप्त जी व् सरवन शर्मा को भी भेजा गया. आपने जो जिक्र किया वास्तव में पुरानी यद् ताज़ा कर रहा है.

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