भाग 18 : एक दिन नौनिहाल को एडवेंचर सूझा। उस दिन वे खासे अच्छे मूड में थे।
‘बोर हो रहा हूं यार। कहीं घूम आया जाये।’
‘चलो। कहां जाना है?’
‘भोले की झाल पर चलते हैं।’
‘ठीक है गुरू। कब चला जाये?’
‘कल ही।’
‘कितने बजे?’
‘सुबह निकलेंगे 5 बजे।’
‘5 बजे? इतनी जल्दी?’
हां, क्योंकि बस के चक्कर में नहीं पडऩा है। साइकिलों से चलेंगे।’
‘सोच लो गुरू। लौटकर दफ्तर भी आना होगा।’
‘तो क्या हुआ? ढाई घंटे जाने के, ढाई घंटे आने के। तीन घंटे भी वहां रुके, तो दोपहर एक बजे तक वापस आ जायेंगे। थोड़ा आराम करके दफ्तर भी सही समय पर पहुंच जायेंगे।’
मैं इसलिए तुरंत तैयार हो गया, क्योंकि अभी तक का मेरा अनुभव कहता था कि इस आउटिंग में कुछ जबरदस्त चर्चा हो सकती है। इसीलिए मैंने बिना कुछ सोचे हां कर दी। दफ्तर जाने से पहले की दिनचर्या को भी भुला दिया।
अगली सुबह पौने पांच बजे मैं बेगमपुल पहुंच गया। कुछ पल बाद नौनिहाल भी आये। पूरी तरह पिकनिक की तैयारी के साथ। बैठने के लिए चादर, पुराने अखबार, बिस्कुट, नमकीन… और थर्मस में चाय। मुझे तो ये सब ध्यान ही नहीं रहा था। हमने साइकिलों को दौड़ाना शुरू कर दिया। भोले की झाल गंग नहर पर एक सुरम्य स्थान है। उन दिनों भी वह एक पिकनिक स्पॉट जैसा हुआ करता था। लेकिन आज की तरह कारें-वारें नहीं आया करती थीं। हमारी तरह ज्यादातर लोग साइकिलों, या बहुत हुआ तो स्कूटर, बाइक, ट्रैक्टर से वहां पहुंचते। नहर में नहाते, खाते-पीते, मौज-मस्ती करते और लौट जाते।
मेरठ से करीब 20 किलोमीटर दूर है ये जगह। हम ढाई घंटे में वहां पहुंच गये। सबसे पहले स्नान किया गया। फिर एक पेड़ के नीचे अड्डा जमाया। तब शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला।
‘गुरू, आज एक सवाल पूछने का बहुत मन कर रहा है। इजाजत हो, तो पूछूं?’
‘मेरी जिंदगी तो खुली किताब है। मैं कभी कुछ नहीं छिपाता। जो तेरे मन में हो, पूछ ले।’
‘तुम्हें कभी इस बात का दर्द नहीं सालता…’
‘किस बात का?’
‘…कि तुम बोल और सुन नहीं सकते?’
‘इसमें दर्द की क्या बात?’
‘कभी लगता नहीं कि अगर तुम सुन सकते, बोल सकते…?’
‘तो क्या हो जाता?’
‘यह नहीं लगता कि अगर तुम्हारी बोलने और सुनने की शक्ति होती, तो तुम कुछ और ही होते।’
‘क्या होता?’
‘मेरा मतलब है कि ज्यादा बड़े पत्रकार होते।’
‘क्यों?’
‘तब तुम सब कुछ सुन और बोल सकते थे।’
‘इससे क्या हो जाता?’
‘मेरी बात को गंभीरता से तो लो। मैं सचमुच जानना चाहता हूं।’
‘तो क्या मैं कुछ छिपा रहा हूं?’
‘बता भी नहीं रहे।’
‘नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं तो मजाक कर रहा था।’
‘तो अब सीरियस हुआ जाये?’
‘दरअसल मैं जीवन में प्रारब्ध को मानता हूं। इसलिए कभी दुखी नहीं होता, क्योंकि मेरा मानना है कि जो हुआ वही होना था। इसे बदला नहीं जा सकता था।’
‘यह तो यथार्थ से मुंह मोडऩे वाली बात हुई।’
‘वो क्यों?’
‘जो भी हमारे सामने है, उस पर अगर हम लॉजिक के अनुसार बात ना करें तो इसी को यथार्थ से मुंह मोडऩा कहते हैं।’
‘पर मैं तो हकीकत को मानता हूं। फिर मुंह मोडऩे की बात कहां से आ गयी?’
‘जो कुछ भी हमारे जीवन में घटता है, उसे देखते भी हम हैं, भोगते भी हम हैं और उससे सुखी-दुखी भी हम ही होते हैं। इसलिए असली बात अपने हालात को जानने और हर हाल में खुश रहने की है। और मैं यही करता हूं।’
‘ये बात तो सही है। पर भाग्यवाद बीच में नहीं आना चाहिए। भाग्यवादी व्यक्ति कायर होता है।’
‘वो कैसे?’
‘क्योंकि वो सब कुछ भाग्य पर छोड़ देता है। उसकी कोशिश घट जाती है। कोशिश घटने पर जीवन में मनचाही सफलता नहीं मिल सकती। इसीलिए भाग्य के बजाय कर्म पर ध्यान देना चाहिए।’
‘मैं तो भाग्य को भी मानता हूं और कर्म को भी।’
‘लेकिन ये दोनों एक साथ नहीं माने जा सकते।’
‘मैं तो मानता हूं।’
‘क्या दिल से?’
‘बिना दिल के और आधे दिल के मैं कोई काम नहीं करता।’
‘चलो, ठीक है। फिर तो तुम्हारे मन में ये भी जरूर आता होगा कि तुम्हारी ये स्थिति पूर्व कर्मों का फल है।’
मैं जरा ज्यादा ही खुल गया था क्योंकि नौनिहाल से काफी नजदीकी होते हुए भी उनसे इतना खुलने का मौका मुझे पहली बार ही मिला था। हालांकि पूर्व कर्मों के फल की बात कहकर मैं कुछ सकपका जरूर गया था।
‘मुझे पता था कि ये बात तू मुझसे एक दिन जरूर पूछेगा। और तू ही पूछ भी सकता है, क्योंकि और किसी को मैंने अपने इतना नजदीक नहीं आने दिया।’
‘ऐसी बात पूछने का मैंने कसूर जरूर किया है, पर अब पूछ ही लिया तो जवाब भी दे दो।’
‘ये ठीक है कि मैं पुनर्जन्म को मानता हूं, भाग्यवाद और कर्मवाद को भी मानता हूं। मगर पूर्व कर्मों के फल को नहीं मानता।’
‘ये भी तो भाग्यवाद का ही विस्तार है…’
‘हां है। पर मेरा इतना मानना है कि आपके कर्म भी इसी जीवन में होते हैं और फल भी इसी जीवन में मिलता है।’
‘ये तो विरोधाभासी बात हुई। अगर सभी कर्मों के फल भी इसी जीवन में मिल जायें, तो फिर पुनर्जन्म हो ही क्यों।’
‘जो कर्म इस जीवन में करने रह गये, उन्हें करने के लिए।’
मैंने धर्म और दर्शन का अपनी समझ से गंभीर अध्ययन किया था। लेकिन नौनिहाल का यह सिद्धांत मैंने कहीं नहीं पढ़ा था। इसलिए मुझे लगा कि कहीं वे फिर मजाक पर तो नहीं उतर आये।
‘क्या गुरू, फिर मजाक करने लगे?’
‘बिल्कुल नहीं। मेरा तो यही मानना है कि एक जीवन में जो कर्म अधूरे रह जायें, उन्हें करने के लिए ही पुनर्जन्म होता है। और फिर उनका फल उसी दूसरे जन्म में मिल जाता है। और ये सिलसिला तब तक चलता रहता है, जब तक कि अपने हिस्से के सारे कर्म पूरे न हो जायें।’
‘ठीक है। मैं एक धृष्टता भरा सवाल करता हूं। माफी पहले ही मांग लेता हूं। क्या तुमने इसी जन्म में कोई ऐसा कर्म किया, जो तुम्हारी बोलने और सुनने की शक्ति चली गयी?’
‘इसमें माफी की बात कहां से आयी? ये तो स्वाभाविक सवाल है।’
‘इसका जवाब?’
‘समझ से मैंने कभी किसी का बुरा ना तो किया, ना ही सोचा। इसलिए जहां तक मुझे पता है, अपनी इस हालत के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं।’
‘तो क्या कोई और भी जिम्मेदार हो सकता है?’
‘हो सकता है।’
‘और तुम्हें पता नहीं?’
‘हां। मुझे लगता है कि मेरे किसी परिजन ने कभी जरूर कोई ऐसा कर्म किया होगा, जिसके दंडस्वरूप मेरी ऐसी हालत हुई।’
‘और तुम्हें पता नहीं?’
‘हां। हो सकता है कि उसने ऐसा कुछ मेरे जन्म से पहले या मेरे अबोधपने में किया हो और अपराधबोध के कारण मुझे न बताया हो।’
‘तुम्हें लगता है कि ऐसा न हुआ होता तो अच्छा रहता।’
‘इसे कोई टाल ही नहीं सकता था। ये तो होना ही था।’
इतनी गंभीर बातें मैंने नौनिहाल से पहली बार की थीं। इस बारे में उनकी अपनी मौलिक सोच थी। और वे उस पर अडिग थे, अटल थे।
इस बातचीत के बीच हमने नाश्ता-पानी किया। फिर साइकिलों से मेरठ की ओर चल पड़े। रास्ते में एक खेत से गन्ने तोड़कर चूसे। नौनिहाल की गन्ने खाने की स्पीड बहुत तेज थी। उनका दावा था कि इसमें उन्हें कोई नहीं हरा सकता। उस दिन मैं भी शर्त हार गया। जितनी देर में मैंने तीन गन्ने चूसे, उतनी देर में नौनिहाल पांच गन्ने चूस चुके थे।
हम दोपहर बाद ढाई बजे के करीब मेरठ पहुंचे। घर होकर जागरण के दफ्तर पहुंचने के लिए।
लेकिन उस दिन मैंने एक और ही नौनिहाल को देखा था…
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.