भाग 19 : साल 1984 में लास एंजेलिस ओलंपिक खेल हुए। ये तब तक के सबसे बड़े और भव्य ओलंपिक खेल थे। मैं इनके कवरेज के लिए कई महीने से तैयारी कर रहा था। रेकॉड्र्स और खिलाडिय़ों व टीमों की खूब जानकारी जुटायी थी। भगवत जी ने ओलंपिक के दौरान खेल के लिए दो पेज दे दिये थे। जागरण के कानपुर संस्करण से प्रेमनाथ वाजपेयी मेरठ भेजे गये थे ओलंपिक कवरेज के लिए, क्योंकि मैं खेल डेस्क पर अकेला ही था।
उन दिनों जागरण में हर पत्रकार को अपना रोज किया गया काम एक रजिस्टर में भरना पड़ता था। सबको 12 इंच लम्बे और 4 इंच चौड़े रजिस्टर दिये गये थे। रोज दिन और तारीख लिखकर उसके नीचे क्रम संख्या, खबर का शीर्षक और स्टिक (खबर की लम्बाई की माप। एक स्टिक -एक कॉलम की चौड़ाई और दो इंच की लम्बाई) उस चार्ट में लिखने होते थे। तब जागरण, मेरठ में स्टाफ काफी कम था। हरेक को कम से कम चार कॉलम, यानी आधा पेज मैटर रोज तैयार करना पड़ता था। ओलंपिक के दौरान मैंने रोज 16 कॉलम मैटर किया था। सबके रजिस्टर देखकर भगवतजी साइन करते थे। मेरे पास वो रजिस्टर एक विरासत के रूप में आज भी है।
खैर!
तो हुआ ये कि ओलंपिक में मेरा काम काफी बढ़ गया। दिन के तीन बजे से रात के तीन बजे तक। वैसे भगवतजी ने मुझे साढ़े नौ बजे के बजाय 11 बजे तक पेज बनाने को कह दिया था। पर नौनिहाल ने मुझसे कहा- दिल्ली के अखबारों की डेडलाइन रात 9 बजे होती है। अमेरिका से टाइम के अंतर को देखते हुए वे मेरठ आने वाले संस्करण में कभी ओलंपिक के ताजे समाचार नहीं छाप सकेंगे। हमेशा पिछले दिन के समाचार ही छापेंगे। अगर तू रात को एक-दो बजे तक दफ्तर में रुक सके, तो ताजा समाचार ले सकेगा।
मुझे उनकी यह सलाह सोने पर सुहागे जैसी लगी। मैंने भगवतजी को नौनिहाल का यह सुझाव बताया, तो वे उछल पड़े।
‘तुम ऐसा कर सकते हो क्या?’
‘जी सर, इससे अखबार का बहुत नाम हो जायेगा।’
‘ठीक है। मैं मोहन बाबू (धीरेन्द्र मोहन) को भी बता देता हूं। इसका तुम्हें फायदा भी होगा।’
‘सर, मैं सच में किसी फायदे के लिए यह नहीं कर रहा हूं। यह करने में मुझे भी मजा आयेगा।’
‘ओके।’
तो पूरे ओलंपिक के दौरान मैं तीन बजे दफ्तर पहुंच जाता। मेरी मां जबरदस्ती टिफिन बॉक्स दे देतीं। दो दिन बाद ही उस टिफिन में चार-पांच लोगों का खाना आने लगा, क्योंकि वहां सब साथ-साथ खाना खाते थे। साढ़े नौ बजे मैं खेल पेज छोड़ देता। दस बजे तक पहला पेज लगभग तैयार हो जाता। फिर पहले पेज वाले सब लोग खाना खाने जाते। एलआईसी के सामने एक ढाबा था। वहां चारपाई पर बैठकर खाना खाया जाता। मैं तो टिफिन में कई लोगों के लायक खाना लाता था। पर कई लोग ढाबे से ही खाना लेते। उनका वहां महीने का हिसाब था। सलाद और रायता मैं भी लेता। खाना खाकर हम 11 बजे तक दफ्तर लौटते। पहले पेज वाले अपना पेज फाइनल करते। पेज एक 12 बजे तक तैयार हो जाता। उसके बाद सब चले जाते। मैं रात दो बजे तक की खबरें लेकर पेज बनाता। कई नये समाचार होते, जो अगले दिन किसी अखबार में नहीं होते। इससे काम करने का संतोष तो होता ही, ताजा खबरें केवल जागरण में देखकर हम सभी को गर्व होता।
15 दिन तक मैं डबल शिफ्ट काम करता रहा। रात तीन बजे दफ्तर से निकलता। साकेत से तोपचीवाड़ा तक साइकिल से आने में 20 मिनट लगते थे। पर उस वक्त कुत्ते बहुत तंग करते। कभी मैं स्टेडियम के सामने से मेरठ कॉलेज होते हुए जाता, तो कभी ईस्टर्न कचहरी रोड से एनएएस कॉलेज के सामने से निकलता। पर कुत्ते हर सड़क पर मिलते और दूर तक पीछा करते। कई दिन उनसे जूझने के बाद मैंने नौनिहाल को यह समस्या बतायी। वे बोले, कल से मैं भी रुक जाऊंगा। फिर हम दोनों साथ चलेंगे। रुक तो आज से ही जाता, पर बीवी को नहीं पता, बेचारी परेशान होगी।
अगले दिन नौनिहाल भी रुक गये। उनके रुकने का मुझे यह फायदा हुआ कि उनकी सलाह से पेज का लेआउट भी अच्छा हो गया। रात को तीन बजे हम दफ्तर से निकले, तो नौनिहाल को माल रोड पर सैर करने की सूझी।
‘इतनी रात को?’
‘अभी तो मजा आयेगा। जरा सोच, खाली माल रोड, चमचमाती हुई … और उस पर शहजादों की तरह घूमते हम।’
‘तो चलो।’
और हमने साइकिलें माल रोड की ओर बढ़ा दीं।
सचमुच, रात के साढ़े तीन बजे सुनसान माल रोड पर साइकिल चलाने में जो मजा उस समय आया, वैसा आज तक किसी ड्राइव में नहीं आया।
हमें माल रोड का चक्कर लगाते हुए आधा घंटा हुआ था, कि पीछे से सीटी बजने की आवाज आयी। हम पलटे। सामने मिलिट्री पुलिस का लंबा-चौड़ा जवान खड़ा था।
‘क्या कर रहे हो?’
‘घूम रहे हैं’, मैंने किसी तरह कहा।
‘ये कोई गार्डन है क्या?’
‘हम जागरण में काम करते हैं। पेज छोड़कर निकले तो गुरू का माल रोड घूमने का मन हो आया। इसलिए आ गये…’
‘अच्छा, प्रेस वाले हो? पर ऑफिस से सीधे घर जाओ। ये रात को घूमने की जगह नहीं है।’
इस वार्तालाप को नौनिहाल कुछ समझ रहे थे। वे अडऩे को हुए, तो मैंने उन्हें इशारे से बरजते हुए वापस चलने को कहा। वहां से हम रोडवेज बस अड्डे आये। सुबह के साढ़े चार बज रहे थे। वहां हमें चाय मिल गयी। चाय पीकर हम पांच बजे घर पहुंचे। पहले मैंने नौनिहाल को उनके घर छोड़ा। फिर अपने घर गया। तब तक मेरी मां भी जाग गयी थीं। उन्होंने कुछ खाने को पूछा। मैंने चाय की फरमाइश की। एक और चाय पीकर मैं साढ़े पांच बजे सोया।
ओलंपिक के दौरान कानपुर से प्रेमनाथ वाजपेयी आये थे। लेकिन मुझे सारा काम करते देखकर वे अपनी मोटरसाइकिल पर मेरठ में घूमते रहते। शाम को थोड़ी देर के लिए दफ्तर आते। मेरी बनायी हुई कुछ खबरें देखते, उनमें से कुछ पर नये हैडिंग लगाते और चले जाते। एक दिन मैं पेज पर पांच फोटो लगा रहा था। काम बहुत था। मैंने उनसे फोटो के कैप्शन लिखने का अनुरोध किया। इस पर वे भड़क गये।
‘अपनी औकात में रहो। तुम कल के छोकरे मुझे काम दोगे?’
‘नहीं वाजपेयीजी, मैं भला ऐसी गुस्ताखी कैसे कर सकता हूं? आप नहीं बनाना चाहते, तो कोई बात नहीं। मैं ही बना लूंगा।’
‘और फिर कल को मेरी शिकायत करोगे कि मैं काम नहीं करता?’
‘मैं कोई शिकायत नहीं करूंगा।’
यह वार्तालाप भगवतजी ने भी सुना और हमें अपनी टेबल पर बुला लिया। दोनों से पूरी बात सुनकर उन्होंने वाजपेयीजी को डांटते हुए कहा कि आप कानपुर लौट जाइये।
‘पर भगवरतजी, आप मेरी बात तो सुनिये….’
‘नहीं। मुझे कोई बात नहीं सुननी। प्लीज किसी दूसरे के काम का क्रेडिट मत लीजिये।’
मैं संकोच से गड़ा जा रहा था। मुझे लगा, कहीं वाजपेयीजी ये ना समझ लें कि मैंने उनकी शिकायत की है। ये तो मुझे बाद में पता चला कि भगवतजी को वह सब पहले ही नौनिहाल ने बता दिया था। इसलिए उन्हें मामले की पृष्ठभूमि पता थी।
खैर! लास एंजेलिस ओलंपिक मेरे लिए बहुत अच्छा रहा। खेल पेज पर की गयी मेहनत से खुश होकर भगवतजी ने मुझे पहले मौके पर ही प्रमोट करके प्रशिक्षु उपसंपादक से उपसंपादक बनाने का वादा किया। और जब कुछ महीने बाद प्रमोशन हुए, तो उस लिस्ट में मेरा नाम भी था। मैं साढ़े अठारह साल की उम्र में उपसंपादक बन गया! ये मई, 1985 की बात है।
और कहने की जरूरत नहीं कि इसका जश्न मैंने अपने गुरू नौनिहाल के साथ बेगमपुल पर मारवाड़ी भोजनालय में डिनर करते हुए मनाया।
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
Ishan Awasthi
May 22, 2010 at 12:33 pm
भुवेंद्र जी, आपके वाकए से मैं सौ फीसदी मतैक्य रखता हूं। मेरा पत्रकारिता प्रशिक्षण भी जून 1992 में दैनिक जागरण, कानपुर से शुरू हुआ था। कुछ दिनों प्रेमनाथजी के मातहत कार्य करने का मौका भी मिला। मनोज राजन त्रिपाठी भी साथ में होते थे। वाजपेयी जी की जो वारदात आपने प्रस्तुत की है, उससे मिलती-जुलती वारदात का सामना मैं भी कर चुका हूं। हालांकि प्रेमनाथजी तब भी गलत ही साबित हुए थे।
– ईशान अवस्थी
Deepak kumar vats
May 23, 2010 at 8:11 am
Good news
kundan sahoo
May 23, 2010 at 5:29 pm
bahut sukhad anubhav raha hai aapka , kabhi khatte ber nahi mile chakhne ?