देश के सबसे बडे हिंदी अखबार दैनिक जागरण के एक सीनियर पत्रकार के जूते ने कई सवाल खड़े किए हैं। 1984 में दिल्ली में सिख दंगों को समाज का कोई वर्ग किसी भी रूप में आज तक सही नहीं ठहराता है। इन दंगों में अनेक औरतों के सुहाग उजड़ गए और बहुत सी गोदें सूनी हो गईं। उस समय जो कुछ भी घटा वह बहुत ही खौफनाक और शर्मनाक था। उससे भी शर्मनाक है कि 25 साल बाद भी इन दंगों को भड़काने में जिनकी भूमिका थी, देश की सबसे बडी जांच एजेंसी उनका नाम नहीं तय कर पाई है।
इन दंगों में अनेक लोग मारे गए, यह तो एक शाश्वत सत्य है लेकिन उन्हें किसने और किसके कहने पर मारा, यह सवाल आज भी मुंह बाए खड़ा है। यह सवाल न सिर्फ सिख समाज बल्कि मेरे जैसे लोगों के दिमाग को भी मथ रहा है। इन दंगों के 25 साल बाद भी सीबीआई खतावारों के खिलाफ एक भी सबूत नहीं ला पाई। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि कुछ कतिपय कारणों ने सीबीआई को सबूत ढूंढने ही नहीं दिए। इन कतिपय कारणों को हर शख्स बिना बताए समझ सकता है। सीबीआई की आज जो छवि है, या सही शब्दों में कहें कि जो औकात है, वह पूरे देश के सामने है।
दिल्ली के इन दंगों के लिए कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार सिख समाज के प्रश्नों के दायरे में हैं। सिख समाज के टाइटलर और सज्जन कुमार के प्रति प्रश्न सही हैं या गलत, यह एक बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन दिल्ली के सिख विरोधी दंगों को लेकर जो नेता पूरी तरह आरोपों के घेरे में हों उन्हें कांग्रेस द्वारा न सिर्फ चुनाव लड़वाना बल्कि सीबीआई द्वारा ऐन चुनाव से पहले क्लीन चिट दिलवाना सिख समाज को उद्वेलित कर रहा है। ऐसा स्वाभाविक भी है।
पत्रकार जरनैल सिंह भी इस उद्वेलन में रहे होंगे, यह भी स्वाभाविक है। एक सीनियर पत्रकार अपने आक्रोश को देश के गृहमंत्री की पत्रकार वार्ता में उन पर जूता फेंककर व्यक्त करे, इसको किसी भी रूप से सही नहीं ठहराया जा सकता। देश की सबसे बडी जांच एजेंसी राजनीतिक दबाव में काम करती है। यह माना जा सकता है। यह एजेंसी गृह मंत्रालय के अधीन काम करती है, यह भी सही है। सीबीआई सत्ताधारी पार्टी के हितों को साधने के काम में आती है, यह भी सही हो सकता है। लेकिन गृह मंत्री पर जूता फेंककर जरनैल क्या सिद्ध करना चाहते थे? यह सिर्फ वही जानते हैं लेकिन इसका निहितार्थ कोई भी समझदार व्यक्ति लगा सकता है। चिदंबरम पर जूता फेंककर न तो सीबीआई की कार्यशैली बदल जाएगी और न ही टाइटलर और सज्जन कुमार पर किसी भी तरह के आरोप सिद्ध हो जाएंगे। जरनैल का कृत्य किसी भावनात्मक उन्माद का परिणाम नहीं दिखाई दे रहा है। उनके रवैए से साफ है कि वह सोची समझी रणनीति बनाकर पत्रकार वार्ता में गए थे। पत्रकार वार्ता में सवाल पूछने के लिए वह शुरू से ही हाथ उठाए बैठे थे। अपनी बारी आने पर उन्होंने पीसी से सवाल पूछना नहीं बल्कि वाद-विवाद शुरू कर दिया। गृह मंत्री ने बहुत ही शालीनता से उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन उन्होंने ‘आई प्रोटेस्ट’ कहते हुए उन पर जूता उछाल दिया। यहां यह देखना भी दिलचस्प है कि जो जूता उन्होंने उछाला, उसके तस्में खुले हुए थे। ये तस्में उन्होंने आवेश में आने के बाद नहीं खोले थे, बल्कि उन्हें जरनैल पहले से ही खोले बैठे थे। इसी से अंदाजा लगा जा सकता है कि पत्रकार वार्ता में शामिल जरनैल की पहले से मंशा क्या थी।
यही नहीं, इस कृत्य के तुरंत बाद पत्रकार महोदय का यह कहना, ‘हो सकता है मेरा तरीका गलत हो लेकिन इश्यू सही है’, भी बहुत कुछ साफ कर देता है। जूता फेंककर जरनैल इस मामले को देश की सबसे बड़ी सुर्खी बनाना चाहते थे, जिसमें वह कामयाब रहे। इस मामले के आगाज और अंजाम से भी वह पूरी तरह वाकिफ थे। घटना के तुरंत बाद एसजीपीसी और दमदमी टकसाल का उनके साथ खड़े होना भी यही दर्शाता है कि जरनैल ने जो किया, वह सोच समझकर किया। मेरा दावा है कि जरनैल के आगामी कदम भी उन्हें इस मामले में बेपर्दा करेंगे। सवाल यह है कि जरनैल का जूता क्या सीबीआई की कार्यशैली को बदल देगा? क्या इस जूते से जगदीश टाइटलर या सज्जन कुमार को किसी तरह की सजा मिल गई? या इस जूते से गृह मंत्री का कद कम हो गया? जरनैल के मन में जो भी सवाल या उद्वेलन हैं, क्या उनमें से किसी का भी जवाब इस जूते से मिल पाया है? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस घटना ने न सिर्फ लोकतंत्र को, बल्कि पूरे पत्रकार जगत को शर्मसार किया है। मेरी समझ से किसी भी पत्रकार को जरनैल के इस कृत्य को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जायज ठहराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
लोकतंत्र में किसी भी मुद्दे पर प्रोटेस्ट करने के उचित तरीके और मंच हैं। जननैल ने जो किया वह तो शर्मनाक है ही। उससे भी शर्मनाक यह है कि अब इस प्रकरण पर राजनीतिक दलों ने भी चुनावी रोटियां सेंकनी शुरू कर दी हैं। लेकिन राजनीतिक दलों से शर्म की अपेक्षा करना भी तो बेमानी है।