कहानी का साजन तो उस पार था : माफ़ करिए डियर अनिल यादव क्योंकि ”…क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढतीं” को लेकर अभी तक आप प्रार्थना सुन रहे थे, अब ऐतराज़ भी सुनिए। अव्वल तो इस विषय की स्थापना ही बसियाई हुई है। आप जानिए कि आज की नगर वधुएं अखबार ही नहीं, इंटरनेट भी बांचती हैं। यकीन न हो तो आप कुछ साइटों पर जाइए, बाकायदा उनकी प्रोफ़ाइल की भरमार है, किसिम-किसिम की फ़ोटो, व्योरे और देश, शहर सहित। डालर फूंकिए और इस नरक में कूद जाइए।
चैटिंग में भी आप को यह नगर वधुएं मिल जाएंगी। नेट पर भी और मोबाइल चैट में भी। नगर वधुएं अब हाइटेक हो चुकी हैं कि सिस्टम ने बना दिया है, दोनों ही बातें हैं। अखबारों में मित्र बनाने के विज्ञापन का रैकेट भी इन्हीं नगर वधुओं का विस्तार है। इस छल-कपट में लुटे-पिटे लोग बहुतेरे मिल जाएंगे। रही बात मंडुवाडीह की तो सुनते हैं मंडुवाडीह का शिवदासपुर तो अब भी आबाद है। कोई बिल्डर, कोई सिस्टम अभी हिला नहीं पाया है। खैर। कहानी पर आते हैं।
विषय निश्चित ही तलवार की धार पर चलने वाला है। और अच्छी बात यह है कि अनिल ने इसे शुचितावादियों के आक्रमण से बचा लिया है। मतलब इसे अश्लीलता की रेखा भी नहीं छूने दी है, बस एक कविताई को छोड़ कर। पर दिक्कत यह है कि इस बहाने कई मह्त्वपूर्ण चीज़ें गुम हो गई हैं। बहुतेरे लोग जानते हैं- रांड़-सांड़-संन्यासी की काशी को। और कि वहां नगर वधुओं को बसाने में कुछ राजाओं और पंडों का खासा योगदान भी। अनिल उनको भी फ़्लैशबैक के बहाने बांच सकते थे, नहीं बांचे। बांचे होते तो इस कथा में काशी का वैभव और उस वैभव में नगर वधुओं का लगा पैबंद और भी लोमहर्षक बयान लेकर उपस्थित होता।
आज़ादी के तुरंत बाद १९४७ में जब पंडित नेहरू ने देश भर में वेश्यालयों को शहर से बाहर करने की मुहिम शुरू की थी तब काशी का चौक कैसे बचाने के लिए लोग सामने आए, खासकर कुछ संगीत की दुनिया के लोग। दालमंडी की उपकथा भी जुड़ सकती थी, फिर कैसे बसा मंडुवाडीह! वगैरह-वगैरह का जोड़-घटाना इस कथा को और समृद्ध बना सकता था।
जाने क्यों यह कहानी पढ़ते समय एक फ़िल्मी गाना भी लगातार याद आता रहा- नदी नारे न जाओ श्याम पैंया परूं ! इसी गाने में एक बंद है- बीच धारे जो जाओ तो जइबै करो, उस पारे न जाओ श्याम पैयां परूं! तो कुल मुश्किल यही है कि अनिल इस कहानी में नदी के किनारे-किनारे ही घूमे-घुमाए हैं। न बीच धारे गए-ले गए हैं, न उस पार ले गए हैं। ले जाना चाहिए था। क्योंकि कहानी का साजन तो उस पार ही था। जो उसे मिला नहीं। कहानी अधूरी रह गई।
माफ़ करिए मित्रों, मैं अपनी बात कहने के लिए एक पाठक के पत्र की याद करना चाहता हूं। बहुत पहले संभवतः १९८२ में दिनमान पत्रिका में कवि समीच्छक विनोद भारद्वाज ने दिल्ली में चल रहे देह व्यापार पर एक आमुख कथा लिखी थी और बताया था कि ऐसी भी लडकियां हैं जो एक रात के दस हज़ार रूपए लेती हैं। तब का दस हज़ार आज दस लाख रूपए में इस देह बाज़ार में बदल चुका जानिए। बहुत लोगों की तब साल भर की तनख्वाह भी साल भर की दस हज़ार रूपए नहीं होती थी। खैर तब एक पाठक ने दिनमान को चिट्ठी लिख कर कहा था कि ठीक है लडकियां एक रात के दस हज़ार रूपए लेती हैं पर वह हैं कौन लोग जो एक रात के दस हज़ार रूपए खर्च कर देते हैं? और अनुरोध किया था कि कृपया इन लोगों के बारे में भी एक स्टोरी छापें।
दिनमान ने उस पाठक का पत्र तो छाप दिया लेकिन उस के अनुरोध पर खामोशी मिली। एक पूंजीवादी पत्रिका में वैसे भी हिम्मत की कमी होती है, कैसे छापती भला उन सफ़ेदपोशों के बारे में जो एक रात के दस हज़ार किसी देह पर लुटा देते थे। उन लोगों के बारे में, जिन पर सिस्टम टिका है, न्यौछावर है ! पत्रिका और पत्रकार न सही पर एक कहानीकार तो यह काम कर ही सकता है। अनिल यादव तो कर ही सकते थे। उन के पास भाषा भी थी, हिम्मत भी। पर जाने क्यों वह नदी के किनारे-किनारे ही टहल-टहला कर छुट्टी ले बैठे? एक डीआईजी इस सिस्टम में क्या होता है? बच्चों के खेलने वाले साइकिल के टायर से ज़्यादा कुछ नहीं। उसकी हैसियत ही क्या होती है? काशी जैसे नगर में?
कहानी इस बात की चुगली ज़रूर खाती है कि अब पूरा शहर ही वेश्यालय में तब्दील हो चला है। सच यह है कि दुनिया के सारे शहर अपनी पूरी उपस्थिति में अब वेश्यालयों में तब्दील हैं। यह ठेकेदारी, यह मैनेजमेंट बिना औरतबाज़ी के चलता ही नहीं। यह राजनीति, यह फ़िल्म, यह समाज भी नहीं चलता। अब लोग दो ही चीज़ देखते हैं। या तो क्रिकेट या लड़कियों का डांस। कहानी में निचले दर्जे की लगभग रिटायर और बूढी वेश्याओं की यातना के तार ज़रूर ठीक से छुए गए हैं, उनकी उधड़ी तिरूपन दिखाई भी देती है। बिल्डरों और सत्ता की सीवन भी उसी तरह जो उधेड़ी होती तो बात में और ताब आया होता। सी. अंतरात्मा की यातना की कैफ़ियत को भी और कातना चहिए था। एक रिपोर्टर सारे तथ्य हाथ में होने के बावजूद किसी दबाववश सही खबर नहीं, लिख छाप सकता। जैसा कि यहां फ़ोटोग्राफ़र प्रकाश के साथ होता भी है और कि वह लांछन भी भोगता है। पर एक कहानीकार? सब कुछ जान कर भी? (यहीं आचार्य चतुरसेन शास्त्री की गोली की याद आ जाती है। फासिस्ट आलोचकों की साज़िश भले चतुरसेन शास्त्री को खारिज़ करती रहे पर नारी विमर्श पर हिंदी में इस से सशक्त उपन्यास या कथा अभी भी दुर्लभ है। गोली मतलब दासी। बंधुआ। पीढी दर पीढी की बंधुआ दासी। छुपे शब्दों में लगभग वेश्या। राजाओं और उनके कारिंदों के लिए। जब धारावाहिक रूप से गोली साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी थी तब चतुरसेन शास्त्री पर दबाव, धमकी और लांछन सभी अपनी पूरी ताकत के साथ उपस्थित थे। ब्लैकमेलर तक कहा गया था उन्हें। पर वह झुके नहीं थे)
अखबार का प्रबंधन अब अखबार को पाठकों के लिए नहीं, अपने विज्ञापनदाताओं, अपनी तिजोरी, और अपने एसोसिएट्स के लिए छापता है, यह हकीकत भी उभर कर सामने नहीं आ पाई है इस कहानी में। कुल मिला कर यह जो व्यवस्था नाम की वेश्या है, अनिल यादव उस को उजाड़ नहीं पाए हैं। तोड़-फोड़ तो खूब की है पर वह जो कहते हैं कि सीधी चोट, वह इस कहानी में अनुपस्थित दिखती है। और यह जो भडास4मीडिया के संपादक हैं यशवंत सिंह, कंडोम गुरु का काम कर गए हैं। सेक्स में कंडोम को मैं स्पीड ब्रेकर मानता हूं। सारा मज़ा सत्यानाश कर देता है। इस कहानी को छोटी-छोटी किश्तों में परोस कर यशवंत सिंह ने यही किया। स्पीड ब्रेकर का काम। एक साथ दे सकते थे। ज़्यादा से ज़्यादा दो किश्त। गनीमत बस यही रही कि जल्दी-जल्दी दिए। महीनों नहीं लगाया। लगाते तो निरोध गुब्बारा हो जाता।
डियर अनिल यादव फिर भी बधाई तलवार की धार पर चढ़ कर यह कहानी कहने के लिए। बस थोड़ी जल्दबाज़ी से बचना चाहिए था और कि चटकीली हेडिंग की पैकेजबाज़ी से भी। आमीन!
लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं. उनसे संपर्क dayanand.pandey@yahoo.com या फिर 09335233424 के जरिए किया जा सकता है.
Comments on “अनिल यादव, अब ऐतराज भी सुनिए”
कहानी अतियथार्थवादी है न कि कोई अखबारी फीचर जिसमें कि बातों को ज्यों का त्यों रख दिया जाता है। मानवीय संस्पर्श ज्यादा जरूरी है, व्यवस्था को नंगा करने का काम कार्यकर्ताओं का है वे उसे करें। पांडेय जी की आलोचना कनविंस नहीं करती। यशवंत वाली तुलना लेस दैन डिसेंट है।
प्रशंसा और ऐतराज़ दोनों ही आसान हैं. बहुत अधिक विचार की आवश्यकता नहीं. कुत्ता भी पूंछ उठा के प्रशंसा कर देता है. रोटी डालो मुंह फेर के चल देगा ये उसका ऐतराज़ है. आलोचना थोड़ा कठिन काम है. विचार करना पड़ता है. थोड़ा गहरे में उतरना पड़ता है.
Peace.
priye anil bandhu,
nagar vadhuye ab kisi parichay ki mohtaz nahi hai .nimn varg ki nagar vadhuyo ki hasiyat ko lekar matbhed ho sakte.parantu sampan pariwar se sambhandhit mahilaye.bhi ish pese ki pehchan hai.anth aapne kahani me kewal ek bindu ko dekha jo lekhni ke parti anyay hai.asha karta hoon aap meri bato ko samjhane ki kosish karenge.
aapka apna sathi
gulshan saifi
pandey ji aapne jo aalochna ki hai wah sanyag se ya phir duryog se beshak theek ban padi hai. lekin yah bhi to samajhie ki ye ek kahani hai na ki upanyaas. waise mujhe lagta hai ki aap yaun kunthit bhi hain. kam se kam aap bhale chupana chahen, lekin aapki lekhni se yah ssaf zahir ho jata hai. apna ilaaz kara lijie. aapke charitra ke liye accha hoga.
दमित कुंठा के नायक अनाम ही होते हैं। खुद तो अपना नाम पता लिखने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं, दूसरों को कुंठित बताते फिरते हैं। ऐसे चरित्रहीन लोग दूसरों को चरित्र भी समझा लेते हैं। कनफ़्यूज़न की इंतिहा यह है कि आलोचना को ठीक भी बताते हैं संयोग या दुर्योग से और अपना माथा भी फोडते हैं। यह कौन सी पालिटिक्स है अनाम जी? कहानी और उपन्यास का क, ख, ग भी जानते हैं भला आप? जानते हैं तो आइए खुल कर बात करते हैं, मर्दों की तरह। छुप- छुपा कर ठीकरा फोडने में क्या रखा है मित्र? आप यह भी जानिए कि जो मैं ने अनिल की कहानी पर लिखा वह आलोचना नहीं, प्रतिक्रिया है। आलोचना ऐसे नहीं लिखी जाती। कामता प्रसाद की भी दुविधा यही है और जातक नाम के प्राणी की भी। अरे, जयकारा लगाने की जो इतनी ही धुन लगी है आप मित्रों में तो अनिल यादव नाम का एक मंदिर बना लीजिए, लगाइए जयकारा । अनिल यादव मेरे भी प्रिय हैं, मित्र हैं, अनुज हैं , बताइएगा मैं भी आ जाऊंगा जयकारा लगाने !
written by Kashi Yadav
Dayanad ji is a profilic critic and good writer. His style, wisdom and ability to see the things is rare. therefore what he suggests is worthwhile. Only Shri Anil Yadav ji can realise it. So don’t go for unnecessary comments just ask him to write more. I know anil and dayanand ji have great potential.