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दूरदर्शन चलाना गोशाला चलाना नहीं है

आलोक तोमरदूरदर्शन जनता के पास क्यों नहीं आता? : अभी तीन महीने पहले दूरदर्शन ने पचासवीं साल गिरह मनाई है। जहां तक पहुंच की बात है, दूरदर्शन सारे निजी टीवी चैनलों को मिला कर भी उनसे ज्यादा दूरी तक और ज्यादा लोगों तक पहुंचता है। यह बात अलग है कि दूरदर्शन कार्यक्रमों की आतिशबाजियां नहीं बिखेरता और न सनसनीखेज समाचार देता है और टीआरपी की दौड़ में तो खैर वह शामिल ही नहीं है। फिर भी अकेला दूरदर्शन है जो बगैर केबल ऑपरेटर के, बगैर डिश एंटिना लगाए और बगैर किसी किस्म का एंटिना लगाए देश में कहीं भी देखा जा सकता है। इस पहुंच का बहुत सारा लाभ देश के विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में उठाया जा सकता था मगर बाबुओं की जो फौज इसे चला रही है वह ऐसा नहीं होने देती।

आलोक तोमर

आलोक तोमरदूरदर्शन जनता के पास क्यों नहीं आता? : अभी तीन महीने पहले दूरदर्शन ने पचासवीं साल गिरह मनाई है। जहां तक पहुंच की बात है, दूरदर्शन सारे निजी टीवी चैनलों को मिला कर भी उनसे ज्यादा दूरी तक और ज्यादा लोगों तक पहुंचता है। यह बात अलग है कि दूरदर्शन कार्यक्रमों की आतिशबाजियां नहीं बिखेरता और न सनसनीखेज समाचार देता है और टीआरपी की दौड़ में तो खैर वह शामिल ही नहीं है। फिर भी अकेला दूरदर्शन है जो बगैर केबल ऑपरेटर के, बगैर डिश एंटिना लगाए और बगैर किसी किस्म का एंटिना लगाए देश में कहीं भी देखा जा सकता है। इस पहुंच का बहुत सारा लाभ देश के विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में उठाया जा सकता था मगर बाबुओं की जो फौज इसे चला रही है वह ऐसा नहीं होने देती।

15 सितंबर 1959 को दूरदर्शन की शुरुआत संसद मार्ग नई दिल्ली पर आकाशवाणी के एक छोटे से कमरे में मामूली से स्टूडियो और बहुत छोटे ट्रांसमीटर से हुई थी। तब इसे सिर्फ बीस किलोमीटर तक देखा जा सकता था और एक बहुत लंबा एंटिना लगाना पड़ता था जो कबूतरों के बैठने के काम भी आता था। यह वो जमाना था जब दूरदर्शन की सिर्फ परिकल्पना की गई थी और नियमित दैनिक प्रसारण तो दिल्ली में 1965 में और मुंबई तथा अमृतसर में 1972 में शुरू हुए। तब दूरदर्शन शाम को कुछ घंटे आता था, आकाशवाणी का हिस्सा था और समाचार का सिर्फ एक बुलेटिन था। 1976 में दूरदर्शन का अपना निदेशालय बनाया गया।

यह वो जमाना था जब दूरदर्शन पर आने वाली सलमा सुल्तान और हेमा सहाय फिल्मी नायकों की तरह लोकप्रिय थे। यही हाल वी रमन और बाद में उमेश जोशी का था। दूरदर्शन अकेला चैनल था इसलिए उस पर जो दिखाया जाए वह एक मात्र विकल्प था। फिल्मी गानों पर आधारित चित्रहार जब दिखाया जाता था तो सड़के सूनी हो जाती थी। बहुत बाद में रामायण और महाभारत और हम लोग और बुनियाद जैसे धाराहिकों ने लगभग ऐसे ही चमत्कार किए। दूरदर्शन के एक धारावाहिक फौजी से निकल कर शाहरूख खान आज किंग खान बने हुए हैं। मगर दूरदर्शन जहां था, वहीं हैं। जैसा था, वैसा ही है। तब तक दूरदर्शन ब्लैक एंड व्हाइट ही था।

दूरदर्शन का राष्ट्रीय प्रसारण 1982 में शुरू हुआ और राजीव गांधी की सलाह पर इंदिरा गांधी ने रंगीन प्रसारण भी शुरू किए क्योंकि उसी साल एशियन खेल होने वाले थे। रंगीन प्रसारण की शुरूआत 15 अगस्त 1982 को लाल किले से इंदिरा गांधी के भाषण के लाइव प्रसारण से हुई। आज तो दूरदर्शन के पूरे देश में चौदह सौ पार्थिव ट्रांसमीटर हैं और पचास से ज्यादा दूरदर्शन केंद्र है। भारत एक खोज जैसे कार्यक्रम अगर दूरदर्शन को गंभीरता के दायरे में लाए तो करमचंद्र जैसा जासूसी धारावाहिक पंकज कपूर को भी सितारा बना गया। उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर हर इतवार को एक फीचर फिल्म दिखाई जाती थी और उसमें विज्ञापन नहीं के बराबर होते थे।

आज की कहानी कुछ और है। दूरदर्शन के 19 चैनल हैं जिनमें से 11 क्षेत्रीय भाषाओं में हैं, एक खेल चैनल हैं। राज्यसभा और लोकसभा के लिए अलग अलग चैनल हैं और एक अंतराष्ट्रीय चैनल भी हैं। इसके अलावा अब तो दूरदर्शन डीटीएच यानी डिश सेवा भी चलाता है जो अच्छी खासी मांग में हैं और दूरदर्शन की कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा इसी से आता है।

दिक्कत सिर्फ यह है कि प्रसार भारती नामक निगम के गठन और दूरदर्शन को तथाकथित तौर पर स्वायत्त कर देने के बावजूद न इसका चरित्र बदला और न चेहरा। इन दिनों नई दिल्ली के मंडी हाउस में दूरदर्शन का एक आधुनिक बहुमंजिला कार्यालय है लेकिन वहां भी कार्यक्रम मंजूर करवाने के लिए थोड़े बड़े पैमाने पर वहीं करना पड़ता है जो गैस कनेक्शन या राशन कार्ड बनवाने के लिए करना पड़ता है।

दूरदर्शन के कई बड़े अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोप में पकडे ग़ए हैं और उनसे करोड़ों रुपए बरामद हुए हैं। करोड़ों की कमाई प्राइवेट चैनल भी करते हैं मगर विज्ञापनों से करते हैं और कायदे से करते हैं। दूरदर्शन में तो निर्माता से कहा जाता है कि बजट बढ़ा कर लाओ और मंजूर होने के बाद इतना हिस्सा इसको दे दो। यही वजह है कि बहुत सारे परचुनिए, ढाबे वाले और इसी तरह के काम करने वाले न सिर्फ दूरदर्शन के नियमित निर्माता बन गए बल्कि उन्हीं के बनाए कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जाने लगी।

अब थोड़ी कम जरूर हुई है मगर दूरदर्शन में दलाल संस्कृति अब भी मौजूद है। फैसले अब भी मंत्री और सचिव स्तर पर होते हैं और प्रसार भारती वाले खामोश बने रहते है क्योंकि उनकी नियुक्ति भी वहीं से होती है। एक किस्सा सुन लीजिए। एनडीए सरकार के दौरान एक दिन अचानक तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दूरदर्शन देख रहे थे। शायद कृषि दर्शन कार्यक्रम था। लगभग पच्चीस मिनट का पूरा कार्यक्रम देखने के बाद देश के प्रधानमंत्री ने कहा कि ये लोग रहते किस दुनिया में हैं? कृषि क्षेत्र में दुनिया में इतनी सारी वैज्ञानिक शोध हो रही है लेकिन इन्हें दिखाने की फुरसत नहीं है। इसके बाद समाचार पर गए और वहां लगभग अंगड़ाई लेते हुए एक समाचार वाचक बता रहे थे कि किसी मंत्री ने अपने प्रदेश में विकास के लिए अधिकारियों की बैठक बुलाई और उनसे कहा कि उन्हें कर्तव्य पालन करना चाहिए। उन दिनों दूरदर्शन का समाचार चैनल आने को था। अटल जी ने यों ही पूछा कि इसका तुम कुछ कर सकते हो? मैंने भी यों ही जवाब दिया कि मौका मिले और आजादी मिले तो कुछ भी हो सकता है। देश के प्रधानमंत्री ने प्रसार भारती के तत्कालीन प्रमुख के एस शर्मा से फोन पर बात की और तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री रवि शंकर प्रसाद से कहा कि कल आलोक तोमर आपसे मिलने आएंगे और इनसे समाचार चैनल की बात कर लेना।

रवि शंकर प्रसाद ने शास्त्री भवन में मिलने का वक्त दिया। हमारे और रवि शंकर के मित्र और प्रसिद्व वकील अमिताभ सिन्हा भी साथ में थे। उन्हें इसलिए ले लिया था क्योंकि बहुत साल पहले रवि शंकर प्रसाद के एक प्रेम प्रसंग में टांग अड़ा चुका था इसलिए पता नहीं था कि कैंसे पेश आएंगे? बात बड़े प्यार से हुई। रवि शंकर बोले कि आप तो सीधे हिमालय पर चढ़ गए। जरा जमीन पर आइए तो बात करें। अपन भी चुप रहने वाले नहीं थे। जवाब दिया कि अटल जी आपके लिए हिमालय होंगे लेकिन हमारे लिए तो जमीन भी वे ही है और आकाश भी।

रवि शंकर प्रसाद ने चाय पिलाई, इधर उधर की बातें की, मेरे आज तक और दूसरे टीवी अनुभव के बारे में पूछा। इसके बाद मंत्रालय के तत्कालीन सचिव और वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला को बुला लिया। करेला और नीम चढ़ा। इन नवीन चावला के संजय गांधी मंडली से संपर्कों के बारे में कुछ ही दिन पहले लिख चुका था। मगर जैसे अफसर होते हैं, चावला ने गंभीर होने का पूरा अभिनय किया, कागज पर नोट भी करते गए और उठते हुए कहा- दूरदर्शन में आपका स्वागत है। यह उनसे मेरी आज तक की आखिरी मुलाकात थी। बाद में पता चला कि अपने मित्र दीपक चौरसिया समाचार चैनल के सलाहकार बन कर चले गए और बाद में उन्होंने मजाक में कहा भी कि जब राजनीति नहीं आती तो करते क्यों हो? जहां तक अटल जी का सवाल है तो बाद में भी उन्हाेंने इस बारे में न कुछ पूछा और न मैंने कुछ बताया।

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अपने इस अनुभव के बावजूद मेरा मानना है कि दूरदर्शन अपने आप में एक बड़ी ताकत है और भले ही वह सरकार का अंग हो, सरकार उसका बहुत बेहतर तरीके से और जनहित में इस्तेमाल कर सकती है। दूरदर्शन चलाना गोशाला चलाना नहीं है जहां चंदा वसूला जाता है और कश्मीर के विशेष चैनल कशीर के लिए प्रोग्रामिंग का जो लंगर बंटता है उसमें इस बार सौ से ज्यादा दुकानदार, टेक्सी ड्राइवर और इसी तरह के लोग प्रसाद पा गए हैं। पाकिस्तान टेलीविजन का मुकाबला इस चैनल को करना है मगर इस पर तो केसर के खेत, कश्मीरी नृत्य और डोगरी और सूफी साहित्य के कार्यक्रम चलते रहते हैं। जो दूरदर्शन विनोद दुआ, प्रणय रॉय और शाहरूख खान जैसे सितारे भारतीय सूचना अंतरिक्ष में स्थापित कर सकता है वह अपनी विराट पहुंच के बावजूद अगर कुछ नहीं कर पा रहा तो क्यों नहीं कर पा रहा, इसका जवाब खुद दूरदर्शन वालों को ही देना होगा।

लेखक आलोक तोमर वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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0 Comments

  1. mehul jhala

    January 24, 2010 at 6:27 am

    Alokji…

    KYA KHUB KAHI…aksar aap ko padhte rehte hai.. DIDI main keval cental main hi nahi..jyadatar dalalo ki fauj hai…kai kai jagah to news ke Stringers se bi paise vasul kar Stories chalayi jaati hai..Arje hai, ” Ek baccha haato main naksha lekar hai pareshan, yeh kaun dimak kha gaya mera Hindustan..”

  2. Rajkumar sahu

    January 24, 2010 at 12:59 pm

    Aalok ji, D D news ke bare me jo kuch aapne likha woh bahut thik hai. sarkari sanstha ki bimari yahan bhi puri tarah faili hui hai. naukarshah DEEMAK ki tarah ise chat kar jane me lage hain.

  3. Mahabir Seth

    January 24, 2010 at 3:17 pm

    Har jagah durdarshan ka yahi haal hai

  4. संगम पांडेय

    January 25, 2010 at 10:53 am

    ‘सलमा सुल्तान और हेमा सहाय फिल्मी नायकों की तरह लोकप्रिय थे…….’

    हेमा सहाय नहीं मंजरी सहाय…।

  5. prady thalwal

    January 25, 2010 at 3:49 pm

    alok bhai sach yahin tak simit nahi hai. aapne to mahaj aapne bare bat ki. lekin doordarsn k darsn to door se dekhe ja sakte hai.in doordarsndhariyon ko mahaj paise k darsan karne hote hai. program se inka koi sarokar nahi hota hai.

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