आलोक मेहता। देश के नामी पत्रकार। कभी हिंदुस्तान के संपादक रहे। कभी आउटलुक के। अब नई दुनिया के एडीटर इन चीफ हैं। उनके कंधों पर मध्य प्रदेश के एक अखबार को दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में सफलतापूर्वक लांच करने का जिम्मा है। उन्होंने यह चुनौती स्वीकारी। बेहद प्रतिस्पर्धी माहौल में, गुणवत्ता के इस दौर में, तकनीकी दक्षता और नएपन के इस युग में आलोक मेहता ने बजाय नई प्रतिभाओं, नई उम्र के मेधावियों, नई समझ के लोगों को तवज्जो देने के, अपनी उसी पुरानी टीम को याद किया जो हिंदुस्तान के दिनों से उनके साथ थी। जो आउटलुक के दिनों में उनके संग थी। तभी तो दो तिहाई नियुक्तियों में उन उम्रदराज लोगों को प्राथमिकता दी गई जो किन्हीं वजहों से अपने-अपने संस्थानों में साइडलाइन कर दिए गए थे। हिंदुस्तान और आउटलुक से लिए गए लोगों को छोड़ भी दें तो अन्य जो लोग भर्ती किए गए हैं उनमें से ज्यादातर 40 पार या 40 के आसपास के हैं।
अब जबकि ज्यादातर अखबारों ने अपने यहां सीनियर पदों पर भर्ती के लिए उम्र की सीमा तय कर दी है, बहुमुखी प्रतिभा के धनी नई उम्र के लोगों के लिए दरवाजे खोल दिए हैं, एक मात्र नई दुनिया, दिल्ली ही ऐसा अखबार होगा जहां नियुक्त किए गए पत्रकारों की औसत आयु 40 के पार होगी। जितने लोगों को भर्ती किया गया है, उसमें ज्यादातर दिल्ली के ही किसी न किसी अखबार में कार्यरत थे। उनमें से ज्यादातर के आलोक मेहता से किसी न किसी प्रकार के संबंध थे। आलोक मेहता से न हो तो उनके ठीक नीचे नियुक्त किए गए वरिष्ठ पत्रकारों से संबंध थे। मतलब नई दुनिया की नियुक्तियों में संबंध और सिफारिश का खूब खेल चला।
दिल्ली के बाहर के हजारों की संख्या में प्रतिभाशाली पत्रकार दिल्ली आने के लिए सपने देखते रहते हैं लेकिन उनका गुनाह बस इतना है कि वे दिल्ली वाले नहीं हैं इसलिए उन्हें दिल्ली में घुसने नहीं दिया जाता। नई दुनिया के लिए की गई सैकड़ों पत्रकारों की नियुक्तियों में भी यही सच देखने को मिला। एक जमाना था जब देश के वरिष्ठ संपादक नियुक्तियां करते थे तो उन अचीन्हे प्रतिभाओं को मौका देते थे जो देश के किसी कोने से लड़ते-भिड़ते दिल्ली पहुंचे होते थे। पारखी संपादक की निगाह इन पर पड़ती थी तो इन्हें तराश कर हीरा बना दिया जाता था। अतीत के ऐसे ही हीरे आजकल पत्रकारिता में कई जगहों पर शीर्ष पर हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं है। देश के कोने कोने से जो हीरे दिल्ली पहुंचते हैं उन्हें ज्यादातर जगहों पर नो वैकेंसी का बोर्ड टंगा मिलता है जबकि वहीं उसी के पिछवाड़े से सोर्स-सिफारिश, जान-पहचान वाले लोग लगातार भर्ती किए जाते रहते हैं।
अतीत के जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं कि जिन संपादकों को कोई चैनल या अखबार लांच करने का जिम्मा दिया जाता है तो वो जान-पहचान, मेरा आदमी, मेरे इलाके का आदमी, मेरी जाति का आदमी, मेरे चेले का आदमी, मेरे साथ काम कर चुका आदमी….आदि पैमाने पर ऐसी भर्तियां कर लेते हैं कि चैनल या अखबार लांच होने के कुछ महीने बाद ही क्वालिटी को लेकर उन पर सवाल उठने लगते हैं और आखिरकार बड़े बेआबरू होकर उनके लोगों को और बाद में खुद उन्हें बाहर होना पड़ता है। बावजूद इसके, यह क्रम जारी है। शायद इतिहास से सबक न लेने की हमारे संपादकों ने ठान ली है।
सच कहें तो, पत्रकारिता में भर्ती के लिए अभी तक कोई मापदंड नहीं बना है।
अगर आपका पीआर नहीं है, आपका जुगा़ड़ नहीं है, आपके लिए सोर्स-सिफारिश नहीं है तो आपको मुश्किल से इंट्री मिलेगी। आपको मुश्किल से बढ़त मिलेगी। जिसके पास ये सब है, वो नाकाबिल होते हुए भी सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहा है।
यह एक ऐसा ज्वलंद मुद्दा है जिस पर बहस होनी चाहिए और खुलकर बहस होनी चाहिए, बिना परवाह किए कि इन बहसों से किन्हें और कितनी दिक्कत होने वाली है।
भड़ास4मीडिया कुछ सवालों पर अपने पाठकों से उनकी राय जानना चाहता है। सवाल हैं-
- क्या नई दुनिया में की गईं भर्तियां आलोक मेहता की छवि को निखारती हैं या बिगाड़ती हैं?
- क्या ‘बूढ़ों’ के बल पर ‘नई’ दुनिया बसाना संभव है?
- पत्रकारिता में आगे बढ़ने के लिए प्रतिभा की बजाय अन्य चीजें कितनी जरूरी हैं?
- दिल्ली के बाहर के प्रतिभाशाली हिंदी पत्रकारों को दिल्ली में मौका दिया जाना चाहिए या नहीं?
आपको अगर इस पूरे प्रकरण पर कुछ कहना है तो उपरोक्त सवालों के जवाब देते हुए [email protected] पर मेल करें। अगर आप अनुरोध करेंगे तो आपकी पहचान गुप्त रखी जाएगी।