अचानक रंगमंच का पुरोधा हमें खाली हाथ छोड़ गया… भोपाल में 7 जून को सूरज के उगने के पहले ही रंगमंच पर अँधेरा छा गया… और चरणदास चोर का कांस्टेबल अँधेरे में हमेशा के लिये गुम हो गया….जिसे देखने के लिये उमड़ी भीड़ को देख किसी रैली का अहसास होता था…. मिट्टी की वो गाड़ी मिट्टी में मिल गई जिसे हबीब अहमद खान ने बनाया था ….
जी हां, तनवीर साहब का असली नाम यही था… तनवीर के नाम से तो वो अखबारों में लिखा करते थे जिसे बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ जोड़ लिया। और एक वक्त आया जब हबीब तनवीर थियेटर के पर्याय बन गये। तनवीर ने थियेटर की दुनिया में उस वक्त कदम रखा था जब थिएटर के अंत की चर्चा जोरों पर थी. लेकिन उनकी जिद ने थियेटर को फिर अमर कर दिया। 1923 में रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर एक नाटककार ही नहीं बल्कि बेहतर कवि, अभिनेता और निर्देशक भी थे…लेकिन इस जिद्दी इंसान का मन न तो पोलैंड में रमा था और न ही मुंबई में जमा, कुछ दिनों तक ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी भी की लेकिन भारतीय जन नाट्य मंच से जुड़ने के बाद वे रंगमंच के होकर रह गए। छत्तीसगढ़ के लोक कलाकार और वहां का लोक जीवन उनके अंदर रचा बसा था। इसी लोक जीवन के रंग बिरंगे रूप को वे जीवन भर मंच पर रचते रहे। ‘आगरा बाजार’ हो या ‘चरणदास चोर’, ‘मिट्टी की गाड़ी’ हो या ‘शतरंज के मोहरे’, ‘बहादुर कलारिन’ हो या ‘पोंगा पंडित’, हर नाटक में लोक जीवन के रंग हबीब ने इस अँदाज में भरे कि परंपरागत भारतीय थियेटर की पूरी तस्वीर ही बदल गई।
तनवीर लोक जीवन ही नहीं, लोक कलाकार की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन गए। सम्मान और पुरस्कार की चकाचौंध में हबीब कभी शामिल नहीं हुए …. दरअसल हबीब को पुरस्कार उस अवार्ड को सम्मान है…. 1982 में चरणदास चोर को एडिनबर्ग में जब फ्रिंग फर्स्ट अवार्ड से नवाजा गया तब वहां स्टेज पर ये बातें किसी ने कही थी। तनवीर साहब को 1983 में पद्म श्री और 2002 में पद्म विभूषण मिला। 1996 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी से भी सम्मानित किया गया। हबीब तनवीर 1972 से 1978 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे। तनवीर साहब एक ऐसा मंच सिरजना चाहते थे जिसका पर्दा कभी गिरे नहीं….लेकिन लंबी बीमारी ने भारतीय रंगमंच के उस पर्दे को गिरा दिया जिसके उस पार रह गए हबीब तनवीर।