हमारा हीरो – शशिशेखर
”अखबार में मेरी भूमिका मास्टर ब्लेंडर की तरह : पत्रकारों ने खुद को विदूषक बना लिया है या दरोगा बन बैठे : हिंदी में समय के साथ इंस्टीट्यूशन नहीं बदले : मैं रुपये के पीछे भागने वाला आदमी नहीं हूं : एमबीए वाले एमजे वालों से ज्यादा सेलरी पा रहे : बेटी की शादी के बाद नौकरी नहीं करना चाहता : आप गालियों तक ही रुक गए, मैंने तो अपने बारे में काफी कुछ सुना है”
अमर उजाला के ग्रुप एडीटर और प्रेसीडेंट (न्यूज) शशिशेखर हिंदी मीडिया की मशहूर और चर्चित शख्सियत हैं। शून्य से शिखर तक की यात्रा करने वाला एक सेल्फ मेड व्यक्तित्व। जहां रहे वहां दिल से रहे, विश्वास और ईमानदारी के साथ रहे। खुद सर्वोत्तम दिया और साथियों को बेस्ट देने के लिए प्रेरित किया। कुल 28 वर्षों के पत्रकारीय करियर में अमर उजाला से पहले दो संस्थानों में रहे। 20 वर्षों तक आज अखबार के साथ। डेढ़ साल आज तक के साथ। हिंदी पत्रकारिता को अपने दम पर नई दिशा, सोच, दृष्टि व तेवर देने वाला यह व्यक्तित्व मात्र 24 वर्ष की उम्र में ही संपादक बन बैठा। तबसे आज तक संपादक की कुर्सी सदा शशिशेखर के साथ रही। हिंदी मीडिया के इस हीरो से उनके आफिस में भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह ने विस्तार से बातचीत की। पेश है इंटरव्यू के अंश-
-आप कहां के रहने वाले हैं? जन्म से लेकर शिक्षा-दीक्षा और मीडिया में आने के बारे में बताएं।
–मैं मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) जिले के गांव चंदीकरा का निवासी हूं। 30 जून 1960 को पैदा हुआ। पिता श्री जगत प्रकाश चतुर्वेदी जिला सूचना अधिकारी थे। उनका तबादला होता रहता था तो उनके साथ हम लोग भी कई जगहों पर रहे। मिर्जापुर, इलाहाबाद, आगरा, बनारस। बाद में पिता जी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में पीआरओ हो गए। वे हिंदी के नवगीत आंदोलन के प्रणेताओं में से एक थे। मैंने बीएचयू से प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय से एमए किया। 23 सितंबर 1980 को आज अखबार, बनारस से करियर की शुरुआत की। यहां परमानेंट नहीं किया जा रहा था तो 31 मार्च 1981 को छोड़ दिया। बाद में 16 जुलाई 1981 से 13 जनवरी 2001 तक आज अखबार इलाहाबाद और आगरा में बतौर संपादक रहा। 13 जनवरी 2001 से 26 जुलाई 2002 तक न्यूज चैनल आज तक में रहा। 26 जुलाई 2002 से अभी तक अमर उजाला में हूं। यही है मेरा मीडिया का करियर।
-अमर उजाला में जब आप आए तो आप सिर्फ मेरठ के संपादक थे। आज ग्रुप एडीटर हैं। आपने थोड़े ही दिनों में जबर्दस्त सफलता पाई। कैसे संभव हुआ यह?
–मैंने 26 जुलाई 2002 को अमर उजाला, मेरठ में कार्यकारी संपादक के रूप में ज्वाइन किया। तब अमर उजाला के प्रबंध निदेशक अतुल माहेश्वरी जी से मेरी बात हुईं थीं। उनका कहना था कि संपादक लोग बातें बहुत अच्छी करते हैं, लेकिन काम नहीं। आप जैसा करना चाहते हैं वो अच्छा है, शुरुआत मेरठ और देहरादून से करके देखिए। तो प्रयोग के तौर पर इन दोनों संस्करणों में काम शुरू किया। हमने विकास और डिसेंट्रलाइजेशन की थ्यूरी की रचना की। परिणाम अच्छे आए। मेरठ में हम लोग पहली बार नंबर वन बने। देहरादून में सफलताएं मिलीं। प्रयोग सफल रहे तो अमर उजाला की लीडरशिप का विश्वास मेरे पर बढ़ता गया। मेरी जिम्मेदारियां बढ़ा दी गईं। जब मैं आया था तो अमर उजाला अखबारों में आठवें नंबर पर था, अब वो तीसरे नंबर पर है। कंटेंट से लेकर लेआउट तक में दूसरे अखबार अमर उजाला की नकल करने लगे हैं। पर यह सब कुछ अकेले मेरी वजह से नहीं हुआ है। यह लीडरशिप के विश्वास और साथ के लोगों की मेहनत का नतीजा है।
–आप जब अमर उजाला में आए और आगे बढ़ते गए तो कई संपादकों ने आप की तरफ उंगलियां उठाकर अखबार से इस्तीफा दे दिया था।
–नहीं, ऐसा नहीं है। अमर उजाला से सबसे कम संपादक हटे हैं। बहुत कम लोगों ने इस्तीफा दिया। उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। हमने सबको साथ लेकर काम किया है। हकीकत तो यह है कि संस्थान के पुराने लोगों को जमकर बढ़ाया गया। जो लोग पांच साल पहले सीनियर सब एडीटर थे, आज संपादक हैं। डिसेंट्रलाइजेशन की थ्यूरी पर हम लोगों ने चकिया से पनपे किसी अच्छे विचार को जम्मू तक पढ़वाने का सिस्टम बनाया। यह दूसरा बड़ा काम था। इस सबमें मेरी भूमिका मास्टर ब्लेंडर की तरह रहती है। विचार संपन्न लोगों के विचारों को औटाकर नई खबर की सर्जना करने की।
-आपने टीवी और अखबार, दोनों तरह के मीडिया माध्यमों में काम किया है। कैसा अनुभव रहा?
–इन दोनों माध्यमों में कोई खास अंतर नहीं है। अपने देश में प्रिंट 200 साल पुरानी संस्था है। समय के साथ चीजें बदली हैं। हर व्यक्ति का जादू यहां एक समय तक ही चला। धर्मवीर भारती के जीते जी धर्मयुग नाम की महान पत्रिका बैठ गई। समय के साथ अमिताभ बच्चन भी बदले हैं, तभी वे चल रहे हैं। एक जमाने में जंजीर में अमिताभ कुछ थे और आज चीनी कम में कुछ हैं। दुर्भाग्य से हिंदी में समय के साथ इंस्टीट्यूशन नहीं बदले। यहां गुरुडम और पांडित्य की स्थापना हुई। शिक्षक और साहित्यकार अपनी जमीन से उठकर आए और संपादक बन गए। ये मझोले लोग भारती, अज्ञेय और रघुवीर सहाय की नकल करते थे। इसके चलते हिंदी पत्रकारिता में पाखंड और विडंबनाओं का साम्राज्य स्थापित होता चला गया। अब चीजें समय के साथ बदल रही हैं क्योंकि अब ऐसे लोग पत्रकारिता में आ रहे हैं जो वाकई पत्रकारिता की जमीन से बढ़े हैं। पर टीवी नया माध्यम है। बाजार के दबाव और नये प्रयोगों के बीच सही शक्ल हासिल करने में उसे वक्त लगेगा।
-आपके बारे में कहा जाता है कि आप अपने अधीनस्थों से अपशब्द कहते हैं, कितना सच है?
–मैंने किसी को अपशब्द कहा हो, याद नहीं आता। अनुशासन के बिना देश, समाज या संस्थान को नहीं चलाया जा सकता। सुबह 4 बजे भी आप मुझे एसएमएस करेंगे तो उसका जवाब मिलेगा। मतलब, काम के प्रति ईमानदारी रखने की कोशिश करता हूं और ऐसी अपेक्षा भी करता हूं। सबको साप्ताहिक अवकाश मनाने की छूट है। छुट्टी पर कोई हो तो कभी काम की बात नहीं कहता। किसी से तभी बात करता हूं जब वो आफिस में हो। पर मैं खुद 24×7 काम करता हूं। आफिस समय से आएं, यह अपेक्षा रखता हूं। अपने शब्द किसी के मुंह में नहीं डालता और किसी पर लगाम नहीं लगाता। वैसे, आप गालियों तक ही रुक गए, मैंने तो अपने बारे में काफी कुछ सुना है।
-जीवन व करियर में गाडफादर कौन रहा? सबसे ज्यादा प्रभावित किससे हुए? कौन हैं आपके रोल माडल?
— सेल्फ मेड आदमी हूं। पिता जी बचपन से कहते थे कि खुद करो और आगे बढ़ो। वे बताते थे कि अमेरिका में लड़के हाकिंग (अखबार बेचकर) करके पैसे कमाते हैं और उसी से पढ़ाई करते हैं। तो मैं भी कुछ न कुछ करता रहा। अपने पैरों पर शुरू से ही खड़ा रहा। 15 साल की उम्र में कपड़े बेचने का काम शुरू किया। अपनी मेहनत से बढ़ा। मेरा कोई रोल माडल नहीं। मेरा कोई गाडफादर नहीं।
दो कहानियां हैं जिसने मेरे जीवन व मेरी सोच पर काफी असर डाला। एक महाश्वेता देवी लिखित उपन्यास है जिसका हीरो है चोट्टी मुंडा। वो गजब का तीरंदाज था। कहते थे, वो किसी का नाम लेकर तीर छोड़ता था तो वो तीर उस आदमी को खोज कर उस पर वार करता था। एक बच्चा चोट्टी से पूछता है कि ये जादुई हुनर कहां से पाया? चोट्टी ने बताया कि उसने अभ्यास कर के ऐसा हुनर हासिल किया। दूसरी कहानी कौरवों-पांडवों और द्रोणाचार्य की है। कौरव और पांडव शिक्षा के लिए द्रोणाचार्य के पास पहुंचे। पहले दिन दुर्योधन प्रथम आया। द्रोणाचार्य ने उसे गले लगा लिया। उसे अपना सच्चा उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। रात हुई तो गुरु द्रोणाचार्य के कानों तक तीर छोड़े जाने की सरसराहट हुई। गुरु की आंख खुली। देखा तो अर्जुन रात में वाण चला रहे थे। अर्जुन लक्ष्यवेध का अभ्यास अंधेरे में कर रहे थे। तीर को झाड़ियों से निकालने में वो खून से लथपथ हो चुके थे। पसीने से तर बतर थे। गुरु ने अर्जुन को आर्शीवाद दिया- सबसे आगे जाओगे।
तो ये जो नींद और भूख है, इस पर जिसने विजय पा ली, इससे जिसने लड़ लिया, वो जरूर सफल होगा। इन कहानियों का सार यही है। ये दोनों नायक नींद और भूख से लड़ सकते थे, इसलिए ये लोग वो हासिल कर सके, जो ये चाहते थे। इन्हीं दो कथाओं ने ग्रेजुएशन के दिनों में मुझे बेहद प्रभावित किया और इनको मैंने आत्मसात करने की कोशिश की।
-आप पीछे मुड़कर अपने शुरुआती दिन देखते हैं तो कोई ऐसी घटना याद आती है जिसने आपको सोचने पर मजबूर किया हो?
–जब मैं बनारस में आज अखबार में काम करने पहले दिन अपने स्कूटर से पहुंचा था तो वहां हड़कंप मच गया था। उन दिनों शायद ही किसी पत्रकार के पास स्कूटर होता था। सीनियर पत्रकारों को इससे बड़ी ठेस पहुंची। उन लोगों ने कहा कि चिकने चुपड़े लड़के अब स्कूटर चलाते हुए पत्रकारिता करने आ गए हैं तो अब पत्रकारिता का क्या होगा? एक सीनियर पत्रकार ने मुझसे पूछा- शराब पीते हो, भांग खाते हो, गांजा पीते हो…? उन दिनों आज हिंदी का शीर्षस्थ अखबार माना जाता था। मुझे तभी समझ में आ गया था कि पत्रकारों को दिमागी ओवरहालिंग की जरूरत है। जिस तरह बनारस के दुर्गाकुंड के पोखर में काई बैठी हुई है, उसे साफ करके ही साफ जल पाया जा सकता है, उसी तरह पत्रकारिता की काई भी साफ करनी होगी। पत्रकारों को सबसे पहले अच्छी सेलरी और बौद्धिक अपलिफ्टमेंट की जरूरत है।
28 साल बाद मैं पाता हूं कि ये चीजें अब पत्रकारिता का पार्ट बन चुकी हैं। पत्रकार बेहतर जीवन जीने लगा है। वो नई सोच के साथ काम करने लगा है। इतिहास में नायकों, खलनायकों और विदूषकों का नाम ही दर्ज होता है, पर हम जैसे लोगों ने बिना नाम कमाने की आंकाक्षा के काल की धारा मोड़ने का काम किया है।
-आप जैसे योग्य और सक्षम व्यक्ति के होते हुए भी ‘आज’ अखबार गर्त में क्यों समा गया?
— टीक्यूपी का मतलब होता है टोटल क्वालिटी पीपल। आज अखबार ने समय के साथ टीक्यूपी के विकास और उसे साथ रखने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। आज अखबार के निदेशक शार्दूल विक्रम गुप्त के प्रति मैं सर्वाधिक श्रद्धानवत रहता हूं। लेकिन जब इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर उनका आकलन करता हूं तो पाता हूं कि टीक्यूपी को समाहित न करने के कारण तमाम काबिल लोग इस संस्थान से अलग होते चले गए। शार्दूल जी 1980 में रामनाथ गोयनका बनने की बात सोचते थे। पर उस तत्व को भूल गए जो किसी को रामनाथ गोयनका बनाता है। आज अखबार के दिनों में इस अखबार की स्थितियों के चलते कई बार रोया हूं। जब राजा हारता है तो सिर्फ राजा ही नहीं हारता। पूरा देश, समाज और प्रजा भी हारती है। आज का पराभव हम सबकी हार थी।
-आपकी आगे क्या योजना है? सपना क्या है?
—अमर उजाला नंबर एक अखबार बने, यही मेरा सपना है। मैं समाचार का आदमी नहीं, न्यूज इंडस्ट्री का आदमी हूं। मैं जल्दी-जल्दी नौकरियां बदलने वालों में से नहीं हूं। विश्वास करता हूं और विश्वास का रिश्ता चाहता हूं। शार्दूल जी के साथ 20 साल तक आज अखबार में काम किया। अमर उजाला में छह साल से हूं। दो टीवी चैनलों के सीईओ यहीं अमर उजाला आफिस में आए और घंटों बैठे रहे। करोड़ों रुपये के पैकेज का आफर किया पर मैं रुपयों के पीछे भागने वाला नहीं हूं। मैं अच्छे प्रबंध तंत्र के विश्वास को कायम रखना चाहता हूं। वैसे, अपनी बेटी की शादी के बाद नौकरी नहीं करना चाहता।
-आपने संघर्षमयी जीवनयात्रा में प्रेम को कितना महत्व दिया?
–भाग्यशाली हूं। प्रेम किया भी और मिला भी। बाकी इस बारे में सच बुलवाना चाहें तो सच बोलूंगा नहीं और मैं झूठ बोलता नहीं। प्रेम और बाकी रिश्तों में अंतर होता है। प्रेम रिश्ते का तलबगार नहीं। प्यार किया, प्यार पाया, खुश हूं। मेरी पत्नी अच्छी हैं। एक किस्सा बताऊं। हनीमून के लिए जाना था। तब आज अखबार इलाहाबाद का स्थानीय संपादक होता था। अमिताभ और बहुगुणा का चुनाव था। अमिताभ के आटोग्राफ के साथ फोटो छपने के बाद बहुगुणा समर्थकों ने आफिस आकर हंगामा शुरू कर दिया। मैं बनारस था। सूचना पहुंची तो हनीमून ड्राप कर पत्नी के साथ एक ठसाठस बस में सवार होकर इलाहाबाद के लिए चल पड़ा।
कैफी आजमी की नज्म ‘औरत’ की एक लाइन है- उठ मेरी जान, तुझे मेरे साथ चलना है।
तब मैं 25 साल का था और वो 20 की। पहुंचा तो फिर आफिस की उलझनों में उलझा रहा। घर आया तो पत्नी से कहा कि ऐसा ही हूं और ऐसा ही करता रहूंगा। हर हालत में वो मेरा साथ देती हैं। मैरिज एनीवर्सरी, बर्थडे… यह सब पता ही नहीं चलता। इन चोंचलेबाजियों में कभी नहीं पड़े हम लोग।
सफलता के पीछे के संघर्षों को किसी ने नहीं देखा। 23 अगस्त 1989 की बात है। तब आज अखबार आगरा देख रहा था। पत्नी प्रसवपीड़ा में थीं। अकेले थीं। उनके साथ रहना था। अस्पताल का मोर्चा संभालना था। उधर, अखबार छापने के लिए कागज नहीं था। आखिर में मैं अखबार छपने के लिए कागज मिलने में आ रही दिक्कतों को दूर करने के तकनीकी काम में जुट गया। इन साढ़े चार घंटों के दौरान पत्नी अकेले रहीं। हम दोनों को गर्व है कि हम दोनों अपना-अपना कर्तव्य निभा रहे थे, अपना-अपना काम कर रहे थे। आज भी महीने के 20 दिन घर नहीं पहुंच पाता। अखबार के लिए दौरे पर रहता हूं।
-संपादकीय नैतिकताएं बाजार के दबाव के चलते खत्म हो रहीं हैं, ऐसा माना जा रहा है। आपका क्या अनुभव है?
–ये बातें अर्धसत्य जीने वाले और अर्धसत्य बोलने के आदी लोग ही करते हैं। मेरा तो यही पूछना है कि बाजार कब नहीं था। महाकाव्य काल में द्रोपदी को कौन लोग नंगा कर रहे थे, किसके सामने कर रहे थे? तब राज्य पाने की लिप्सा हुआ करती थी। इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए सेनाएं होती थीं। आज मार्केटिंग के फंडे हैं।
खबर का मूल तत्व सत्य होता है। मिलावट करते हैं तो स्टोरी बनती है। हम लोग सत्य के संधान के व्यवसाय में हैं। मैं दावे से कह सकता हूं कि अमर उजाला खबर नहीं छुपाता। हालांकि हम ये भी दावा नहीं करते कि हम जेहादी पत्रकार हैं। दरअसल, नारे और तर्क सत्य के खिलाफ मुहिम हैं।
-कोई ऐसी घटना जिसने आपको पीड़ा पहुंचाई हो, जिसे आप भुला नहीं पाते, जो कचोटती रहती है?
–1991 में आगरा में दंगा हुआ था। थाना लोहामंडी में देखा, एक औरत के सिर से खून गिर रहा था। मैं खबर कवर करने निकला था। मैं उसे बचाना चाह रहा था, उसका इलाज कराना चाह रहा था, इधर खबर को अच्छे से कवर करने का दबाव था। तय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूं। अंत में मैंने उस औरत को उसी हाल में छोड़कर खबर के लिए आगे बढ़ चला। बाद में मुझे उस औरत का खून सना चेहरा याद आता रहा। मैं अपने आप को दोषी मानता रहा। मुझे उसकी मदद करनी चाहिए थी। यह संताप मुझे अब तक है कि आखिर मैं उस क्षण पत्रकार से पहले इंसान क्यों नहीं बन सका।
मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं जब मैं बच्चों को काम करते देखता हूं। बूढ़ों को रिक्शा खींचते देखता हूं। मैं रोने लगता हूं। ये जो विसंगतियां हैं, वे मुझे अंदर से हिलाकर रख देती हैं।
कई बार मन होता है कि पहाड़ जंगल की ओर चुपचाप निकल पड़ूं। तपस्या करूं। कीड़ा काट रहा हो तो काटता रहे, फल टपक जाए तो खा लूं वरना भूख-प्यास का एहसास ही न हो। जैन मुनियों की तरह अमरत्व की यात्रा पर चलूं। गंगा किनारे आज भी कई बार बैठ जाता हूं अकेले। गंगा मुझे प्रभावित करती हैं। नेहरू जी के शब्दों में ‘बारिश में समुद्र को भी बहा ले जाने वाली गंगा’ मेरे लिए तो मां, प्रेमिका और दोस्त की तरह है।
1975 से अब तक लगातार काम किये जा रहा हूं। अपने अंदर झांकना चाहता हूं। अकेले ऐसी जगह बैठना चाहता हूं जहां कोई न हो।
-आप समय का प्रबंधन किस तरह कर पाते हैं?
–दुनिया के सबसे सफल आदमी के पास भी यही 24 घंटे होते हैं और उसी में सब करना पड़ता है। मैं भूख और नींद से लड़ता रहता हूं। रोज सुबह 50 मिनट तक दौड़ता हूं। पांच किलो वजन कम किया हैं मैंने। डेढ़ साल बाद मेरी उम्र पचास हो जाएगी। (हंसते हुए) आपको तब मैं अपने सिक्स पैक एब्स दिखाउंगा। कहावत है कि समय आने पर सब कुछ मिल जाता है लेकिन मेरा कहना है कि आप समय तक तो चलकर पहुंचिए वरना केवल इंतजार ही करते रहेंगे।
-मनुष्यों के साथ जीते, रहते हुए आपने क्या सबक लिया? आदमी जात की प्रवृत्ति के बारे में आपकी क्या राय है?
–इस बारे में मैं कुछ कहने के बजाय आपको तीन शायरों/कवियों की कुछ लाइनें सुनाउंगा। इन्हीं में सब कुछ कह दिया गया है।
सबसे पहले दिनकर जी की कुछ लाइनें…
एक दिन कहने लगा मुझसे गगन का चांद यूं,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है।
उलझने अपनी बनाकर आप ही फंसता,
और फिर बेचैन हो जगता न सोता है।।
निदा फाजली की दो लाइनें हैं-
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिस-जिस को देखना जरा गौर से देखना।
बशीर बद्र कहते हैं-
मुहब्बत, अदावत, वफा, बेवफाई;
किराये के घर थे बदलते रहे।
-आपने ये बातें पद्य और शेर में कहीं। गद्य में इसे व्याख्यायित करना हो तो क्या कहेंगे?
–एक घटना बताता हूं। एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। तब वे पत्रकारिता में नहीं थे। मेरे पास आए, फटी कमीज पहनकर। उन्हें नौकरी दी। उनके पास पैसा नहीं था। उन्हें पंद्रह सौ रुपये दिए, कपड़े बनवाने के लिए। 1988 में इतने पैसे काफी हुआ करते थे। उन्हें बेटा पैदा हुआ तो खून की कमी हो गई। खून दिया हम लोगों ने। नवजात के लिए गरम कपड़े के लिए पैसे नहीं थे। उसके लिए गरम कपड़े दिए। एक समय आया जब वे मेरा भरोसा तोड़कर मुझे छोड़कर चले गए। कह सकते हैं कि वो जहां पर हैं उसके पीछे उनकी काबलियत है। जो आपसे पाता है वो खुद को काबिल मानता है। कपड़ा देना और खून देना मेरी ड्यूटी में शामिल मान लिया जाता है। तकलीफ होती है कि लोग अच्छी चीजों को याद नहीं रखते। लेकिन ये कोई एक वाकया नहीं है। ऐसे सैकड़ों वाकये हैं। हजारों को नौकरियां दीं, सैकड़ों लोगों के काम आया, उनकी मदद की। पर इसे मैं याद नहीं रखना चाहता क्योंकि लोग समय के साथ अलग नजरिए से सोचने लगते हैं। जिंदगी पर कोई गणित नहीं चलती। हावर्ड फास्ट का कथन है- जिंदगी में सबसे इंपार्टेंट जिंदगी ही है।
-आजकल आप क्या पढ़ रहे हैं?
—परमहंस योगानंद की जीवनी एन आटोबायोग्राफी आफ योगी पढ़ रहा हूं। ईरानी औरतों के बारे में शीरीन की एक किताब भी पढ़ता रहता हूं। उतना नहीं पढ़ पाता, जितना पढ़ना चाहता हूं।
-समकालीन राजनीति में आप किस नेता को योग्य मानते हैं, किसी एक का नाम लीजिए?
–ऐसा कोई नहीं है। किसी की स्वीकारोक्ति है तो उसके पास वोट नहीं है और जिनके पास वोट है उनकी स्वीकारोक्ति नहीं। मैं अनाम भारतीय को ही नेता मानता हूं।
-जीवन में सफलता के लिए आप किन सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं?
— कड़ी मेहनत, दूर दृष्ठि, पक्का इरादा और अनुशासन।
-आपको खुद के अंदर क्या बुराई दिखाई पड़ती है।
— मेरा गुस्सा। मैं विश्वास करके जीना चाहता हूं लेकिन जब लोग विश्वास, भरोसा तोड़ते हैं तो गुस्सा आता है। मैं बड़ा झूठ नहीं बोलता। न झूठ सुनना पसंद करता हूं। मैं रोज रात में दिन भर के झूठ गिनता हूं। इससे सच बोलने की ताकत आती है। हम लोग सत्य के संधान के व्यवसाय में हैं इसलिए सत्य परस्त रहना चाहिए।
-पत्रकारिता में आ रही नई पौध के बारे में आपकी क्या राय है?
–अच्छे लोग नहीं आ रहे। बेस्ट युवा पत्रकार नहीं बनना चाह रहे। एमबीए वाले एमजे वाले से ज्यादा सेलरी पा रहे हैं। अखबार वालों और टीवी वालों ने खुद को या तो विदूषक बना लिया है या फिर दरोगा बन बैठे हैं। लोग इनसे प्यार करने की बजाय डरने लगे हैं। एक बार मैं एक जज के पास पहुंचा तो कुछ देर की बातचीत के बाद जज ने हंसते हुए कहा कि कहीं आप लोग मेरा स्टिंग तो नहीं कर रहे। ये जो हम लोगों के बारे में धारणा है वो बहेलियों का समुदाय जैसा होने महसूस कराती है।
-पत्रकार खुद मीडिया बिजनेस में आ रहे हैं। अपना मीडिया हाउस खोल रहे हैं। आप खुद इस तरह का कुछ प्लान कर रहे हैं?
–मैंने इस बारे में सोचा नहीं है। पर मुझे लगता है कि मैं व्यापारी नहीं हो सकता हूं। मुझमें वो गुण नहीं जो किसी बिजनेस हाउस को खड़ा करने वालों में होता है।
-अमर उजाला को लेकर आगे आप की क्या योजनाएं हैं?
–विस्तार की कई योजनाएं हैं पर इसका खुलासा नहीं कर सकता। वैसे, जिंदगी परीकथा नहीं जिसके लिए कहा जाए कि एक समय आएगा जब ये होगा, वो होगा। आज जो आपका सफर है वही मंजिल है। कहते हैं कुछ सवालों के हल, न हुए कभी हल / रखके कांधे पे हल घर से बाहर निकल सो निकल पड़े हैं। चल रहे हैं। अनंत सामने है।
-शशि जी, आपने इतना समय दिया, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
-धन्यवाद, आप लोगों को।
इस इंटरव्यू पर आप अपनी राय शशिशेखर तक सीधे पहुंचाने के लिए उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल करें। आप भड़ास4मीडिया तक अपनी राय [email protected] पर मेल करके पहुंचा सकते हैं।
sagarbandhu
January 26, 2010 at 12:56 pm
shashi jee bada jhoot nahi bolate hai. iska matlab hai ki jhooth bolate hai. chota jhooth bolane ki aadat kisi din bada jaooth bolwa dega. bade pado par baithe logo ko jhooth nahi bolana chahie. kam se kam patrakaro ko. shashijee jis pad par baithe hai. hum jais chote ptrakar unke aachran ka anusaran karate hai. Smmanit logo ko kabhi jhooth bolane ki naubat aa bhi jae to us halat ke bare me bata dena chahie. premchand kahte hai ki yedi jhooth bolane se kisi ki jan bachat hai to use punya mana jata hai. par shashijee ke saath aisi kun si baat hai ki unhe har roj jhooth bolana aur ginana padata hai. ek din jhooth bolne par kai dino tak glani hoti hai. aise shashijee roj jhoot kaise bol lete hai.
shishu sharma
December 4, 2010 at 8:10 am
bahut danayabad yashwant ji,aapnae ek badia aadmi sae mulakat karai.thanks
dilip singh rathod
April 20, 2011 at 2:44 pm
behad khushi hai is baat ki ke aap ne itna lamba safar tai kiya bina kisi godfather ke..mahaz 6 salon se patrakarita mai hun,sochta tha ki godfather ke bina kaise apne mukaam par pahunchunga magarab aisa nahi lagta…mujhe mere mukaam tak pahunchna hai aur wo bhi bina kisi godfather ke….dilip singh
Anuj Kumar
October 31, 2011 at 7:36 pm
Written by Anuj Kumar……. Oct 3, 2011
shahi ji apke likhne ka jo content h ya tarika h, wo hamesh se hi lajawab raha h. aap jo bhi topic lete h use aap aam zindagi se jod dete h jise log aap ki story ko sarahate ha or main hamesha aapke articles padta hu jo Hindustan news paper main jo aata h…….I follow u shahishekhar ji………