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आईएनएस : ‘कोटरी’ ने सबक नहीं लिया (3)

सुनील डांग का लिखा पत्रपरेश नाथ के पत्र के बाद आईएनएस पदाधिकारी रहे सुनील डांग ने सभी सदस्यों को पत्र लिखा, जिसे यहां हू-ब-हू प्रकाशित किया जा रहा है : प्रिय साथियो, लंबे अरसे से आप सबसे बात नहीं हुई, पर आज अपने एक वरिष्ठ सहयोगी श्री परेश नाथ, डिप्टी प्रेसिडेंट, इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की 27 अगस्त, 2009 को लिखी चिट्ठी पाकर रहा नहीं गया। लगा ढेरों ऐसी बातें हैं, जिन पर आप हमेशा चुप्पी साधे नहीं रह सकते। खासकर तब जब संकट केवल आपके अपने अधिकारों पर नहीं, बल्की उस पूरी ‘जमात’ पर हो, जिसके पक्ष में आप कभी लड़े हों, खड़े हों।

सुनील डांग का लिखा पत्र

सुनील डांग का लिखा पत्रपरेश नाथ के पत्र के बाद आईएनएस पदाधिकारी रहे सुनील डांग ने सभी सदस्यों को पत्र लिखा, जिसे यहां हू-ब-हू प्रकाशित किया जा रहा है : प्रिय साथियो, लंबे अरसे से आप सबसे बात नहीं हुई, पर आज अपने एक वरिष्ठ सहयोगी श्री परेश नाथ, डिप्टी प्रेसिडेंट, इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी की 27 अगस्त, 2009 को लिखी चिट्ठी पाकर रहा नहीं गया। लगा ढेरों ऐसी बातें हैं, जिन पर आप हमेशा चुप्पी साधे नहीं रह सकते। खासकर तब जब संकट केवल आपके अपने अधिकारों पर नहीं, बल्की उस पूरी ‘जमात’ पर हो, जिसके पक्ष में आप कभी लड़े हों, खड़े हों।

खुद आप जिसका हिस्सा हों। आप सबको याद होगा 2-3 साल पहले तक आप सबके हितों को लेकर इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी सहित हर फ्रंट पर मैं बड़ी शिद्दत से खड़ा रहता था। चाहे डीएवीपी से जुड़े मसले हों या आरएनआई या राज्य सरकारों व सूचना विभागों की ज्यादतियां। यहां तक कि विज्ञापन एजेंसियों व सरकारी महकमों में आपकी पहचान आदि के मसलों पर, कभी आपके कहे पर, तो कभी खुद से जानकारी होने पर मैंने कभी कोई कोरकसर नहीं छोड़ी। नतीजा यह हुआ कि मैं कई लोगों को चुभने लगा। 2-3 साल पहले जब मैं आईएनएस के फ्रंट पर आप सबके सहयोग से बेहद मजबूत था तभी कुछ लोगों ने, जिनका उद्देश्य मुझे व आप सबको हर हाल मे कमजोर करना था, ने मुझ पर कुछ ऐसे अनर्गल आरोप मढ़े कि मैंने जवाब देने व तर्क करने के बजाय इस्तीफा का रास्ता चुना और यह तय किया कि जब तक ‘समय’ खुद-ब-खुद जवाब न दे दे, तब तक मैं आईएनएस और उससे जुड़ी गतिविधियों में भाग नहीं लूंगा। अब जवाब इन्हें अदालतों से मिल रहे हैं। पर ऐसा नहीं है कि इस दौरान मैंने प्रकाशन इंडस्ट्री के हितों से भी छुट्टी ले ली। मैं जहां भी रहा, चाहे प्रेस काउंसिल आफ इंडिया में, आईएनएस में, भारतीय भाषाई समाचारपत्र संगठन (इलना), पीआरबी या फिर प्रसार भारती में, हर जगह भाषाई, क्षेत्रीय, मध्यम व छोटे प्रकाशनों का ‘हित’ मेरे लिए सबसे ऊपर रहा।

इसीलिए जब आईएनएस पर अपने निजी स्वार्थों के लिए कब्जा जमाई ‘कोटरी’ ने पिछले साल समय पर मेंबरशिप फीस जमा न करने का फर्जी आरोप लगाते हुए मेरे प्रकाशनों की आईएनएस सदस्यता रद्द करनी चाही, तो मैं माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय गया, जहां वकीलों की फौज खड़ी करने के बावजूद उस ‘कोटरी’ को मुंह की खानी पड़ी। पर आईएनएस पर काबिज ‘कोटरी’ को इस हार से सबक नहीं मिला। उसने आपकी और हमारी मेंबरशिप फीस से जमा की गई लाखों रुपए की राशि को अपने ही एक वरिष्ठ साथी की मेंबरशिप खत्म करने के लिए कानूनी दावंपेंचों पर उड़ाना जारी रखा। ‘कोटरी’ ने माननीय उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच में अपील की। वे वहां से भी हार गए। अभी मामला न्यायालय में लंबित है। ऐसे में जब मामला अदालत में विचाराधीन है, तब मेरे मन में यह जिज्ञासा है कि इस ‘कोटरी’ को इतनी हड़बड़ी क्या है, जो वह बार-बार अदालत में हारने के बाद भी अगली आम बैठक में 70 सालों से चले आ रहे नियमों को बदलना चाहती है।

क्या कार्यकारिणी सदस्यों व आपको यह बताया गया कि इस बाबत कानूनी दावंपेंचों में आईएनएस के कितने रुपए बरबाद किए गए। सालाना रिपोर्ट बताती है कि इस बाबत 24 लाख रुपए खर्च किए गए। एक तरफ तो इस साल टाइम से जमा न होने के नाम पर 26 सदस्यों की सदस्यता खत्म कर दी गई और पिछले साल 27 की। दूसरी तरफ लाखों और करोड़ों रुपए निरुद्देश्य मसलों पर उड़ा दिए जा रहे हैं। एक तरफ तो जो आवाज उठा सकते हैं, आपके हक की बात कर सकते हैं, वैसे सदस्यों की सदस्यता खत्म की जा रही है, दूसरी तरफ मेंबरशिप कमेटी के हवाई अप्रूबल के दम पर 164 नए मेंबर बना दिए गए। ‘पुरानों को हटाओ, नयों को लाओ’ की यह रणनीति किसकी और क्यों है? समझना कोई बहुत कठिन नहीं है। ऐसे में मेरे मन में यह शंका उठ रही है कि आईएनएस लोकतांत्रिक बना रहा पाएगा या नहीं? क्या यह केवल मुट्ठीभर लोगों के हाथों का खिलौना बन कर रह जाएगा? आखिर इसमें स्वार्थ किसका है? नियमों में बदलाव पर कितने सदस्यों को, कब पूछा गया?

सुनील डांग का लिखा पत्र

एक और मामला जिस पर मैं आप सबका ध्यान दिलाना चाहूंगा, वह मेरे ‘इलना’ अध्यक्ष रहने के दौरान का है, जब आरएनआई ने 75000 से ऊपर की प्रसार संख्या वाले अखबारों को एबीसी या अपने द्वारा एंपैनल्ड चार्टर्ड एकाउंटेंटों से प्रमाणित सर्टिफिकेट को अनिवार्य कर दिया, तब भी मैं इस मामले को हाईकोर्ट ले गया, जहां आरएनआई के गलत आदेश के खिलाफ हमें स्टे मिल गया। मेरे बाद आए अध्यक्ष श्री परेश नाथ की इस स्टैंड पर कायम रहे कि आरएनआई या तो प्रकाशनों द्वारा दिए गए सीए सर्टिफिकेट को माने या अपने खर्च पर आडिट कराए। पर कुछ सक्षम समूह, जिनमें से कई आईएनएस में भी हैं आपके खिलाफ हैं और इस मसले पर आरएनआई का पक्ष ले रहे हैं। उन्होंने पैसे देकर आरएनआई के एंपैनल्ड आडिटरों से जांच कराने की छूट अदालत से मांगी है, जबकि हमारा मानना है कि यह अखबारों पर आरएनआई का शिकंजा कसने की साजिश है। आज नहीं तो कल 75000 से कम प्रसार संख्या वाले प्रकाशन भी इनकी जद में आ जाएंगे। डीएवीपी के विज्ञापन वैसे ही गायब हैं, तब आप पर आरएनआई का भी शिकंजा होगा। क्या आईएनएस के पास हमारे आपके जैसे प्रकाशनों के हित की कोई ठोस योजना है? आलम यह है कि डीएवीपी के रेट बढ़वाने के मामले में सरकार ने आईएनएस की बजाय 4 बड़े प्रकाशनों के मालिकों की ज्यादा सुनी। जिस आईएनएस की देहरी पर कभी देश के सूचना व प्रसारण मंत्री पहुंच खुद को मीडिया हाउसों का करीबी जताते थे, उन्हीं के मंत्रालयों की कमेटियों में आईएनएस की नुमांइदगी गायब है। इस बार डीएवीपी की पीएसी में आईएनएस कहां है?

मित्रों, कोई भी संगठन अपने सदस्यों से बनता है। सदस्य ही उसकी पहचान और उसकी ताकत होते हैं। ऐसे में अपने ही सदस्यों के खिलाफ, उनकी सदस्यता के खिलाफ, कभी उन्हें मेंबर बनाने, कभी हटाने के नाम पर, प्राक्सी लेने के नाम पर तंग करने का औचित्य समझ से परे है। अपने ही सदस्य प्रकाशनों के खिलाफ चंद लोगों की स्वार्थ पूर्ति के लिए आईएनएस में जो कुछ चल रहा है, उस पर अब आवाज उठाने का वक्त आ गया है। जब तक मामला मेरा अकेले का था, मैं अदालत से इन्हें जवाब देता रहा। पर जब मामला इंडस्ट्री के वजूद पर आ गया, तब मुझसे चुप न रहा गया। साथियों, मैं इस लड़ाई को हार-जीत की भावना से अलग हट कर आप सबकी, लोकतंत्र की आवाज समझ कर लड़ रहा हूं। मेरी गुजारिश है कि आप सब इस बार 24 सितंबर, 2009 को हैदराबाद में हो रही सालाना आम बैठक में जरूर पहुंचे और इस महान संगठन को अपनी जागीर समझने वालों को यह जता दें कि आईएनएस किसी ‘कोटरी’ का नहीं, हमारा, आपका, उन सबका, है, जो प्रकाशक हैं, प्रजातांत्रिक हैं और जो अपने हक की बात करना जानते हैं।

धन्यवाद सहित

सादर

सुनील डांग


इन पत्रों पर आईएनएस के एक सदस्य ने आईएनएस नेतृत्व से सवाल उठाया तो उसे क्या मिला जवाब, जानिए कल।
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