उसी टीकमगढ़ में गत 17 नवंबर को एक पत्रकार जयप्रकाश राय की मां को केवल इसलिए चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई क्योंकि वह पत्रकार हैं। हृदयाघात से पीड़ित जयप्रकाश की मां तड़पती रहीं, जयप्रकाश डॉक्टरों के हाथ जोड़ता रहा, लेकिन डॉक्टरों ने कोई मदद नहीं की। कुछ देर बाद अपना सरकारी फर्ज पूरा करने की नौटंकी शुरू की गई, परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मां का स्थूल शरीर ही शेष बचा था।
‘करेला और नीमचढ़ा’ तो तब हुआ जब हड़बड़ाए डॉक्टरों ने खुद के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की संभावना के चलते खुद की गलती नहीं स्वीकारी बल्कि हड़ताल शुरू कर दी। इस दुखद प्रसंग की शुरुआत 17 नवंबर की शाम से होती है। पत्रकार जयप्रकाश राय को सूचना मिली कि उनकी वृद्ध मां की तबीयत अचानक खराब हो गई है। श्री राय उन्हें लेकर तत्काल जिला चिकित्सालय पहुंचे। जिला चिकित्सालय में मां को भर्ती कर लिया गया परंतु इलाज प्रारंभ नहीं किया गया। इसके पीछे कारण सिर्फ इतना था कि श्री राय एक पत्रकार थे और मध्य प्रदेश के, खासकर टीकमगढ़ के डॉक्टरों को पत्रकार कौम से ही नफरत है। पत्रकार लंबे समय से इस जिले में लापरवाह अधिकारियों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए हैं, शायद इसीलिए आप सभी मध्य प्रदेश के इस छोटे से जिले को जानते हैं। यह पत्रकारिता का ही प्रताप है कि राहुल गांधी तक को पता है कि टीकमगढ़ मध्य प्रदेश का सबसे गरीब व पिछड़ा जिला है। पत्रकारों की यही मुस्तैदी, लापरवाह प्रशासनिक अधिकारियों को अच्छी नहीं लगती और वे लगातार प्रयास करते रहते हैं कि किसी न किसी प्रकार से पत्रकारों को प्रताड़ित किया जा सके।
टीकमगढ़ जिला चिकित्सालय की हालत भी ऐसी ही है। यह भवन हॉस्पिटल कम, बीयर बार ज्यादा हैं। अब जब शराब का दौर चलता है तो जुआ भी हो ही जाता है। सरकार ने बिस्तर उपलब्ध कराए हैं तो शबाब का मजा भी लोग लूट ही लेते हैं। इस हॉस्पिटल के अधिकारियों को सरकारी वेतन के अलावा कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है। जिक्रे खास यह है कि जिले के सबसे बड़े चिकित्सालय में मात्र 5 डॉक्टर पदस्थ हैं। ये सभी वे ही हैं जो मजबूरन यहां टिके हुए हैं। मजबूरी यह कि उन्हें किसी भी निजी नर्सिंग होम में सेवा का मौका ही नहीं मिलता और यदि किसी दूसरे हॉस्पिटल में ट्रांसपर हो गया तो काम करना पड़ेगा।
इस हॉस्पिटल और इसके कर्णधारों की ऐसी कई गाथाएं पत्रकार निर्भीकतापूर्वक छाप चुके हैं अत: पत्रकारों से चिढ़े डॉक्टर शायद ऐसे ही किसी दिन का इंतजार कर रहे थे। तड़पती मां को लेकर आए पत्रकार को देखकर डॉक्टरों की पत्रकारों के खिलाफ मन में भरी पूरी की पूरी नफरत बाहर निकल आई। उन्होंने उचित समय पर इलाज केवल इसलिए मुहैया नहीं कराया क्योंकि वे चाहते थे कि पत्रकार उनके सामने गिड़गिड़ाए, यहां तक गिड़गिड़ाए कि वो कभी भी हॉस्पिटल के खिलाफ कुछ भी न लिखने की कसम खाए। डॉक्टर कुछ ऐसे हालात बनाना चाहते थे ताकि शेष सभी पत्रकारों के सामने एक उदाहरण बन जाए कि डॉक्टरों पर कटाक्ष करना या हॉस्पिटल की बदहाल व्यवस्थाओं को उजागर करने का परिणाम क्या हो सकता है।
इधर मां की हालत लगातार खराब होती चली गई और इससे पहले कि डॉक्टर स्थित नियंत्रण में कर पाते, मां चल बसी। इसके बावजूद पत्रकार ने अपने मुख से एक शब्द भी नहीं कहा, लेकिन उसकी आखों में चेतावनी साफ-साफ दिखाई दे रही थी। डॉक्टर्स समझ चुके थे कि अंतिम संस्कार के बाद उनके खिलाफ ‘उपचार मुहैया न कराने के कारण मृत्यु’ (आईपीसी की धारा 304 ए) का प्रकरण निश्चित रूप से दर्ज होने वाला है। उन्हें मालूम था कि इस मामले में कोई राजीनामा नहीं होगा। माफी मिलने की संभावना तक नहीं है, अत: उन्होंने एक नया षडयंत्र रचा।
डॉक्टरों ने पत्रकार के परिजनों पर मारपीट का अरोप लगा हड़ताल प्रारंभ कर दी। माहौल को गर्माया गया। पूरे संभाग के डॉक्टरों को सूचना दी गई कि मृत्यु हो जाने के कारण मरीज के परिजनों ने ड्यूटी डॉक्टर के साथ मारपीट की। यूनियन को भड़काया गया।
इधर मां की देह को रातभर रखने की व्यवस्था हो रही थी, तो उधर डॉक्टरों का एक गुट प्रशासन पर दबाव बना रहा था कि पत्रकार के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज किया जाए। अंतत: देर रात पुलिस ने प्रकरण भी दर्ज कर लिया लेकिन डॉक्टर्स अब भी संतुष्ट नहीं थे। वे पत्रकार की गिरफ्तारी की मांग को लेकर अड़े रहे। दूसरे दिन 18 नवंबर की सुबह, यहां मां की अंतिम यात्रा की तैयारियां चल रहीं थीं, वहां पत्रकार की गिरफ्तारी की मांग को लेकर हड़ताल। डॉक्टर चाहते थे कि मां को मुखाग्नि देने से पूर्व ही पत्रकार को गिरफ्तार किया जाए। शहर का एक सभ्य नागरिक, जिसके विरुद्ध आज तक एक भी आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं है, की गिरफ्तारी की मांग कुछ इस तरह की जा रही थी मानो यदि तत्काल गिरफ्तारी नहीं हुई तो तबाही आ जाएगी। डॉक्टरों के हिसाब से मां की अत्येष्ठि से ज्यादा जरूरी लग रही थी पत्रकारों की गिरफ्तारी।
अंतत: जिला मुख्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों की सूझबूझ से हड़ताल टूट गई, परंतु एक कड़वा संदेश दे गई कि जनहित में पत्रकारिता करने का नतीजा अंतत: क्या हो सकता है। कहना पड़ेगा, शुक्र भगवान का कि जिला मुख्यालय के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने संवेदनशीलता का परिचय दिया। यदि पूरा का पूरा प्रशासन डॉक्टरों की मानिंद व्यवहार करने लगता तो न जाने क्या कुछ घट जाने वाला था।
देश के कौने में मौजूद आप सभी दमदार पत्रकारों से मेरा केवल एक ही सवाल है- क्या इस कीमत पर भी जनहित में संघर्ष किया जाना चाहिए…? क्या सच को उजागर करने की होड़ और एक दूसरे से समीक्षा करने व खुद को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रतियोगिता के बाद आप लोगों के पास इतना समय है कि भारत के महामहिम राष्ट्रपति के नाम आप एक पत्र लिखें कि इस प्रकरण में दोषी डॉक्टरों के विरुद्ध कार्रवाई हो। शायद आपका यह प्रयास ‘बुन्देलखण्डं’ में मरणासन्न हो गई पत्रकारिता में जान फूंक सके। अचानक प्रशासनिक अधिकारियों से डर गए पत्रकारों को हिम्मत बंधा सके।
लेखक उपदेश अवस्थी हिंदी दैनिक राज एक्सप्रेस, भोपाल में डिप्टी जनरल मैनेजर (अपकंट्री) के पद पर कार्यरत हैं.