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‘कादंबिनी’ के दो-दो संपादक!

मृणाल पांडेय के जमाने में विष्णु नागर ‘कादंबिनी’ छोड़ नई दुनिया गए तो विजय किशोर मानव को इस पत्रिका का संपादक बना दिया गया. यह बात अगस्त महीने 2008 की है. समय का पहिया ऐसा चला कि हिंदुस्तान प्रबंधन ने मृणाल पांडेय के हाथों ‘हिंदुस्तानियों’ की जमकर छंटनी कराने के बाद उनके भी चले जाने की स्थितियां निर्मित कर दी.

<p align="justify">मृणाल पांडेय के जमाने में विष्णु नागर 'कादंबिनी' छोड़ नई दुनिया गए तो विजय किशोर मानव को इस पत्रिका का संपादक बना दिया गया. यह बात अगस्त महीने 2008 की है. समय का पहिया ऐसा चला कि हिंदुस्तान प्रबंधन ने मृणाल पांडेय के हाथों 'हिंदुस्तानियों' की जमकर छंटनी कराने के बाद उनके भी चले जाने की स्थितियां निर्मित कर दी. </p>

मृणाल पांडेय के जमाने में विष्णु नागर ‘कादंबिनी’ छोड़ नई दुनिया गए तो विजय किशोर मानव को इस पत्रिका का संपादक बना दिया गया. यह बात अगस्त महीने 2008 की है. समय का पहिया ऐसा चला कि हिंदुस्तान प्रबंधन ने मृणाल पांडेय के हाथों ‘हिंदुस्तानियों’ की जमकर छंटनी कराने के बाद उनके भी चले जाने की स्थितियां निर्मित कर दी.

उनकी जगह शशि शेखर आए तो धीरे-धीरे अपनी टीम भी लाने लगे और मृणाल पांडेय के खास रहे वरिष्ठ लोगों को किनारे करने लगे. ‘कादंबिनी’ के लिए भी अपना आदमी ले आए शशि शेखर. अमर उजाला के गोविंद सिंह को कार्यकारी संपादक के रूप में हिंदुस्तान ले आए और ‘कादंबिनी’ में बिठा दिया. विजय किशोर मानव पहले से ही कार्यकारी संपादक हैं.

प्रिंटलाइन में कार्यकारी संपादक के रूप में विजय किशोर मानव का ही नाम जाता है. पर कादंबिनी में काम करने वाले लोग अब विजय किशोर मानव को रिपोर्ट नहीं करते. वे गोविंद सिंह को रिपोर्ट करते हैं. गोविंद सिंह के लिए अलग से केबिन बना दी गई है. सूत्रों के मुताबिक अप्रैल आखिर में विजय किशोर मानव 58 वर्ष के हो रहे हैं और उसी समय उनका रिटायरमेंट है. इसीलिए गोविंद सिंह को कादंबिनी का भावी कार्यकारी संपादक बनाकर बिठाया गया है. अप्रैल के अंक में कार्यकारी संपादक के रूप में विजय किशोर मानव का ही नाम छपेगा. मई से जो अंक निकलेगा उसमें कार्यकारी संपादक का नाम गोविंद सिंह का होगा. फिलहाल तो कादंबिनी में एक साथ दो-दो संपादक बैठ रहे हैं.

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0 Comments

  1. swabhimani

    March 30, 2010 at 10:54 am

    shashi ji ka kaam hi doosro ki band bajana hai kitne logo ki unhone amar ujala se chatni karvai abb kuch dino me yahi hall unka na hoo aaj se ajjtak aur ab ht

  2. kubernath

    March 30, 2010 at 4:17 pm

    गोबिंद सिंह को कादंबिनी के संपादक होने पर बधाई। इनके दौरान कादंबिनी नए तेवर और मिजाज में जरुर आएगा। क्योंकि राजेंद्र अवस्थी के बाद अपना वजूद खो चुका कादंबिनी अब एकबार फिर योग्य संपादक के हाथ में है।अब परचम बनेगा कादंबिनी और हम जैसे सुधी पाठक को अपने ओर खींचने में सक्षम होगा।

  3. anil pande

    March 30, 2010 at 6:42 pm

    गोविंद सिंह की हैसियत क्या है?
    ……………………………..

    गोविंद सिंह अपने हर मिलने वाले से बोलते हैं कि कादंबिनी के साथ-साथ हिन्दुस्तान का संपादकीय पेज और फीचर पेज का मैं प्रभारी हूँ.
    सच क्या है?

  4. [email protected]

    March 31, 2010 at 7:05 pm

    govind ji ke nirdeshan mean kadambini jayada bikegi

  5. amit mishra

    April 3, 2010 at 9:50 am

    I’m sure Kadambini will touch new heights in the editorial guidance of Govind Singh Ji. Let the critics outbursts, Govind Singh ji’s simplicity and his smile is enogh to defeat them. Because these line fits on him.

    ‘MUKHALFAT SE MERI SHAKHSIYAT SANWARATI HAI
    MAI APNE DUSHMANON KO BADA EHATRAM KARTA HUN.’

  6. Rinky Bhandari

    October 4, 2010 at 9:35 pm

    क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
    क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
    निरापद नहीं कोई दिशा,प्राकाष्ठा ना बांधो कोई,
    उछाह में भी है विषाद,छ्दम मुख ना साधो कोई।
    वो अम्रित नही गंगाजल नही,विश है उसको बहने दो,
    क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
    वो हाथ जो रक्त्त में सने,परमार्थ कैंसे लिख रहे?
    दिग्भ्रमित कर पीडियो की,भवनो को भग्नावाशिष्ट कर रहे।
    आग्रह नहीं वह स्वांग है,ना सुनो उसे बस कहने दो,
    क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।
    हर दिये की लौ पर यहां आशियाना एक जला,
    अनुकम्पा ना कोई जगी,और धष्ट मन प्रसन्न हुआ।
    मर्म्भेदी घाव अहेतुक नहीं,ये खुद के बोए बीज हैं ,
    यूथ्भ्रष्ट को कोइ सुख नही,जान कर भी करील को,
    ना मशाल से ना जलाया कभी,तो ये घाव स्वंय मेरे ही हैं,
    मुझको ही इन्हे सहने दो।
    क्यूँ है और क्यूँ नहीं यह प्रशन अब रहने दो।

  7. rinkly bhandari

    October 12, 2010 at 6:37 pm

    निस्ठुर पुत्र
    आज मेरी रुह लज्जा से जर जर हुई ,
    नीरव है वो बस अश्क है बहा रही।
    घर से एक माँ आज है बेघर हुई,
    अपने ही पुत्रों कि वो यातनाएँ झेल रही।
    कल तक थी जो सागर वितत आज है पोखर हुई,
    मुकुलित जिस पुष्प को प्यार माँ ने था दिया,
    आज खिलकर पुष्प ने उसको ही है छ्ला,
    दावानल भी ना भस्म कर सके जिसको।
    आज देह पुत्र की इस कदर पत्थर हुई,
    थी जो कभी अमूल्य मुकुताफ़ल माँ उसके लिये,
    आज वो घर की देवी, मरकत से है कंकर हुई,
    इतना स्वार्थ, इतना उम्माद?किसको तू छ्ल रहा?
    भोर जो सुन्दर है तेरी तभी तू ये भूल रहा,
    हर सुबह की रैन है,आने मे उसे कब देर हुई

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