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साहित्य

सीधा प्रसारण

क्षमा शर्मा लिखित कहानी ‘सीधा प्रसारण’ मीडिया पर केंद्रित है. इसका प्रकाशन वर्ष 1997 में जनसत्ता के साहित्य विशेषांक ‘सबरंग’ में हो चुका है. लंबा अरसा बीत चुका है. एक बार फिर पढ़ने की जरूरत है इस कहानी को. खासकर नई पीढ़ी को बहुत कुछ समझ में आएगा इस कहानी को पढ़कर. -एडिटर

डा. क्षमा शर्मा

क्षमा शर्मा लिखित कहानी ‘सीधा प्रसारण’ मीडिया पर केंद्रित है. इसका प्रकाशन वर्ष 1997 में जनसत्ता के साहित्य विशेषांक ‘सबरंग’ में हो चुका है. लंबा अरसा बीत चुका है. एक बार फिर पढ़ने की जरूरत है इस कहानी को. खासकर नई पीढ़ी को बहुत कुछ समझ में आएगा इस कहानी को पढ़कर. -एडिटर


सीधा प्रसारण

-क्षमा शर्मा-

खाड़ी युद्ध के बाद यह पहला मौका था जब एक अंतरराष्ट्रीय टेलीविजन कंपनी ने अन्य दुनिया की बड़ी कंपनियों को पीछे छोड़ बाजी जीत ली थी। लोकतांत्रिक भारत सरकार से इजाजत लेकर कंपनी ने दिखा दिया था कि वह सचमुच किसी प्रेशर टैक्टिक्स में यकीन नहीं करती, बल्कि खुद लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहक है। वह किसी देश की आस्थाओं और विश्वासों पर चोट कर कोई नई मुसीबत नहीं मोल लेना चाहती। वह तो सिर्फ सूचना दे रही है। सूचना के निहितार्थ लोग खुद निकालें। अच्छा-बुरा वे खुद तय करें।

जब सरकार को बार-बार लानतें भेजी गईं और प्रच्छन्न रूप से ये आरोप भी लगाए गए कि सरकार के एक बड़े नुमाइंदे ने उक्त कंपनी से कमीशन के रूप में करोड़ों डकारे हैं तो सरकारी प्रवक्ता ने कहा, “एक तरफ हम पर सेंसरशिप लगाने का आरोप लगाया जाता है। सरकार को प्रेस और सूचना माध्यमों का नंबर एक दुश्मन घोषित किया जाता है और दूसरी ओर, जब सरकार ने सभी तरह की पाबंदियां हटा ली हैं तो भी भला-बुरा कहा जा रहा है। हम किसी भी प्रकार की सूचना पर कोई पाबंदी नहीं लगाना चाहते है। हां ये लोगों पर निर्भर है कि वे कौन-सी सूचना पसंद करते हैं, कौन-सी नहीं। हमें लोगों की समझदारी पर पूरा भरोसा है। बाबा तुलसीदास पुराने जमाने में कह गए हैं कि भय बिन होय न प्रीत। इस तरह सरेआम फांसी दिए जाते देख अपराधियों के मन में भी डर बैठेगा और अपराधों में कमी आएगी।”

सरकार की कृपापात्र कंपनी ने चौराहे-चौराहे होर्डिंग लगवाकर, अखबारों, दूरदर्शन के कई चैनलों, आकाशवाणी पर बड़े-बड़े विज्ञापन देकर अपनी स्पर्धी कंपनियों को जवाब दिया था। कहा गया था कि चूंकि गत वर्षों में इस कंपनी का टर्न ओवर लगातार बढ़ा है, इसलिए उसकी विरोधी कंपनियां इकट्ठी होकर उस पर हमले कर रही हैं। जबकि कंपनी का टर्न ओवर बढ़ने का कारण उसकी किसी प्रकार की बेईमानी नहीं, बल्कि उसकी कुशल प्रबंधन क्षमता, अपने मुनाफे को दोबारा मुनाफे में बदलने की काबिलियत और दक्ष कर्मचारियों का प्रदर्शन है। हमारी वन अपमैनशिप तो खाड़ी युद्ध के दौरान ही जगजाहिर हो चुकी है। हम चाहे जो हों वो नहीं है, जैसा कि हमारी विरोधी कंपनियां हमें चित्रित कर रही हैं। इसके बाद कंपनी सींग मारने को आतुर एक भारी-भरकम काले सांड को दिखाती थी जो सींग मारने दौड़ता था, फिर स्क्रीन की तरफ मुंह करके नथुने फुलाता था और अचानक हंसने लगता था। हंसते ही उसके मुंह से बहुत-से गुलाब नीचे गिरकर ढेर लगा देते थे।

“कितना क्रूड विज्ञापन है।” एक छात्रा ने कहा था।

“तुमने देखा नहीं, कंपनी ने एक झटके में अपने इस कार्यक्रम में सांड और गुलाब को दिखा पर्यावरण प्रेमियों को भी अपने साथ जोड़ लिया है।”

दूसरी छात्रा बोली, “वह कैसे? कंपनी जो करने जा रही है उससे पर्यावरण का क्या संबंध?”

“यही की कार्बन डाइआक्साइड से लेकर आक्सीजन, दूध से लेकर सिंथेटिक दूध, मसालों से लेकर हरी सब्जियों, दालों, पानी, टूथपेस्ट और मनुष्य-सबमें हम शुद्धता देखना चाहते हैं। हमारा मन शुद्ध होगा, किसी के लिए दुर्भावना नहीं रखेंगे। सभी लोग ऐसा करने लगेंगे तो कोई किसी का बुरा नहीं सोचेगा। सारी मार-काट खत्म हो जाएगी। लोग मिलावट करना, चोरी करना, चुगली करना, पर निंदा में रस लेना सब भूल जाएंगे। जब बुरे विचार नहीं रहेंगे तो बुरे काम तो अपने-आप खत्म हो जाएंगे। जब मनुष्य, मनुष्य को नहीं मारेगा तो पेड़ काटने की बात तो भला वह सोचेगा भी कैसे?”

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“अच्छा! तो कंपनी द्वारा प्रसारित इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य पर्यावरण को शुद्ध करना है!”

“चाहो तो यही समझ लो।”

आज महीने का दूसरा शनिवार किसी अन्य शनिवार की तरह ही था, सिवाय इसके कि सड़कों पर कुछ-कुछ कर्फ्यू जैसी हालत थी। मदर डेयरी वाला बूथ पर बैठा मक्खियां मार रहा था। दूर-दूर तक कोई आदमी दिखाई नहीं देता। बस चिड़ियों की चहचहाट थी। एक बच्चे के रोने की, कुत्ते के भौंकने की आवाज सुनाई देती थी। गरमी की सुबह के छह बजे थे और लोगों की रसोइयों से कुकर की सीटियों की आवाजें ऐसे आ रही थीं कि लंच का वक्त कब का बीत गया हो और वे भूख से बिलबिलाकर जल्दी खाना खा लेना चाहते हों।

बात असल में यह थी कि आज तीन अपराधियों को फांसी लगने वाली थी। अपराधियों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था। कई अखबारों में उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू भी छपे थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने अपराध किया ही नहीं। उन्हें तो जान-बूझकर फंसाया गया है। बच्चों की हत्या में कुछ ऐसे लोगों का हाथ है जिनके हाथ बहुत लंबे हैं। उन्हें तो पकड़ा नहीं गया, उन्हें पकड़ लिया गया, जिन्होंने अपराध किया ही नहीं था।

एक अपराधी जिसकी खिचड़ी दाढ़ी थी, जो कपड़ों के नाम पर सिर्फ एक लुंगी पहने था, उसका इंटरव्यू कुछ अधिक लंबा था। बीस साल की संवाददाता ने उससे पूछा था, “तुम कहां के हो?”

“बिहार का।”

“यहां कब आए?”

“पांच साल पहले।”

“क्या करते थे?”

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“रिक्शा चलाता था।”

“क्या तुमने उन बच्चों को मारा?”

“पता नहीं।”

“क्या कोर्ट में भी तुम ऐसे ही बोले थे।”

“पता नहीं।”

“तुम्हारी बीवी-बच्चे हैं?”

यह सुनकर वह जमीन पर उकड़ूं बैठ गया और फफक-फफककर रोने लगा। जब महिला संवाददाता ने अपना प्रश्न दोहराया तो उसने कहा, “याद नहीं।”

अपराधियों के इन भावुक इंटरव्यू को पढ़कर बहुत-से लोग ऐसे थे जिन्हें दु:ख भी हुआ था। फांसी के औचित्य-अनौचित्य पर बहस भी चलाई गई थी। एक बारगी ऐसा लगा भी था कि राष्ट्रपति शायद अपराधियों को क्षमादान दे दें। तब बहुत-से माता-पिताओं ने बयान दिए थे कि अपराधियों के अधिकारों के लिए तो लोग आंसू बहा रहे हैं, लेकिन उन बच्चों का क्या जिन्हें खिलने से पहले ही डाल से नोच फेंका गया! और याद कीजिए उन दिनों को जब इन अपराधियों के डर से लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल तक भेजना बंद कर दिया था। कइयों का कहना था कि दरअसल यह बहस उसी कंपनी ने इंस्टीगेट की है जिसने फांसी के सीधे प्रसारण के अधिकार खरीदे हैं, जिससे कि ज्यादा से ज्यादा लोग उसके प्रसारण को देखें।

इन बातों के जवाब में कंपनी के अधिकारियों ने एक बयान में कहा था कि दरअसल वे इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते कि क्या सही है, क्या गलत? वे तो वही दिखा रहे हैं जो हो रहा है…

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प्रसारण ठीक छह बजे से शुरू होने वाला था। कई अखबारों ने संपादकीय में इस बात की निंदा की थी कि फांसी को लाइव दिखाया जा रहा है। ठीक है कि वे अपराधी हैं लेकिन जान के बदले जान लेना है तो बर्बर समाज का नियम ही। एक कंपनी ने फांसी को फांसीघर से निकालकर सीधे हमारे घरों में पहुंचा दिया है और हमें कुछ नहीं हो रहा। हममें और उन देशों में क्या फर्क रह गया जहां लोग खाने की मेजों पर बैठकर दूरदर्शन पर लोगों का सिर धड़ से अलग होता हुआ देखते हैं। दु:ख की बात यह भी है कि एक तरफ फांसी दी जा रही है, दूसरी तरफ उसी फांसी को दिखाने वाली कंपनी करोड़ों बटोर रही है। कोई वजह नहीं कि कल महामारियों को फैलाने, उनसे मरते लोगों के बयान लेने और फिर उन्हें सीधे प्रसारित करने के अधिकार भी ऐसी कंपनियां खरीद लें। जैविक हथियारों के भंडारों से पैसे बनाने के तरीके भी आज नहीं तो कल बहुराष्ट्रीय निगम खोज ही लेंगे।
जब टेलीविजन की घड़ीं ने पिप-पिप की और एनाउंसर महोदया नमूदार हुईं तो लोगों की सांस रुक गई, “इस विशेष सभा में हम अपने दर्शकों का स्वागत करते हैं। कुछ ही देर में ब्रेक के बाद हम आपको वहां ले चलेंगे. जिस कार्यक्रम की आपको प्रतीक्षा है।”

एनाउंसर का चेहरा गायब होने के बाद एक मोटी, हर शब्द को साफ बोलती आवाज गूंजी। इस कार्यक्रम के प्रायोजक हैं-मिलटन टाफी, नाना काफी और लच्छेदार पेय। टाफी का बच्चा हाऊ हप्प हप्प कर रहा था, काफी के सिप पर लोग ठहाके लगा रहे थे और पेय की बोतल को विजेताओं के अंगूठों की तरह दिखा रहे थे।

प्राइम टाइम के लिए विज्ञापनदाताओं में होड़ लगी है। अपराधी किस कंपनी के कुर्ता-पाजामा पहनेगा। कौन-सी कंपनी का दही खाएगा? किस प्रेस से छपी रामचरितमानस पढ़ेगा। कौन-सी कंपनी का बना कनटोप पहनेगा। कंपनियां दूरदर्शन पर दबाव डाल रही हैं कि वह अपनी प्रसारण-नीति में परिवर्तन करे। दस प्रतिशत विज्ञापन-समय को बढ़ाकर तीस प्रतिशत कर दिया जाना चाहिए। इस एक कार्यक्रम से ही दूरदर्शन और कंपनी का भारी आय होने की संभावना है।

बच्चे इस पूरे कार्यक्रम को ध्यान से देख रहे हैं। अगले हफ्ते उनका क्विज होने वाला है। हो सकता है उसमें इस कार्यक्रम के बारे में सवाल पूछे जाएं। कितने अपराधी थे? कितने बच्चों को मारा? अपराधियों ने इंटरव्यू में क्या कहा? प्रसारण कितने घंटे चला? किस कंपनी ने इसे प्रायोजित किया था? कितने विज्ञापन दिखाए गए? सबसे ज्यादा विज्ञापन किसके थे? फांसी देने में कितना समय लगता है?

उधर स्टूडियो में कैमरामैन, एडीटर, निदेशक सबमें बहस चल रही है-कैमरा कितने वक्त कहां रहना है? कितने वक्त फंदे पर? कितने वक्त कैदियों पर? कितने वक्त जल्लाद पर? कितने वक्त फांसी का आदेश देने वाले जेलर की उंगली पर…काल कोठरी पर…अन्य कैदियों के रिएक्शंस पर…

इस प्रसारण के लिए ऐसे कैमरामैनों को बुलाया गया है। आखिर दूरदर्शन की इज्जत का सवाल है।

विज्ञापनों के एक से एक गर्वीले चेहरे…फलां जूता…घप्प आंखों से टपकता अहंकार…स्क्रीन पर फैली आंखें दुनिया को मक्खी-मच्छर की नजर से देखती थीं। नारंगी पेपो पर झपटते नारंगी लौह हाथ…पल में खाली होती बोतल…फ्रिज में भरी बोतलें…रोबोट्स के पेटू, लालची, झूठ और फरेब का प्रमाण देती थीं। चमकीले स्याही के बाल झंडे की तरह लहराते थे…अब देशों को झंडों की जगह बालों को ही लटका लेना पड़ेगा…रंगों की बारिश हो रही है…तीन प्राइम रंग पचासों रंगों में बदलकर कैसा चमत्कार दिखाते हैं कि मौत भी इंद्रधनुषी दिखाई देने लगती है!

विज्ञापन को देखकर एक लड़के ने कहा था, “कंपनी ने शायद अपने विज्ञापनदाताओं से कहा होगा-तुम हमें विज्ञापन दो, हम तुम्हें फांसी देंगे।”

अचानक सारे रंग गायब हो गए, कोई जादूगर सारे रंगों को अपनी पोटली में समेट एकाएक यह जा, वह जा…कार्यक्रम की शुरुआत हो रही थी। प्रसारण करने वाली कंपनी की तरफ से दर्शकों के लिए संदेश लिखा आता था-इस विशेष सभा में हम अपने 50 करोड़ दर्शकों का स्वागत करते हैं।

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उधर कैमरा सीधे कालकोठरी में जा पहुंचा। वहां दिखती है-सफेद नए कपड़े पहने एक कैदी की पीठ। वह कुछ खा रहा है। ‘कुछ’ नहीं, दही खा रहा है। तभी पोथी-पत्रा लिए पंडित आता है। वह श्लोक पढ़ रहा है। अचानक कैदी मुड़ता है और उसकी भावहीन आंखें कुछ अधिक फैली दिखाई देती हैं।

“अंतिम इच्छा?”

अंतिम इच्छा…जीवन…जीवन की…

क्या वह पूरी हो सकती है? जैसे कैदी ने कहा। लेकिन क्या सचमुच कहा…किसी ने सुना या नहीं, सुना भी तो कहा गया था क्या? कैदी का इंटरव्यू? कमरे में सन्नाटा…सब आंखें फाड़े देख रहे हैं।

कैमरा दौड़ न लगाता उन बच्चों के माता-पिता के पास पहुंच गया है, जिन्हें इस आदमी ने मार दिया था।

रिपोर्टर एक बच्चे के पिता से पूछता है, “कैसा लग रहा है?”

पिता तत्काल जवाब नहीं देता। उसके पीछे फोन बजता है। उसके नथुने फड़कते हैं, “कैसा लगेगा? मेरे बच्चों को इस आदमी ने निर्दयता से मारा। क्या कुसूर था उनका? उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा था?”

“क्या आप फांसी के इस तरह के प्रसारण से खुश हैं?”

“खुशी या दु:ख की कोई बात ही नहीं है। लोग देखेंगे। कम से कम इस तरह मासूमों को तो नहीं…” पिता की आवाज रुंध जाती है। बच्चों की मां हथेलियों में अपना चेहरा छिपा लेती है। छोटे से घर की दीवारें उदास हो रोने लगती हैं।

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फिर कैमरा उस मां के पास पहुंचता है, जिसके सबसे छोटे बेटे को फांसी दी जा रही है…वह कुछ नहीं बोलती, सिर्फ आसमान की तरफ हाथ उठा-उठाकर चुप रह जाती है।

“यह पैदा हुआ था तो जरा-सा मैं पास से हटी नहीं कि…”

टी.वी. देखती एक औरत रोने लगती है। बच्चे पूछतें हैं तो कहती है, “आखिर है तो वह उसका बेटा ही। एक मां के लिए तो बच्चा बच्चा ही होता है। लेकिन क्या इसने मारा होगा? गांधी के अहिंसा के देश में इतनी हिंसा!”

दूसरी औरत कहती है, “जिनको इसने मार दिया वे भी तो किसी के बच्चे ही थे।”

“हां वे बेचारे भी रो रहे हैं।” पहली औरत कहती है।

“तीन जीवन बेकार में नष्ट हुए।”

“यहां तो उन बच्चों के माता-पिता रो रहे हैं। हमने सुना है कि अमेरीका में एक हत्यारे की फांसी की सजा देखने के लिए उस व्यक्ति के माता-पिता आए थे, जिसकी हत्या कर दी गई थी। वे खूब खुश हो रहे थे।”

“इसका मतलब…अमेरीका और सऊदी अरब में भला क्या अंतर है?”

“कुछ नहीं। यह कंपनी जो फांसी का सीधा प्रसारण कर रही है, वह भी तो अमेरीकी है।”

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“लेकिन एक बात बताओ, आखिर इसमें अनहोनी क्या हो गई? फिल्मों और सीरियलों में भी तो हम फांसी लगते देखते हैं।”

“हां, लेकिन हमें पता होता है कि यह सब ड्रामा है। सचमुच में कोई किसी की जान नहीं ले रहा। यहां हम कोई ड्रामा नहीं देख रहे। वास्तव में किसी की जान जा रही है।”

“जान जा रही है तो ऐसी क्या बात है! उसने भी किसी की जान ली है। और इस देश में जान की कीमत ही क्या है? रोड एक्सीडेंट्स में हर साल कितने लोग मरते हैं, कुछ खबर है।”

“लेकिन मुद्दा यह नहीं है, मुद्दा तो यह है कि फांसी के सीधे प्रसारण में पैसे की कमाई…”

“जब कोई पैसे लगाएगा तो पैसा कमाएगा भी।”

“तुम्हें याद होगा कि इसी कंपनी की एक बहन ने खाड़ी युद्ध का सीधा प्रसारण किया था। लोग हथियारों की मारक क्षमता और एक्यूरेसी से दंग रह गए थे। उस जादू में वे भूल गए थे कि पश्चिम ने एक एशियाई देश को तहस-नहस करके आने वाले सौ सालों के लिए अपने हथियारों का परीक्षण कर लिया। युद्ध बिना तो हथियार का महत्व पता नहीं चल सकता। इस फांसी का प्रसारण भी ऐसा ही है कि देख लें, लोगों की संवेदनाएं कहां तक जाती हैं। वे कितना, किस हद तक रिएक्ट करते हैं। मौत में आनंद मनाना खुद की मौत को निमंत्रित करना है।”

“चुप्प!” रोती हुई महिला, जो अब तक चुप हो गई थी, दहाड़ी, “न कुछ सुनने देते हैं, न देखने।”

बहस करते लड़के चुप हो गए।

“यार! इस वक्त भी इसे खाने की पड़ी है। कैसे गपागप दही खा रहा है।”

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“अगले जन्म का कोई चक्कर होगा।”

“इस जन्म में बड़ा अच्छा काम किया जो अगले में करेगा।”

“यही तो बात है! इस जन्म में बुरा किया है तो अगले में जरूर अच्छा करेगा, यही तो समझा जाता है।”

“तो फिर जो इस जन्म में जो इसकी जान ले रहे हैं, यह अगले जन्म में उनकी लेगा!”

“फिर शुरू हो गए, चुप नहीं रह सकते थोड़ी देर।”

विज्ञापन शुरू हो जाते हैं, “यू नो द रीअल टेस्ट” विज्ञापन में कमर मटकाता लड़का पूछता है?

कि सामने बैठे लड़के लगभग चीखते हैं, “यस, वी नो द रीअल टेस्ट नाउ गेट लॉस्ट।” लेकिन स्क्रीन के लड़के पर जैसे इनकी डांट का असर नहीं होता। वह फिर मुसकुराता है और छालांग लगाकर हवा में गायब हो जाता है।

कैमरा बार-बार फांसीघर में लटके रस्सी के फंदे को दिखा रहा है कि अचानक उन तीन बच्चों के चित्रों से स्क्रीन भर उठती है, जिन्हें मारा गया था।

बड़ी आंखें, हलका-सा खुला मुंह, संसार को देखकर जैसे चकित हैं। काजल के दिठोने! ऐसे चित्रों को देखकर ऐसा क्यों लगता है कि ये बच्चे अभी-अभी टी.वी. स्क्रीन से निकलकर अपनी-अपनी मांओं की गोद में जा छिपेंगे।

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इनको मारने से समाज में किस शोषण का अंत हो गया?

अपराधी कहते हैं, हमने नहीं मारा…बच्चों के माता-पिता कहते हैं-उन्हीं ने मारा…अपराधियों की मांएं…उनका दिल न धड़कता होगा कि काश कोई चमत्कार होता, कोई घटना हो जाती, जेल में बम गिर जाता…राजा-महाराजाओं के जन्मदिन पर जैसे आम माफी दी जाती थी, वैसे ही कोई नियम कायदा-कानून होता? लेकिन कुछ नहीं होगा…एक अपराधी की मां…हत्यारे की मां…उसने हजार बार कह दिया हो कि उसका उससे कोई संबंध नहीं, फिर भी बेटे के लिए तो दिल तो धड़कता ही है।
अड़ोसी-पड़ोसियों की नजर में बेटे के अपराधी साबित होने से बहुत-बहुत पहले वह अपराधिनी साबित हो गई थी। अब भी वह समझ नहीं पाती कि क्या सचमुच उसके बेटे ने उन मासूम बच्चों की जान ली होगी? क्यों उसने ऐसा किया होगा…
लोग परेशान हैं, कैमरा बार-बार इधर-उधर टप्पे खा रहा है।

पान की दुकान पर खड़ा लड़का कह रहा है, “इनसे अच्छा तो अफगानिस्तान है। न किसी जेल की जरूरत, न जल्लाद की। बस, पकड़ो और लैंपपोस्ट पर लटका दो। जो देखना चाहे देख ले, नहीं तो जय गंगा की।”

“पर यह कौन-सा न्याय का तरीका है कि न कोई मुकदमा, न पैरवी। बस, संयुक्त राष्ट्र मिशन से पकड़ा और लटका दिया।” दूसरा कहता है।

“हम कोई इसकी अच्छाई आ बुराई पर बहस नहीं कर रहे हैं। न ही हम यह कह रहे हैं कि यह बहुत अच्छा हुआ। मैं तो यह कह रहा हूं कि यह जो टी.वी. का अरेंजमेंट है, हाय-हूय है, क्या फायदा? जान के बदले जान कैसे भी ली जा सकती है। यहां तो जान के बदले पैसे कमाए जा रहे हैं!” पहले वाला लड़का कहता है।

“जान के बदले पैसे कमाता कौन नहीं है? जो दवाइयां तुम खाते हो, उनको विकसित करने में कितनी जानें जाती हैं। उनसे कितना पैसा कंपनियां कमाती हैं?”

दूसरा कहता है तो पहले वाला पान थूक देता है, “छोड़ो, छोड़ो यह तमाशा खत्म कब होगा?”

सत्ता तो लोगों का विश्वास पैदा करने के लिए अपनी ताकत दिखा रही है और स्पांसर्स एनकैश करने के लिए! उनके विज्ञापन की भाषा भी फांसी से जुड़ गई है!

शहरों की जिन सड़कों पर कर्फ्यू-सा लग गया था, उन पर मानो पूरी जनसंख्या टूट पड़ी है।

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इमारतें हैरान हैं। पेड़ परेशान। न जाने क्या बात है? पता नहीं क्या हो गया! भूकंप तो आया नहीं कि सारे के सारे लोग बाहर निकल आए। हुआ क्या है?

बिजली चली गई है टी.वी. सेंटर की। लोगों के घरों की।

एन.टी.पी.सी. ने बकाया न भरने के कारण डेसू की बिजली काट दी है। अब जितना चाहो, देख लो फांसी को। लोगों के हाथ में रस्सियां हैं। वे बिजली कर्मियों को ढूंढ़ रहे हैं। लैंपपोस्ट के बहुत-से सिरे हवा में उड़े जा रहे हैं।

ठीक उस वक्त बिजली गई है जब फंदा गले में डाला जा चुका था। जेलर की उंगली उठने वाली थी, लीवर खिंचने वाला था, जरूर इसमें कोई साजिश है। कहीं जिसे फांसी दी जा रही थी वह दाऊद इब्राहीम का आदमी तो नहीं था! उसे निकालने के लिए उन्होंने जेल और डेसू दफ्तरों में बम ब्लास्ट कर दिया हो।

बिजली कर्मचारियों का कहीं पता नहीं है। लोग हाथों में रस्सी लिए उनका इंतजार कर रहे हैं।

डा. क्षमा शर्मा

डा. क्षमा शर्मा

अक्तूबर 1955 में जन्मीं डा. क्षमा शर्मा ने काफी कुछ लिखा है. उनके लेखन व साहित्य यात्रा पर कई विश्वविद्यालयों में शोध हो चुका है और हो रहा है. उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. कई संस्थाओं, अकादमियों द्वारा पुरस्कृत हो चुकीं क्षमा शर्मा वर्तमान में हिंदुस्तान टाइम्स की बाल पत्रिका ‘नंदन’ में कार्यकारी संपादक के रूप में कार्यरत हैं. डा. क्षमा द्वारा लिखित आठ कहानी संग्रह हैं- काला कानून, कस्बे की लड़की, घर-घर तथा अन्य कहानियां, थैंक्यू सद्दाम हुसैन, लव स्टोरीज, इक्कीसवीं सदी का लड़का, नेम प्लेट और रास्ता छोड़ो डार्लिंग. उनके चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं- दूसरा पाठ, परछाई अन्नपूर्णा, शस्य का पता और मोबाइल. स्त्री विषयक चार किताबें आ चुकी हैं. ‘स्त्री का समय’ नामक किताब के चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं. इस किताब के लिए डा. क्षमा शर्मा को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार के अंतर्गत प्रथम लेखिका का पुरस्कार मिल चुका है. स्त्री विषयक अन्य किताबें हैं- स्त्रीत्ववादी विमर्शः समाज और साहित्य, औरतें और आवाजें, बंद गलियों के विरुद्ध-  महिला पत्रकारिता की यात्रा (मृणाल पांडेय का साथ सह संपादन) और बाजार ने पहनाया बारबी को बुर्का. ‘व्यावसायिक पत्रकारिता का कथा-साहित्य के विकास में योगदान’ नामक किताब पत्रकारिता पर केंद्रित है. इसकी लेखिका क्षमा शर्मा ही हैं. वे 13 बाल उपन्यास और 12 बाल कहानी संग्रह भी लिख चुकी हैं. बच्चों के लिए बीस वर्ल्ड क्लासिक्स का रूपांतरण किया है.
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0 Comments

  1. यशवंत

    August 2, 2010 at 5:53 pm

    आज पढ़ पाया कहानी. क्या कहूं. सच क्या है, अब तक सुलझा नहीं है रहस्य. अपनी अपनी अवधारणाएं हैं और इसी में हम सब मरे जा रहे हैं. पर पढ़कर लगा कि किसी को भी किसी को मारने का हक नहीं है. वो चाहे सत्ता हो या सत्ता विहीन अपराधी या आंदोलन.
    आपका आभार क्षमा जी.

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