हो सकता है कि पायल की बात सच हो। और अगर ऐसा है तो, कहने की जरूरत नहीं कि उनके साथ हुआ हादसा बेहद शर्मनाक है। लेकिन इतना भी शर्मनाक नहीं कि पूरी पत्रकारिता के चेहरे पर कालिख पोत कर उसे सरेआम चौराहे पर दिनदहाडे़ सिर पर चौराहा बनाकर महीनों तक घुमाते रहा जाए। जरा सोचिये कि क्या इसके पहले इस पेशे से जुड़ी महिलाओं के साथ ऐसा नहीं होता रहा है। हमेशा ही हुआ है और उतना ही हुआ है जितना हमारे समाज ही नहीं, बल्कि उसके किसी भी अंग से जुड़ी महिलाओं के साथ। और तो और, जो महिलाएं केवल घर तक पर ही सिमट कर रह जाती हैं, उनमें से कुछ के साथ भी तो यही सब होता रहता है।
मेरा मानना है कि समाजशास्त्र का एक सिद्धान्त सुनकर ज्यादातर लोग इस तथ्य को आसानी से समझ लेंगे कि संयुक्त परिवार में सर्वाधिक शोषण दो लोगों का होता है। एक तो वह जो कमाउ पूत है और दूसरा वह जो परिवार के सबसे नाकारा व्यक्ति की पत्नी होती है। एक तो आर्थिक रूप से अपना शोषण कराने पर मजबूर होता है और दूसरी को अपने नाकारा पति के चलते पूरे परिवार की ताड़ना का दंश जीवन भर भोगना पड़ता है। जाहिर है कि घर के कामधाम में उसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारियां भी तय कर दी जाती हैं। यानी यहां भी पुरुष के मुकाबले महिलाओं पर प्रताड़ना ज्यादा है। लेकिन आज भी हम संयुक्त परिवारों का गुणगान करते नहीं थकते। उसकी ठोस वजहें भी हैं।
ऐसी हालत में किसी एक घटना को पूरी पत्रकारिता का चरित्र करार दे देना कितना बडा अन्याय है— उन लोगों के लिए भी जिन्होंने अपनी आधी से ज्यादा, या पूरी की पूरी जिन्दगी इस पेशे को समर्पित कर दी। और उन युवतियों के लिए भी जो इस पेशे में अपना भविष्य तलाशने में जुटी हैं। वे तो ऐसी एकाध घटनाओं को इतना ज्यादा तूल पकड़ता देख हौसला ही खो बैठेंगी। तो क्या पायल की घटना का खामियाजा पत्रकारिता की इन नयी पौधनुमा लड़कियों के सपनों को तोड़ने का औजार बना दिया जाए या फिर पूरी जिन्दगी इसी में खपा चुके लोगों में हताशा का भाव गाड़ा जाए। मैं आस्तिक नहीं हूं, लेकिन मेरा मानना है कि हर शख्स का जन्म एक खास मकसद के लिए होता है। हम भी पत्रकारिता के लिए ही बने हैं। तो उसे साफ रखना, झाड़ना-पोछना और छानते रहना भी हमारा ही दायित्व है। लेकिन खुद के आकंठ गंदगी में डूबे होने का ढिंढोरा पीटते रहने से तो आत्म-समीक्षा और सुधार नहीं ही होगा। हां, इतना जरूर होगा कि समाज के दूसरे तबके में हम अपना सम्मान जरूर रौंदवा डालेंगे।
भडुआ। कितना गंदा शब्द है यह। खासकर इस मसले पर एक पत्रकार के मुंह से यह शब्द बेहद घिनौना दिखायी पड़ता है। इस शब्द को ऐसी घटना को लेकर महज अपनी पीठ थपथपाने का माध्यम बनाने के लिए प्रयोग करने के अलावा इसका मकसद और क्या हो सकता है। लेकिन काश लोग समझ पाते कि महज उनके क्षुद्र स्वार्थों के चलते निकले ऐसे घटिया शब्द दूसरों की भावनाओं पर कितने भारी पड़ सकते हैं।
पायल ने जिस संस्थान में ऐसी हरकत का जिक्र किया है क्या वहां यही सब होता है? क्या वहां का हर शख्स ऐसी हरकतों में ही लिप्त है? और क्या इन्हीं करतूतों के चलते वह संस्थान आज इस मुकाम तक पहुंचा है? क्या दूसरे संस्थानों में भी यही सब चल रहा है? क्या भरत नाट्यम व कथकली और सरकारी नौकरी जैसे क्षेत्र पत्रकारिता का विकल्प बन सकते हैं? और क्या वहां का माहौल पत्रकारिता के माहौल से कई गुना ज्यादा घिनौना नहीं है? लेकिन हैरत की बात यह है कि पत्रकारिता में तालिबानी अंदाज का खुलासा और निंदा उस जगह के लोग कर रहे हैं जहां पहनावा और खान-पान से लेकर नमस्कार तक में तालिबानी हुक्म लागू होते हैं।
मैं मानता हूं कि पत्रकारिता में महिलाओं के साथ बहुत अन्याय होता है। वाराणसी के हिन्दुस्तान अखबार के दफ्तर में विश्वेश्वर कुमार के कार्यकाल में एक निहायत जहीन, सुशील और मिलनसार महिला को बेइज्जत करने का कोई भी मौका वहां के वरिष्ठों ने कभी नहीं चूका। शुरुआत तो खुद विशेश्वर कुमार ने ही की थी और उन्होंने ही उस माहौल को हवा और प्रश्रय भी दिया। नतीजा यह हुआ कि लगातार तनावों में रहने वाली विनयपुरी पांडेय का इतना जबर्दस्त हृदयाघात हुआ कि उन्होंने मौके पर ही दम तोड़ दिया। जब मैंने इस मामले को उठाया तो प्रबंधन खुद मेरे उपर ही बौखला गया। लेकिन महिला ही क्यों, कार्यालयीय तनाव के चलते तो सुशील त्रिपाठी जैसा बड़ा भाई और दोस्त भी तो मैंने वहीं पर खोया। लखनऊ में एक लम्बा दौर चल चुका है महिलाओं के शोषण का। लेकिन वह दौर चंद लोगों तक ही सीमित रहा। मृणाल पांडेय और वंदना मिश्र जैसी अनेक महिलाओं पर कोई है ऐसा, जो तनिक भी उंगली उठा सके।
कम से कम मैं अपने और अपने संस्थान महुआ न्यूज के बारे में जानता हूं जहां सम्पादक से लेकर प्रत्येक कर्मचारी अपने साथ काम करने वाली प्रत्येक लड़की के साथ पूरे सम्मान के साथ पेश आता है। पायल को अगर ठेस पहुंची है तो दूसरे संस्थानों के दरवाजे उनके लिए खुले हुए हैं। हां, इतना जरूर है कि हमें आत्मसमीक्षा पर जरूर ध्यान देना चाहिए। यह भी सच है कि आज की पत्रकारिता मिशन के बजाय प्रोफेशनल कमिटमेंट में तब्दील हो चुकी है। लेकिन इसके बावजूद यह कमिटमेंट हमें आम आदमी से जोडे़ रखने की जरूरत तो सबसे ज्यादा महसूस कराता रहता है। और यही तथ्य इस पेशे की प्राणवायु भी तो है।
हमें यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि हम विधायिका और कार्यपालिका के अंग नहीं है। मेरा मानना है कि हम दूर के रिश्तेदार ही सही, लेकिन न्यायपालिका के ज्यादा करीब हैं और इस नाते शिक्षक धर्म से जुडे़ हैं। ऐसी हालत में जाहिर है कि हमारे कृत्य समाज में स्वस्थ नजीर बनने चाहिए न कि घृणा का विषय। तो मेरा अनुरोध है कि अपवादों को इतना तूल न दिया जाए।
लेखक कुमार सौवीर इन दिनों महुआ न्यूज चैनल के उत्तर प्रदेश के ब्यूरो चीफ हैं। उनसे संपर्क kumarsauvir@yahoo.com या 09415302520 के जरिए किया जा सकता है।