पत्रकारिता में ढेर सारे क्लर्क टाइप लोग आ गए हैं जो यस सर यस सर करने के अलावा और आंख-नाक के सीध में चलने के सिवा, कुछ नहीं जानते, और न करते हैं, और न ही कर सकते हैं. पर पत्रकारिता तो फक्कड़पन का नाम है. आवारगी का पर्याय है. सोच, समझ, संवेदना का कमाल है.
लेकिन, अब न बड़ी सोच वाले मालिक हैं, न बड़े फलक वाले संपादक. जाहिर है, फिर पत्रकार कहां उच्च कोटि के मिलेंगे-दिखेंगे. हर ओर चिरकुट-से विराजे दिखते हैं. चिरकुटई का सुपर मायाजाल है. ऐसे में लघु पुरुष से लेकर शीर्ष पुरुष तक, सब के सब एक लाइन से चिरकुट निकलें तो कोई हैरानी नहीं.
पर ये चिरकुट बड़े ड्रामेबाज होते हैं. ये जो अंदर से नहीं होते, उसी को बाहर प्रोजेक्ट करते रहते हैं. उसी को दिखाने बताने की कोशिश करते रहते हैं. हर ओर पाखंड का साम्राज्य है. इस हिप्पोक्रेसी को आप भी महसूस करते होंगे. जो अच्छे और बेहतर लोग हैं, वे किनारे हैं. उपेक्षित हैं. त्रस्त हैं. बाजार, सत्ता और शहरों से बाहर हैं.
इस उलटबांसी को कैसे पकड़ा जा सकता है?
जाहिर है, गद्य की सीमा में इन हालात को कैद नहीं किया जा सकता. पद्य का रास्ता अपनाना पड़ेगा. जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि मार्का कहावत को सच मानते हुए. युवा प्रतिभाशाली जर्नलिस्ट मयंक सक्सेना ने इन्हीं सब हालात पर लिखा है. कह रहे थे कि कविता है यह. पद्य है. आप भी पाठ करें. पढ़िए.
-एडिटर
अपूर्ण है पूर्णता
सबसे गहरी कविताएं,
निरुद्देश्य लिखी गईं
जल्दबाज़ी में उकेरे गए
सबसे शानदार चित्र
हड़बड़ी में गढ़े गए
सबसे अद्भुत शिल्प
सबसे महान अविष्कार
हो गए अनजाने में ही
सबसे पवित्र होता है
असफल पहला प्रेम
कभी सरल रेखा में
रास्ता नहीं बनाती नदियां
दिन भर आकार बदलती हैं
परछाइयां
हर रोज़ चांद का चेहरा
बदल जाता है
दिन भी कभी छोटा
कभी बड़ा हो जाता है
कभी भी पेड़ पर हर फल
एक सा नहीं होता
ठीक वैसे, जैसे एक सी नहीं
हम सबकी शक्लें
सबसे सुंदर स्त्री भी
सर्वांग सुंदर नहीं होती
सबसे पवित्र लोगों के सच
सबसे पतित रहे हैं
सबसे महान लोगों ने कराया
सबसे ज़्यादा लज्जित
सबसे ईमानदार लोगों के घर से
सबसे ज़्यादा सम्पत्ति मिली
सबसे सच्चा आदमी
उम्र भर बोलता रहा झूठ…
और ठीक ऐसे ही
कभी भी कुछ भी
पूर्ण नहीं है
न तो कुछ भी
सच है पूरा…न झूठ….
पूर्णता केवल एक मिथक है
एक छलावा
ठीक ईश्वर की तरह ही
एक असम्भव लक्ष्य…
जिस पर हम
केवल रुदन करते हैं व्यर्थ
कुछ भी पूर्ण नहीं है
न शब्द और न अर्थ
हम केवल मानते हैं कि
पूर्ण होगा शायद कुछ….
जो वस्तुतः नहीं है कहीं
केवल अपूर्णता ही तो पूर्ण है
अपने अर्थ में….
और वैसे ही हम सब
पूरी तरह अपूर्ण………..
-मयंक सक्सेना
कविता प्रेमी
August 13, 2010 at 9:46 am
इसे पढ़कर तो हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता ”बुराई के पक्ष में” की याद आ गई. हरे भाई की कविता को यहां डाल रहा हूं ताकि पाठक इसका भी आनंद लें. जबरदस्त सच्चाई है मयंक और हरे की कविताओं में. -एक पत्रकार
———————-
–बुराई के पक्ष में–
———————-
[b]कृपया बुरा न मानें
इसे बुरे समय का प्रभाव तो क़तई नहीं
दरअसल यह शाश्वत हक़ीक़त है
कि काम नहीं आई
बुरे वक्त में अच्छाइयाँ
धरे रह गये नीति-वचन उपदेश
सारी अच्छी चीज़ें पड़ गयीं ओछी
ईमानदारी की बात यह कि बुरी चीज़ें
बुरे लोग, बुरी बातें और बुरे दोस्तों ने बचाईं जान अक़सर
उँगली थामकर उठाया साहस दिया
अच्छी चीज़ों और अच्छे लोगों और अच्छे रास्तों ने बुरे समय में
अक़सर साथ छोड़ दिया
बचपन से ही
काम आती रही बुराइयाँ
बुरी माँओं ने पिलाया हमें अपना दूध
थोड़ा-बहुत अपने बच्चों से चुराकर
बुरे मर्दों ने खरीदी हमारे लिए अच्छी कमीज़ें
मेले-हाटों के लिए दिया जेब-ख़र्च
गली के हरामज़ादे कहे गए वे छोकरे
जिन्होंने बात-बात पर गाली-गलौज़
और मारपीट से ही किया हमारा स्वागत
उन्होंने भगाया हमारे भीतर का लिज़लिज़ापन
और किया बाहर से दृढ़
हमें नपुंसक होने से बचाया
बददिमाग़ और बुरे माने गये साथियों ने
सिखाया लड़ना और अड़ना
बुरे लोगों ने पढ़ाया
ज़िन्दगी का व्यावहारिक पाठ
जो हर चक्रव्यूह में आया काम हमारे
हमारी परेशानियों ने
किया संगठित हमें
सच ने नहीं, झूठ ने दिया संबल
जब थक गए पाँव
झूठ बोलकर हमने माँगी मदद जो मिली
झूठे कहलाए बाद में
झूठ ने किया पहले काम आसान
आत्महत्या से बचाया हमें उन छोरियों के प्रेम ने
जो बुरी मानी गईं अक़सर
हमारे समाज ने बदचलन कहा जिन्हें
बुरी स्त्रियों और सबसे सतही मुंबईया फ़िल्मों ने
सिखाया करना प्रेम
बुरे गुरुओं ने सिखाया
लिखना सच्चे प्रेम-पत्र
दो कौड़ी के लेमनचूस के लालच में पड़ जाने वाले लौंडों ने
पहुँचाया उन प्रेम-पत्रों को
सही मुक़ाम तक
जब परेशानी, अभाव, भागमभाग
और बदबूदार पसीने ने घेरा हमें
छोड़ दिया गोरी चमड़ी वाली उन ख़ुशबूदार प्रेमिकाओं ने साथ
बुरी औरतों ने थामा ऐसे वक़्त में हाथ
हमें अराजक और कुंठित होने से बचाया
हमारी कामनाओं को किया तृप्त
बुरी शराब ने साथ दिया बुरे दिनों में
उबारा हमें घोर अवसाद से
स्वाभिमान और हिम्मत की शमा जलायी
हमारे भीतर के अँधेरों में
दो कौड़ी की बीड़ियों को फूँकते हुए
चढ़े हम पहाड़ जैसे जीवन की ऊँचाई
गंदे नालों और नदियों का पानी काम आया वक़्त पर
बोतलों में बंद महँगे मिनरल वाटर नहीं
भूख से तड़पते लोगों के काम आए
बुरे भोजन
कूड़े पर सड़ते फल और सब्जियाँ
सबसे सस्ते गाजर और टमाटर
हमारे एकाकीपन को दूर किया
बैठे-ठाले लोगों ने
गपोड़ियों ने बचाया संवाद और हास्य
निरंतर आत्मकेंद्रित और नीरस होती दुनिया में
और जल्दी ही भुला देने के इस दौर में
मुझे मेरी बुराइयों को लेकर ही
शिद्दत से याद करते हैं उस क़स्बे के लोग
जहां से भागकर आया हूँ दिल्ली!
[/b]
-हरे प्रकाश उपाध्याय
vishnu
August 14, 2010 at 11:32 am
बुरी स्त्रियों और सबसे सतही मुंबईया फ़िल्मों ने
सिखाया करना प्रेम
बुरे गुरुओं ने सिखाया
लिखना सच्चे प्रेम-पत्र
—————————-
अद्भुत बस…अद्भुत
Sanjeev Kumar Singh
September 29, 2010 at 6:05 pm
keya Clarke hamesha jhuth bolta hai.