मीडिया चरित्र : आम चुनाव 2009 टेलीविजन समाचार चैनलों पर जबरदस्त तरीके से छाया रहा लेकिन चैनलों ने इस कवरेज का स्तर नीचा कर दिया. आम चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मौके पर भी कवरेज का तरीका बेहद हल्का रहा. गंभीर मुद्दों को अपेक्षाकृत कम कवर किया गया. चरम चुनाव प्रचार के दौरान भी टीवी पर हल्के विषय छाए रहे. लोकप्रिय और सशक्त संचार माध्यम होने के बावजूद टेलीविजन अपनी निर्णायक भूमिका बनाने में सफल नहीं हो सका. चुनावों के दौरान टीवी कवरेज देखने से ऐसा लगा कि समाचार चैनल जन आकांक्षाओं और जमीनी सच्चाई को दिखाने में असफल रहे. टीवी समाचार चैनल किसी ख़ास मुद्दे को चुनाव के एजेंडे में लाने में असफल रहे. सीएमएस मीडिया लैब के ताजा अध्ययन में यह बात सामाने आयी है. इस दौरान टेलीविजन मीडिया में चुनावी कवरेज को समझने के लिए सीएमएस मीडिया लैब ने 01 मार्च 2009 से लेकर 11 मई 2009 तक छह प्रमुख टीवी चैनलों (आज तक, स्टार न्यूज, एनडीटीवी 24×7, सीएनएन-आईबीएन, डीडी न्यूज और जी न्यूज) पर प्राइम टाइम (शाम 07 बजे से 11 बजे) में प्रसारित खबरों का अध्ययन किया और पाया कि टीवी मीडिया एक असरदार भूमिका निभाने में नाकाम रहा.
राजनीतिक खबरों की अभूतपूर्व कवरेज : इन चुनावों की कवरेज ने टीवी पर राजनीतिक खबरों का हिस्सा पिछले कई सालों के मुकाबले बढा दिया. जब चुनाव प्रचार अपने चरम पर था, आधे से भी ज्यादा समय चुनावी खबरों की कवरेज पर खर्च किया गया. अब तक टीवी समाचार चैनलों पर राजनीति की खबरें औसतन 10-12 % हुआ करती थी. 2004 में पिछले आम चुनावों के दौरान राजनीतिक खबरों की कुल कवरेज (चुनाव सहित) 33 फीसदी थी जबकि 2005 में यह कवरेज 23.5 फीसदी थी. इस साल 01 मार्च से मई तक टीवी पर कुल 25266 मिनट (40.91%) न्यूज टाइम सिर्फ चुनाव से जुड़ी खबरों पर खर्च किया गया. इस तरह इस अवधि में राजनीतिक खबरों की कुल कवरेज पर औसतन 42.75 % न्यूजटाइम खर्च हुआ. चुनाव प्रचार के साथ कवरेज का ग्राफ किस तरह ऊपर चढा, इसका उदाहरण अलग-अलग महीनो में मिली कवरेज है. 01 से 31 मार्च तक 27531 मिनट प्रसारित खबरों में 7061 मिनट (25.65%) चुनाव की खबरों पर खर्च हुआ वहीं 01 से 30 अप्रैल तक 24722 मिनट प्रसारित खबरों में 13039 मिनट (52.74%) चुनावी खबरों को मिला. 01 से 11 मई तक का हिसाब देखें तो कुल 9504 मिनट खबरें प्रसारित हुई जिसमें 5166 मिनट यानि (54.36%) चुनाव पर केंद्रित रहा.
अध्ययन में पाया गया कि अचानक से उठान पर आया चुनावी कवरेज इतना छाया कि कुछ दिनों पहले तक टीवी स्क्रीन पर छाई रहने वाली बॉलीवुड की गपशप घटती चली गयी. आईपीएल की बदौलत क्रिकेट का हिस्सा काफी हद तक बचा रहा. इस अवधि में औसतन 19 फीसदी न्यूजटाइम खेल की खबरों पर खर्च हुआ जो पिछले कुछ सालों से खेल को मिल रही कवरेज के लगभग बराबर ही है. चुनावी कवरेज का सीधा असर मनोरंजन की खबरों पर पड़ा. औसतन 14 से 15 % तक न्यूजटाइम पाने वाले मनोरंजन की खबरों को इस अवधि में महज 3.59% न्यूजटाइम नसीब हुआ.
सतही राजनीतिक खबरें रही हावी : टेलीविजन समाचार चैनलों पर राजनीति या यूं कहें की चुनाव सम्बन्धी खबरों की कवरेज में आयी जबरदस्त बढोतरी को देख कर एक बार लगा कि शायद टीवी मीडिया इन चुनावों का एजेंडा तय करने में लग जाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. टीवी पर खबरें तो खूब दिखीं मगर केवल सतही खबरें. हार्डकोर न्यूज या ऐसी खबरों का अभाव रहा जो चुनावों की दिशा तय कर पातीं. चैनलों ने अपना अधिकतर समय सतही खबरों की कवरेज पर खर्च किया. व्यक्ति या पार्टी केंद्रित कवरेज का बोलबाला रहा. इस अवधि में सभी छह प्रमुख चैनलों पर प्रसारित चुनावी खबरों का सबसे बड़ा हिस्सा (30.87 फीसदी) न्यूजटाइम व्यक्ति केंद्रित कवरेज पर खर्च हुआ जबकि 10.62 फीसदी न्यूजटाइम राजनीतिक जोड़-तोड़ की खबरों पर खर्च किया गया. यहां गौर करने की बात है कि सुरक्षा, परमाणु करार, बेरोजगारी, विकास, शासन, मंदी, बुनियादी सुविधाएं, शिक्षा, किसान आत्महत्या और ऋण माफी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को मिला कर कुल 4.82 फीसदी न्यूजटाइम ही दिया गया. इनमें से सुरक्षा और शासन को छोड़कर अधिकतर मुद्दों पर तो कोई अलग स्टोरी थी ही नहीं. टॉक शो या चर्चा के दौरान महज कुछ सेकेंड के लिए इन मुद्दों को छुआ गया.
मतदान का एजेंडा तय करने या उसमें कोई प्रभावी भूमिका निभाने वाला एकमात्र काम टीवी चैनलों ने स्थानीय मुद्दों को उठाकर किया. स्थानीय मुद्दों पर कुल चुनावी कवरेज का कुल 7.37 फीसदी न्यूजटाइम खर्च किया गया. इस मुद्दे को अच्छी कवरेज दिलाने में डीडी न्यूज्, एनडीटीवी 24×7 और स्टार न्यूज की भूमिका अहम रही वहीं लगभग सभी चैनलों ने व्यक्तिपरक और राजनीतिक जोड़ तोड़ पर केंद्रित खबरों को ज्यादा तवज्जो दी. इन चैनलों पर प्रसारित चुनावी कवरेज का लगभग आधा न्यूजटाइम सतही मुद्दों (व्यक्तिगत आरोप- प्रत्यारोप, राजनीतिक खींचतान आदि) पर खर्च किया गया. व्यक्तिपरक कवरेज में भी विवादित शख्सियतों को ज्यादा कवरेज दी गयी. आरोपों- प्रत्यारोपों को तो खूब बढ चढ कर दिखाया गया लेकिन उनके काम (अच्छे या बुरे) पर बहुत कम समय खर्च किया गया.
जनमत निर्माण में विफल : एक बात स्पष्ट रूप से उभरती है कि लोकप्रिय संचार माध्यम होने के बावजूद इन चुनावों के दौरान टीवी समाचार चैनल खुद को जनमत निर्माता के रूप में स्थापित करने में असफल रहे. यहां तक कि अधिकतर मीडिया घरानों ने वोट डालने की अपील को लेकर कैंपेन भी चलाया लेकिन चुनाव से जुड़ा मुद्दा, मतदान क्यों और किस आधार पर किया जाए, इन मसलों पर न के बराबरसमय खर्च किया. शायद यह भी एक कारण है कि वोटिंग कैंपेन का आमजन पर असर न के बराबर पड़ा और मतदान प्रतिशत नीचा रहा. 1999 के चुनावों में कारगिल युद्ध को और 1977 के चुनावों आपातकाल को मुद्दा बनाने में जो भूमिका तत्कालीन मीडिया (अखबारों) की रही उनकी तुलना टीवी मीडिया का असर इस बार नगण्य दिखा. राजनीतिक अखाड़ेबाजी का यह दृश्य पूरे पांच साल बाद सामने आया था. शायद इसलिए राजनीति क्रिकेट और बॉलीवुड पर हावी हो पायी. कुछ मीडिया संस्थानों ने तो इसे आईपीएल की ही तर्ज़ पर इंडियन पॉलिटिकल लीग नाम दिया. फटाफट क्रिकेट की ही तरह टीवी चैनलों ने फटाफट अंदाज़ में पेश किया. टीआरपी की रेस में भले ही खबरिया चैनलों ने राजनीतिक खबरों का उपयोग किया हो लेकिन बेहतर होता यदि वह जनमत निर्माण में कोई अहम भूमिका निभा पाते.
लेखक विनोद विप्लव पत्रकार, कहानीकार और ब्लागर हैं। वे इन दिनों ‘यूनीवार्ता’ में विशेष संवाददाता के तौर पर कार्यरत हैं। उनसे [email protected] या 9868793203 के जरिए संपर्क कर सकते हैं।
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