भड़ास4मीडिया में बुंदेली भाषा के साप्ताहिक ‘खबर लहरिया’ के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। यूनेस्को ने इसे साक्षरता सम्मान के लिए चुना, यह और भी सुखद व प्रेरक है। सुखद इसलिए कि यूनेस्को की दृष्टि उस दूरस्थ उपेक्षित और विकास की दौड़ से पीछे छूट गये अंचल में पहुंची और उसने एक नेक और सराहनीय कार्य को सम्मानजनक स्वीकृति दी। प्रेरक इसलिए कि इससे ‘खबर लहरिया’ की संपादक मीरा जी की तरह और भी महिलाएं प्रेरणा लेंगी और साक्षरता से कोसों दूर उस अंचल में उनकी अपनी बोली में ज्ञान की ज्योति फैलाने का पुण्य प्रयास करेंगी। अपनी बात उत्तराखंड आंदोलन के समय गाये जाने वाले एक प्रेरणादायक गीत से करना चाहता हूं जो मुझे रविवार हिंदी साप्ताहिक में मेरे साथी पत्रकार जयशंकर गुप्त ने उत्तराखंड से लौट कर सुनाया था। यह गीत उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े लोग गाते और इससे अपनी लड़ाई में प्रेरणा पाते थे। गीत की प्रारंभिक पंकितयां हैं- ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के / अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के /
पूछती है झोपड़ी और पूछते हैं खेत भी / कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के / बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहां ये जानकर / अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के।। ‘खबर लहरिया’ एक लड़ाई, एक संघर्ष ही तो है। संघर्ष अज्ञान के खिलाफ, अनीति के खिलाफ। सबसे सुखद और आशाजनक बात यह है कि यह साप्ताहिक महिलाओं की टीम निकाल रही है जो स्वयं ही समाचार संग्रह करती हैं, यहां तक कि लोगों तक अखबार को पहुंचाने का काम भी करती हैं। इन महिलाओं के बारे में बताया जा रहा है कि ये आदिवासी महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं लेकिन वह काम कर रही हैं जो पढ़े-लिखे भी नहीं कर रहे हैं। पढ़े-लिखे लोग पहले तो जनभाषा में अखबार निकालने में अपनी तौहीन समझेंगे और दूसरे यह कि वे शीत-ताप नियंत्रित कमरों में बैठ कर आराम से अखबार निकालने का मोह नहीं छोड़ पायेंगे।
धन्यवाद देना होगा ‘निरंतर’ संस्था को जिसने एक तरह से असाध्य साधन कर इन कम पढ़ी-लिखी और पत्रकारिता से कोसों दूर रही महिलाओं को पत्रकार बना दिया। इस प्रयास की सफलता से पता चलता है कि अगर इनसान ठान ले तो असंभव कुछ भी नहीं। बस दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा होना चाहिए। 15 महिलाओं की जो टीम इस अखबार को निकाल रही है, वह गांव-गांव के घर में जनचेतना की एक नयी लहर जगा रही है। ‘निरंतर’ का यह प्रयास उस नितांत अविकसित और उपेक्षित अंचल में साक्षरता की ललक जगा रहा है जो निश्चय ही सराहनीय और अभिनंदनीय प्रयास है। अखबार के एक -दो पृष्ठ देख कर ही लगा कि यह नितांत क्षेत्रीय और वहां के लोगों के हितों से जुड़े मुद्दों पर आधारित है, जिन्हें उनकी ही बोली में उठाना बेहद जरूरी था। इस काम में किसी बड़े समाचारपत्र ने हाथ इसलिए नहीं डाला क्योंकि वहां से विज्ञापन मिलने की उम्मीद न के बराबर है। स्थानीय बोली के पत्र को भला कौन से बहुराष्ट्रीय कंपनी विज्ञापन देने लगी। ऐसे में बड़े अखबार घराने भला जनहित की जहमत क्यों उठाने लगे। वह कोई धर्मादा संस्थान तो खोले नहीं बैठे। ऐसे में ‘निरंतर’ जैसी संस्था ने अपने सामाजिक दायित्व को समझा और यह महान कार्य किया जिसके लिए उसकी जितनी प्रशंसा की जाये, कम है।
जब हम लोग कालेज में थे, हमारे जिले बांदा और कस्बे बबेरू से जिस तरह के अखबार निकलते थे, उनके नाम से ही डर लगता था। जरा नामों पर गौर फरमायें- बम्बार्ड, कैची, ऱिश्वत और न जाने क्या-क्या। ये अखबार के नाम पर परचे होते थे, जो अपने विरोधियों को डराने-धमकाने या फिर किसी और मकसद के लिए होते थे। इनमें कभी यह नहीं देखा कि जन जागरण का कोई प्रयास करने की नीयत रही हो। उस अंचल से यह सार्थक प्रयास शुरू हुआ है, जो नयी उम्मीद जगाता है। ऐसे प्रयास देश के कोने-कोने में हों तो यह साक्षरता अभियान में काफी कारगर साबित हो सकते हैं।
सुखद यह है कि ‘खबर लहरिया’ लोकप्रिय हो रहा है और समादृत भी। महिलाओं की जो टीम यह अखबार निकाल रही है वह खबर संग्रह से लेकर समाचारपत्र से जुड़ा सारा कार्य करती है। ‘निरंतर’ की शालिनी जोशी और ‘खबर लहरिया’ की संपादक मीरा जी बधाई की पात्र हैं जिन्होंने उस अंचल में ज्ञान का दीप जलाया, जहां जहालत का घोर अंधेरा है। इस प्रयास को साधुवाद और उम्मीद है कि- अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं। राजेश से संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं। वे ब्लागर भी हैं और अपने ब्लाग में समसामयिक विषयों पर अक्सर लिखते रहते हैं।