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पुण्य के माफीनामे से उठे कई सवाल

एनडीए शासनकाल में अहमदाबाद पुलिस ने इशरत जहां और अन्य तीन लोगों को आतंकवादी बताकर मुठभेड़ में मार गिराया था। उस मुठभेड़ की मजिस्ट्रेट जांच में मुठभेड़ को फर्जी और सरकार से तमगे हासिल करने के लिए की गई हत्याएं बताया गया है। मजिस्ट्रेट तमांग जांच रिपोर्ट आने के बाद इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ को लेकर मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। मीडिया पर उठे सवालों के बाद मशहूर टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ‘इशरत हमें माफ कर दो’ शीर्षक से एक आलेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के लिए लिखा है। उस आलेख को भड़ास4मीडिया डॉट कॉम पर भी प्रकाशित किया गया है।

एनडीए शासनकाल में अहमदाबाद पुलिस ने इशरत जहां और अन्य तीन लोगों को आतंकवादी बताकर मुठभेड़ में मार गिराया था। उस मुठभेड़ की मजिस्ट्रेट जांच में मुठभेड़ को फर्जी और सरकार से तमगे हासिल करने के लिए की गई हत्याएं बताया गया है। मजिस्ट्रेट तमांग जांच रिपोर्ट आने के बाद इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ को लेकर मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। मीडिया पर उठे सवालों के बाद मशहूर टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ‘इशरत हमें माफ कर दो’ शीर्षक से एक आलेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के लिए लिखा है। उस आलेख को भड़ास4मीडिया डॉट कॉम पर भी प्रकाशित किया गया है।

इस आलेख में वाजपेयी ने अपनी  और पूरे मीडिया की बेबसी व लाचारी को जिस तरह से जाहिर किया है, उससे लगता है कि आज का मीडिया कहीं न कहीं या तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाता है या सरकारों के दबाव में सही तथ्यों को नजरअंदाज करके सरकारों द्वारा बताए गए तथ्यों को ही प्रसारित और प्रचारित करता है। मुठभेड़ वाले दिन पन्द्रह जून 2004 को अहमदाबाद से चैनल के रिपोर्टर ने पुण्य प्रसून वाजपेयी से कहा था कि यह फर्जी एनकाउंटर है। वाजपेयी ने रिपोर्टर द्वारा कही गई बातों का देते हुए लिखा है – ‘पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारों (मुडभेठ में मारे गए लोग) के ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं। घटनास्थल पर पुलिस कमिश्नर कौशिक, ज्वायंट पुलिस कमिश्नर पांधे और डीआईजी बंजारा खुद मौजूद हैं, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल कौन खड़ा करे?’

वाजपेयी से अब कई सवाल किए जा सकते हैं। क्या अहमदाबाद के पुलिस अधिकारी देश के इदी अमीन या हिटलर थे, जिनकी कही गयी बातों पर सवाल करने का मतलब मौत थी? क्या यह माना जाए कि पूरे मीडिया समेत आपका वह चैनल, जिसमें उस वक्त आप काम कर रहे थे, गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी से डरता था? उस समय ऐसे बहुत सारे सवाल थे, जिन्हें मीडिया उठा सकता था। मीडिया ने यह सवाल क्यों नहीं किया कि मुठभेड़ के फौरन बाद ही बिना किसी जांच के कोई पुलिस अधिकारी इतनी जल्दी कैसे यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि मुठभेड़ में मारे गए लोग आतंकवादी ही हैं? यदि यह मान लिया जाए कि इंटेलीजेंस ने पक्के सबूतों के आधार पर यह रिपोर्ट दी थी कि लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी मुंबई से अहमदाबाद के लिए सीएम नरेन्द्र मोदी की हत्या के लिए चले हैं तो भी सवाल किया जा सकता था कि कथित आतंकवादियों को मुंबई में ही रोक कर गिरफ्तार करने की कोशिश क्यों नहीं की गयी? उनका अहमदाबाद तक आने का इंतजार क्यों किया गया? अहमदाबाद में घुसने के बाद ही मुठभेड़ क्यों  हुई? सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसी एक भी कथित आतंकवादी को जिन्दा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की? आखिर ऐसा क्यों होता है कि केवल नरेन्द्र मोदी को ही मारने आने वाले सभी कथित आतंकवादी मुठभेड़ में मार दिए जाते है, लेकिन अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने वाले आतंकवादियों की भनक भी गुजरात पुलिस को नहीं लगती?

वाजपेयी साहब आगे लिखते हैं- ‘हर न्यूज चैनल पर (इशरत जहां मुठभेड़ के बाद) आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरू हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी एनकाउंटर को फर्जी कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत कौन करे? यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था। क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह से परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वालों में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाए।’  

पुण्य प्रसून वाजपेयी ने मान ही लिया कि न्यूज चैनलों के लिए पहली प्राथमिकता सनसनी और उससे बढ़ती टीआरपी ही हकीकत है। इसी टीआरपी के चक्कर में वाजपेयी भी तथ्यों को टटोलने में वक्त खराब करने के बजाय अन्य चैनलों की तरह टीआरपी की होड़ में शामिल हो गए। जाहिर है, यहां भी वाजपेयी किसी दबाव में यह काम कर रहे होंगे। जहां एक ओर वह इशरत जहां मुठभेड़ में गुजरात पुलिस अधिकारियों द्वारा उपलब्ध कराए गए तथ्यों से अलग नहीं जा सकते थे, वहीं दूसरी ओर वह अपने उन मालिकों से अलग नहीं जा सकते थे, जिनका एक ही मकसद है, सनसनी से पैसा कमाना। पैसा तभी आएगा, जब टीआरपी बढ़ेगी। अब इसी टीआपी के चक्कर में किसी के चरित्र की हत्या हो या किसी की औरत पर आतंकवादी की मां होने का ठप्प चस्पा हो जाए। इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। हालांकि इशरत जहां और उसके साथी वापस नहीं आ सकते। लेकिन तमांग की रिपोर्ट ने इतना तो किया ही है कि मुठभेड़ों में मारे गए लोगों के परिवारों को इस बात का सकून तो मिला ही होगा कि उनके बच्चे आतंकवादी नहीं थे। वाजपेयी का यह सवाल बहुत वाजिब है- ‘यदि मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाए?’

वाजपेयी के इस सवाल का जवाब मीडिया को देना ही चाहिए। मीडिया को अपना कलंक धोने सलीम अख्तर सिद्दीक़ी के लिए उन सभी मुठभेड़ों की जांच की मांग करनी चाहिए, जो मोदी शासनकाल में अब तक हुई हैं। पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इशरत जहां से माफी मांग कर एक शुरुआत की है। उनको दाद दी जानी चाहिए कि देर से ही सही, उन्होंने सच को स्वीकार किया है।


सामयिक मुद्दों पर कलम के जरिए सक्रिय हस्तक्षेप करने वाले सलीम अख्तर सिद्दीक़ी मेरठ के निवासी हैं। वे ब्लागर भी हैं और ‘हक बात’ नाम के अपने हिंदी ब्लाग में लगातार लिखते रहते हैं। उनसे संपर्क 09837279840 या  [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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