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हिन्दी के खिलाफ कारपोरेट पत्रकारिता की साजिश (6)

अमरेंन्द्र कुमारहिन्दी मीडियाकर्मी जिस भाषा से रोजी-रोटी चलाते हैं, उस भाषा के प्रति उनका कुछ धर्म भी है। इनकी भाषा हिन्दी है और यही वह भाषा है जो संपूर्ण देश में विचारगत एकता कायम रख सकती है। इसी से भारतीय संस्कृति का निर्माण होगा। अधिकांश जनता इसी भाषा को बोलती-समझती है, लेकिन मुट्ठी भर आभिजात्य अंग्रेजी भाषा से अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए हिन्दी के प्रवाह में अंग्रेजी मिलाते हैं ताकि हिन्दी शब्द विस्मृत हो जाएं और अंग्रेजी के शब्द प्रचलित हो जाएं।

अमरेंन्द्र कुमार

अमरेंन्द्र कुमारहिन्दी मीडियाकर्मी जिस भाषा से रोजी-रोटी चलाते हैं, उस भाषा के प्रति उनका कुछ धर्म भी है। इनकी भाषा हिन्दी है और यही वह भाषा है जो संपूर्ण देश में विचारगत एकता कायम रख सकती है। इसी से भारतीय संस्कृति का निर्माण होगा। अधिकांश जनता इसी भाषा को बोलती-समझती है, लेकिन मुट्ठी भर आभिजात्य अंग्रेजी भाषा से अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए हिन्दी के प्रवाह में अंग्रेजी मिलाते हैं ताकि हिन्दी शब्द विस्मृत हो जाएं और अंग्रेजी के शब्द प्रचलित हो जाएं।

फिर समय ऐसा भी आएगा जब अभियान चला कर केवल अंग्रेजी भाषा ही चलायी जाएगी। भाषा के साथ हमारे देश में पहले भी ऐसा हुआ है। संपूर्ण भारत में ज्ञान की भाषा संस्कृत थी। छह हजार वर्ष तक संस्कृत भाषा में ज्ञान की सभी शाखाओं का प्रणयन होता रहा। इस भाषा के एकाधिपत्य को भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने तोड़ा। उस युग की जनभाषा पालि में भगवान बुद्ध ने अपना उपदेश दिया। संस्कृत भाषा की अस्वीकृति का जो दौर चला वह चलता रहा। इसका नतीजा हुआ कि संस्कृत भाषा से जन्मी हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा बन गयी। इसकी लता पूरे देश में ही नहीं, विदेश में भी फैलने लगी तो अब इसके खिलाफ भी कुचक्रपूर्ण गठबंधन कर अभियान चलाया जा रहा है। इसमें कारपोरेट पत्रकारिता लगी हुई है। ‘जनसत्ता’ और ‘आज’ को छोड़ कर सभी अखबार धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्दों को चला रहे हैं। एक  खबार में पढ़ा था ‘क्लाउडी वेदर में लोग झूम उठे।’ यह क्या हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी को नेपथ्य में भेजने की साजिश नहीं है? हिन्दी समृद्ध भाषा है। बादल के लिए न जाने कितने शब्द हैं। काले-कजरारे बादल से मौसम के सुहाना होने पर न जाने कितने गीत हैं। फिर ‘क्लाउडी वेदर’ की बात क्यों कही और लिखी जाती है ? पत्र-पत्रिकाओं से ज्यादा, हिन्दी चैनल वाले इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उनकी कारपोरेट पत्रकारिता में इसी तरह की हिन्दी चाहिए।

हिन्दी चैनल के साथ भोजपुरी के चैनल भी इसी तरह का प्रयोग कर रहे हैं। शायद भोजपुरी के मीडियाकर्मी को यह पता नहीं कि भोजपुरी क्षेत्र की कितनी व्यापकता और इसकी शब्द-संपदा कितनी समृद्ध है। प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डा. उदय नारायण तिवारी ने अपनी पुस्तक में कभी लिखा था- ‘भोजपुरी 43,000 वर्गमील में बोली जाती है। उसकी सीमा गंगा नदी के साथ-साथ पटना के पश्चिम कुछ मील तक पहुंच जाती है, जहां से सोन नदी के मार्ग का अनुसरण करती हुई रोहतास तक पहुंच जाती है।’ इसके अलावा यह उत्तर प्रदेश के कई जिलों के साथ-साथ झारखंड और मध्य प्रदेश के कई जिलों में बोली जाती है। भाषा वैज्ञानिक अभिषेक अवतंस के अनुसार झारखंड के पलामू, गढ़वा और लातेहार जिलों में भोजपुरी बोली जाती है। मैंने कभी भोजपुरी के एक चैनल में समाचार सुना था कि ‘पिटाई एतना भइल कि…..मृतप्राय स्थिति हो गइल।’ भोजपुरी के उपसर्गों में इतनी क्षमता है कि वे अर्थ-छवि पैदा कर सकने में समर्थ हैं। ‘मृतप्राय’ के लिए ‘मरल’ में उपसर्ग ‘अध’ लगा कर ‘अधमरल’ बनाया जा सकता है। भोजपुरी के चैनलों में बोला जाता है कि ‘सब पढ़े के इच्छुक लड़िकन के…….‘ लेकिन उन्हें यह पता नहीं है कि भोजपुरी में ‘हार’ प्रत्यय से कितने खूबसूरत ढंग से अभिव्यक्ति की जा सकती है- पढ़ने वाले= पढ़निहार, खाने वाले = खनिहार, रहने वाले = रहनिहार इत्यादि। निश्चय ही भोजपुरी के मीडियाकर्मियों को भोजपुरी के इन खूबसूरत और अर्थ-छवि वाले शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी और हिन्दी के शब्दों के बदले करना चाहिए।

अंग्रेजी भाषा में किसी संज्ञा और विशेषण से क्रिया शायद ही बनायी जाती है, लेकिन भोजपुरी भाषा की यह विशेषता है कि उसमें  संज्ञा और विशेषण से क्रिया बनाने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। जैसे- लात से लतियावल, बात से बतियावल, जूता से जुतियावल या जुतवसल इत्यादि। फिर क्यों पत्रकार भोजपुरी शब्दों के बदले अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हैं ? कृषि के शब्द और मौसम के हर मिजाज के लिए भोजपुरी में बेशुमार शब्द हैं, फिर न जाने क्यों ये पत्रकार अंग्रेजी के शब्द का इस्तेमाल करते हैं? निश्चित रूप से इसमें कारपोरेट मीडिया की साजिश है। संभवतः यह बाजार के दबाव में किया जा रहा है ताकि अंग्रेजी के शब्द जन-जन तक पहुंचा कर बताया जा सके कि आपका अंग्रेजी का विज्ञापन भी जन-जन तक पहुंचेगा और उन्हें समझ में भी आएगा। मैं भोजपुरी के मीडियाकर्मियों से निवेदन करना चाहूंगा कि वे ग्रियर्सन के लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के पांचवे भाग के दूसरे खंड को पढ़ें, जिसमें भोजपुरी भाषा तथा उसकी उप-भाषाओं का विस्तृत विवेचन किया गया है। ये उपभाषाएं हैं-

  1. उत्तरी भोजपुरी
  2. पश्चिमी भोजपुरी
  3. दक्षिणी भोजपुरी
  4. नागपुरी भोजपुरी

नागपुरी भोजपुरी को सदानी भी कहते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य है कि अगर उन उपभाषाओं के शब्दों को भोजपुरी मीडियाकर्मी अपने समाचार या कार्यक्रम में शामिल करें, तो अंग्रेजी से शब्द उधार लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। मैं अगले भाग में भोजपुरी के ध्वनि–विज्ञान के सम्बंध में प्रकाश डालूंगा, जिससे यह पता चल जाए कि भोजपुरी के शब्द कितने ध्वन्यात्मक हैं और वे ध्वनि के आधार पर अर्थ-छवियों को प्रकट करते हुए भोजपुरी भाषा की गुणवत्ता को रेखांकित करते हैं। दरअसल बात यह है कि भोजपुरी के मीडियाकर्मी कारपोरेट पत्रकारिता से प्रभावित होकर भोजपुरी को भी अंग्रेजी के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। इस सम्बंध में प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डा. राजेन्द्र प्रसाद सिंह का मत है कि भोजपुरी भाषा की समृद्धि को देखते हुए कोई भी व्यक्ति भोजपुरी में जटिल-से-जटिल भावों की स्थितियों को भोजपुरी के शब्दों से अर्थवत्ता प्रकट कर सकता है। भोजपुरी के शब्दों में वास्तव में आरोह-अवरोह हैं। ये आरोह-अवरोह अर्थ में परिवर्तन ला देते हैं। ये सारी बातें मैं अगले भाग में करूंगा।


इसके पहले के लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें- (1), (2), (3), (4), (5)


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अमरेंद्र कुमार सासाराम (बिहार) के निवासी हैं। वे हिंदी के प्राध्यापक रहे, बाद में सक्रिय पत्रकारिता की ओर मुड़ गए। कई अखबारों और पत्रिकाओं में वरिष्ठ पदों पर रहे। अमरेंद्र ने पत्रकारिता पर किताबें भी लिखी हैं। उनसे संपर्क 06184-222789, 09430565752, 09990606904 के जरिए या फिर [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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