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भाषा की लड़ाई फिर लड़ने की जरूरत (5)

अमरेन्द्र कुमारगलत शब्द – गणमान्य, अनाधिकार, दुष्चक्र, सन्यासी, उज्जवल, अंतर्ध्यान

सही शब्द – गण्यमान्य, अनधिकार, दुश्चक्र, संन्यासी, उज्ज्वल, अंतर्धान

इक्कीसवीं सदी के आने के पूर्व से ही हिन्दी अखबारों ने नयी सज-धज और नये रंग-ढंग के साथ अपनी अस्मिता कायम कर ली थी। हिन्दी पत्रकारिता अंग्रेजी अखबारों के वर्चस्व की चट्टान तोड़ते हुए आगे बढ़ रही थी। तभी हिन्दी चैनलों ने अंग्रेजी की चटनी चाटनी शुरू कर दी। यह रोग धीरे-धीरे हिन्दी के पत्रकारों को भी लगने लगा।

अमरेन्द्र कुमार

अमरेन्द्र कुमारगलत शब्द – गणमान्य, अनाधिकार, दुष्चक्र, सन्यासी, उज्जवल, अंतर्ध्यान

सही शब्द – गण्यमान्य, अनधिकार, दुश्चक्र, संन्यासी, उज्ज्वल, अंतर्धान

इक्कीसवीं सदी के आने के पूर्व से ही हिन्दी अखबारों ने नयी सज-धज और नये रंग-ढंग के साथ अपनी अस्मिता कायम कर ली थी। हिन्दी पत्रकारिता अंग्रेजी अखबारों के वर्चस्व की चट्टान तोड़ते हुए आगे बढ़ रही थी। तभी हिन्दी चैनलों ने अंग्रेजी की चटनी चाटनी शुरू कर दी। यह रोग धीरे-धीरे हिन्दी के पत्रकारों को भी लगने लगा।

जो भाषा पूरी दुनिया में फैल चुकी है, जिसके बोलने-पढ़ने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है, उसे ही हिन्दी पत्रकारिता में ‘हिंग्लिश’ का रूप दिया जा रहा है। हिन्दी पत्रकारिता में प्रेषण की सुविधा के ढोंग के तहत धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्द ही नहीं, कभी-कभी तो दो-चार शब्द छोड़ कर एक वाक्य में सारे शब्द अंग्रेजी के दिये जा रहे हैं।

मसलन ‘आज पार्लियामेंट में एक बिल पर डिस्कसन हुआ’। आप स्वयं सोचें कि क्या भारत की जनता को ‘लोक सभा’ ‘विधेयक’ और ‘बहस’ या ‘विचार-विमर्श’ शब्दों को समझाने के लिए अंग्रेजी के शब्दों का सहारा लेना पड़ेगा  ? सहारा तो नहीं लेना पड़ेगा, लेकिन बाजार के नाम पर हमारे देशवासियों से उसकी भाषा और रूपातंर से उसकी संस्कृति खरीदी जा रही है। इस देश की भाषा और संस्कृति को मीठा जहर देने का काम हमारे हिन्दी के अखबार और खबरिया चैनल कर रहे हैं।

इसकी वजह यह भी है कि हमारे भारतीय जीवन एवं रहन-सहन में विदेशी संस्कृति ने अपना पैर फैलाना शुरू कर दिया है और ‘वैलेंटाइन-डे’ ‘फादर्स-डे’ ‘मदर्स-डे’ हमारे यहां त्योहार की तरह मनाये जाने लगे हैं। भला बताइए कि क्या भारतीय मां या पुत्र के लिए ‘मदर्स-डे’ भी हो सकता है, क्योंकि हमारे यहां तो मां हर पल मां होती है, वर्ष में उसका एक दिन क्या होगा ? हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी संस्कृति के कारण ही ये सारे अंग्रेजी के शब्द चलने लगे। ‘मौब’ ने ‘अटैक’ कर दिया जैसा शीर्षक भी दिया जा रहा है और समाचार चैनलों से तो जम कर इस तरह के वाक्य प्रसारित किये जा रहे हैं।

भाषा की जो लड़ाई आजादी की लड़ाई के साथ पत्रकारों ने लड़ी थी, उसे फिर से लड़ने की जरूरत पड़ रही है। कितनी शर्म की बात है ! हमारी आजादी की लड़ाई हिन्दी भाषा के माध्यम से लड़ी गयी थी। हिन्दी दैनिक ‘आज’ के यशस्वी संपादक बाबू विष्णुराव पराड़कर जी ने तो लगभग तीन दर्जन ऐसे हिन्दी के शब्द चलाये, जो आज भी हिन्दी पत्रकारिता में चल रहे हैं, जैसे- श्री, परराष्ट्र, राष्ट्रीय आदि। इसके पूर्व ‘मिस्टर’ लिखा जाता था हिन्दी अखबारों में और परराष्ट्र के लिए ‘फाँरेन’ और ‘राष्ट्रीय’ के लिए जातीय शब्द चलता था। उस समय के पत्रकार स्वतंत्रता की लड़ाई को सफल बनाने के लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग करते थे और आज हमारी मानसिकता को फिर से गुलामी की जंजीर में जकड़ने के लिए हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने की पहल हो रही है। प्रबंधन इसे व्यवसाय के लिए जरूरी मानने लगा है और पत्रकारों को संप्रेषणीयता की दुहाई देकर उनसे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करा रहा है। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश भाषाओं ने अपनी भाषिक चेतना के अमृत-प्रवाह को सूखने नहीं दिया है, लेकिन हम नतमस्तक हो रहे हैं, जबकि हमारी हिन्दी संपूर्ण विश्न में वह स्थान रखती है, जो अलग से रेखांकित करने लायक है।

पता नहीं हमारे हिन्दी अखबारों और चैनलों के पत्रकारों के सामने कौन-सी मजबूरी है कि वे अपनी नौकरी की हिफाजत के लिए घुटने टेक रहे हैं और स्वयं ही अपने देश की संस्कृति और राष्ट्रभाषा का गला घोंट रहे हैं। क्या आप यह नहीं समझ रहे हैं कि नयी पीढ़ी धीरे-धीरे अंग्रेजी का जहर दिमाग में उतार रही है ? इसका प्रमाण है कि अब बच्चे ‘उनहत्तर’ न कहते हैं और न समझते हैं बल्कि ‘सिक्सटी नाइन’ ही वे कहेंगे और समझेंगे।

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अभी तो बात हम गिनती की  कह रहे हैं, लेकिन अगर यही हाल रहा, तो ये मीडियाकर्मी ही हमारी भाषिक और सांस्कृतिक चेतना को अंग्रेजी के मीठे जहर से कुंद कर देंगे। हमारी राष्ट्रभाषा में आधा अंग्रेजी के शब्द होंगे और आधा हिन्दी में। हिन्दी बेचारी अल्पश्वासी हो जाएगी- वह हिन्दी जो अपनी समृद्ध शब्द संपदा के लिए पूरी दुनिया में प्रचलित 3500 भाषाओं में अलग पहचान रखती है। अंग्रेजी शब्दों का मिश्रण कर इसके क्रियोलीकरण करने के अलावा भी हिन्दी के पत्रकार शुद्ध भाषा और वर्तनी पर ध्यान देना वाजिब नहीं समझते हैं।

हिन्दी के अखबारों में ‘संन्यासी’ की जगह ‘सन्यासी’ धड़ल्ले से छप रहे हैं। ‘गण्यमान्य’ की जगह ‘गणमान्य’ भी अखबारों में निरंतर छप रहे हैं। अलग-अलग शब्द देखें तो ‘गण’ भी ठीक है और ‘मान्य’ भी। लेकिन आप कहना चाहते हैं समाचार में माननीय लोगों में गणनीय व्यक्ति सभा या गोष्ठी में उपस्थित थे, तो लिखना पड़ेगा ‘गण्य’-गणनीय और ‘मान्य’-माननीय। यानी माननीय लोगों में गणनीय व्यक्ति गोष्ठी में शामिल थे तो शब्द शुद्ध होगा ‘गण्यमान्य’। यहां ‘गण’ समूह के रूप में नहीं,  बल्कि गणना के रूप में है। मान लीजिए कहा जाए कि अशोक गण्यमान्य व्यक्ति हैं, तो ठीक है, लेकिन यह कहा जाए कि अशोक ‘गणमान्य’ हैं तो भला एक व्यक्ति के लिए जो मान्य है, उसके लिए ‘गण’- समूह कैसे आएगा। यहां अर्थ है कि अशोक मान्य व्यक्तियों में गण्य हैं, तो शब्द बनता है ‘गण्य-मान्य’।

एक पत्रिका के कवर पृष्ठ में मैंने देखा था – दुष्चक्र में फंसा….। यहां मूर्धन्य ‘ष्’ बिल्कुल गलत है। यह बात सही है कि दु; के बाद ‘ष्’ आता है, जैसे दुष्कर्म, निष्पाप। दु;+कर्म=दुष्कर्म और नि:+पाप=निष्पाप लेकिन ‘चवर्ग’ व्याकरण के नियम के अनुसार ‘च’ ही होगा, जैसे- दु:+चक्र=दुश्चक्र ,नि:+चय=निश्चय,  दु:+चिंता=दुश्चिंता आदि। इसी तरह कई स्थानों पर हिन्दी के पत्रकार ही लिख रहे हैं अनाधिकार प्रवेश…… आदि वाक्य। यह ‘अनाधिकार’ एकदम गलत है। सही शब्द है-अनधिकार। सरकारी कार्यालयों में जगह-जगह पट्टिकाओं में लिखा हुआ मिलेगा ‘अनाधिकार’ प्रवेश निषेध । मैं 1974-75 में स्वर्गीय कमलापति त्रिपाठी के रेलमंत्री के कार्यकाल में रेलवे के राजभाषा कार्यान्वयन समिति में एक पत्रकार की हैसियत से सदस्य था और प्रसिद्ध पत्रकार (आकाशवाणी) एवं साहित्यकार शिवसागर मिश्र जी अध्यक्ष थे। मैंने दानापुर प्रमंडल के रेलवे स्टेशनों पर हिन्दी भाषा की अशुद्धियों को ठीक करवाया था, लेकिन इन दिनों तो रेल स्टेशनों पर खुले आम लिखा रहता है- कृप्या……..करें या न करें। इसे तो रेल विभाग के अधिकारियों को भी जानना चाहिए कि ‘कृपया’ शब्द शुद्ध है, ‘कृप्या’ नहीं। हिन्दी के पत्रकारों को सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों और रेलवे स्टेशनों पर भाषा वर्तनी की गलतियों पर खबर बनाना चाहिए। भाषा हमारी संस्कृति भी है और संस्कृति को निर्मल-उज्ज्वल रखना पत्रकारिता का काम है। यहां जो ‘उज्ज्वल’ शब्द आया है, उस पर मुझे याद आ रहा है कि हिन्दी के कई अखबारों और पत्रिकाओं में ‘उज्जवल’ लिखा रहता है, जो गलत है। यह शुद्ध इस रूप में है- उत्+ ज्वल  = उज्ज्वल। इसी तरह हिन्दी के पत्रकार लिखते हैं- समाजिक, व्यवहारिक आदि, जबकि शुद्ध होना चाहिए- सामाजिक, व्यावहारिक ; क्योंकि जिस शब्द में ‘इक’ प्रत्यय लगा कर हम उसका विशेषण बनाएंगे, तो पहले वर्ण द्विमात्रिक या गुरु हो जाएगा। भूगोल से भौगोलिक,  देह से दैहिक, शिक्षा से शैक्षिक, इच्छा से ऐच्छिक, विज्ञान से वैज्ञानिक, इतिहास से ऐतिहासिक आदि।

हिन्दी के कई पत्रकार ‘दरअसल में’ लिखते हैं जो अशुद्ध है। होना चाहिए-‘दरअसल’। दरअसल का मतलब ही हुआ वास्तव में। हिन्दी अखबारों में अंतर्ध्यान शब्द देखने को मिलता है, लेकिन यह शब्द है ‘अंतर्धान’। बहुत लोगों को पहले वाला ही शब्द ‘अंतर्ध्यान’ ठीक लगेगा, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह गलत है। दरअसल मैं  आपका ध्यान उर्दू के उन शब्दों की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा, जो हिन्दी अखबारों में गलत रूप में लिखे जाते हैं। वे शब्द हैं- उम्दा, जिन्दा, ताजा आदि। ये उर्दू के कुछ विशेषण हैं, जो लिंग, वचन इत्यादि के कारण अन्वित नहीं होते हैं। जैसे-‘ताजा खबर’ शब्द होगा और ‘जिन्दा मछली’ ही लिखा जाएगा। आपको सन ऑफ इंडिया का एक प्रसिद्ध गीत की पहली पंक्ति याद होगी- आज की ताजा खबर।

अनुस्वार का प्रयोग हिन्दी पत्रकारों के लिए एक समस्या है। मैं इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि कहां-कहां अनुस्वार का प्रयोग होगा। कृपया निम्नांकित नियमों को अवलोकित करें-

अ. केवल ‘स्वर ‘और ‘ह’ के बीच अनुस्वार का प्रयोग होगा। यथा- ‘स’ स्वर  है और उसके  बाद ‘ह’ ‘संहार’ होगा- ‘सन्हार’ नहीं। इसी तरह सिंह और सिंहासन शब्द लिखे जाएंगे। 

ब. केवल ‘स्वर’ तथा ‘य’ और ‘श’ के बीच अनुस्वार का प्रयोग होगा। जैसे –‘स’ स्वर है और उसके बाद ‘य’ तो ‘संयम होगा,  संयोग होगा, संशय होगा और संशोधन होगा। इसमें ‘सन्यम’ नहीं, ‘सन्शय’ नहीं, ‘सन्शोधन’ नहीं होगा। चूंकि ‘दै’ स्वर नहीं है, इसमें मात्रा है, इसीलिए ‘दैन्य’ होगा, ‘सैन्य’ होगा।

स. स्वर एवं र ल अथवा य के बीच अनुस्वार का प्रयोग होगा। यथा संरचना,  संलाप, संसार आदि। पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग के शेष चार वर्ण में से कोई वर्ण हो, तो अनुस्वार का ही प्रयोग होगा अन्यथा उस व्यंजन का यथावत् प्रयोग होना चाहिए। जैसे-अंत, गंगा, संपादक, अंदर और उसी वर्ण के शेष चार वर्णै में से कोई वर्ण हो, तो अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए अन्यथा उस व्यंजन का यथावत् प्रयोग किया जाए। जैसे-अंत, गंगा, संपादक, साम्य, सम्मति, अन्न, अन्य आदि।


इसके पहले के लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें- (1), (2), (3), (4)

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अमरेंद्र कुमार सासाराम (बिहार) के निवासी हैं। वे हिंदी के प्राध्यापक रहे, बाद में सक्रिय पत्रकारिता की ओर मुड़ गए। कई अखबारों और पत्रिकाओं में वरिष्ठ पदों पर रहे। अमरेंद्र ने पत्रकारिता पर किताबें भी लिखी हैं। उनसे संपर्क 06184-222789, 09430565752, 09990606904 के जरिए या फिर [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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