इस तरह के फर्जी सर्वे से मीडिया को बाज आना चाहिए : पिछले दिनों देश की एक नामी पत्रिका में बेस्ट बिज़नस स्कूलों का सर्वे आया है. इसने आईआईएम, अहमदाबाद, बंगलोर, कलकत्ता और लखनऊ को तो टॉप बिज़नस स्कूलों में नाम दिया है लेकिन बाकी के चोटी के दस बिज़नस स्कूलों में जिन संस्थाओं का नाम दिया है वे बहुत सारे सवाल उठा देती हैं. इस लिस्ट में एफएमएस दिल्ली, आईआईएम इंदौर, आईआईएम कोजीकोड, आईएसबी हैदराबाद, एमडीआई गुडगाँव, आईआईटी दिल्ली, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस, मुंबई को टॉप टेन के लायक नहीं समझा गया है जबकि सबसे जादा विज्ञापन देने वाले एमिटी बिज़नस स्कूल को टॉप टेन में जगह दी गयी है.
सवाल पैदा होता है कि क्या यह सर्वे करने वाले लोगों के बच्चों को अगर एफएमएस दिल्ली, आईआईएम इंदौर, आईआईएम कोजीकोड, आईएसबी हैदराबाद, एमडीआई गुडगांव, आईआईटी दिल्ली, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस, मुंबई में दाखिला मिल जाए तो वे वहां से हटा कर अपनी लिस्ट के टॉप बिज़नस स्कूल एमिटी, सिम्बिओसिस, लीबा जैसे संस्थान में दाखिला दिलवा देंगें. ज़ाहिर है ऐसा कोई नहीं करेगा. सच्ची बात यह है कि इस देश में जब सबसे अच्छे बिज़नस स्कूलों का ज़िक्र आता है तो सबसे पहले दिमाग में आईआईएम का नाम आता है और वे ही इस देश के टॉप प्रबंध संस्थान माने जाते हैं. इसके बाद आईएसबी हैदराबाद, एमडीआई गुडगांव, आईआईटी दिल्ली, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेस, मुंबई जैसे नामी संस्थानों का शुमार किया जाता है लेकिन बड़ी पत्रिकाओं और मीडिया समूहों की ओर से सबसे जादा विज्ञापन देने वाले बिज़नस स्कूलों का नाम टॉप पर डाल देने से मीडिया की अपनी विश्वसनीयता, सवालों के घेरे में गिड़गिडाती हुई खड़ी हो जाती है.
मीडिया को अपनी लाज बचाने के लिए इस तरह के सर्वे से बाज़ आना चाहिए क्योंकि इन पत्रिकाओं की विश्वसनीयता बहुत ज्यादा होती है और सीधे सादे छात्र और उनके माता-पिता इनका भरोसा करके इन स्कूलों के चक्कर में आ जाते हैं और 2 साल का वक़्त बिताने और करीब 15 लाख रुपये खर्च करने के बाद जब जॉब मार्केट में जाते हैं या उसके पहले ही उन्हें पता लग जाता है कि एफएमएस दिल्ली तो बहुत ही अच्छा संस्थान है और वहां फीस भी बहुत कम लगती है, तो वे उस मैगजीन को शाप देते हैं जिसके सर्वे को पढ़ कर उन्होंने उस तथा कथित टॉप टेन बिज़नस स्कूल में दाखिला लिया था.
बिज़नस स्कूलों के सर्वे का यह खेल और उस से जुड़ी हेराफेरी कोई नई बात नहीं है. 1998 में जब इस पत्रिका का सर्वे आया था तो एफएमएस दिल्ली ने शिकायत की थी कि उनका नाम नीचे डाल दिया गया क्योंकि पत्रिका के प्रतिनधि ने विज्ञापन मांगा था जो नहीं दिया गया था. इस तरह के सर्वे का काम पूरे अमरीका और यूरोप में होता है. वहां होने वाले सर्वे आमतौर पर भरोसेमंद भी होते हैं. अगर वे हेराफेरी करते पाए जाते हैं तो उन पर मुक़दमा भी होता है और जुर्माना भी. शायद इसीलिए वहां की मीडिया कंपनियां गड़बड़ नहीं करतीं. लेकिन भारत में यह सारा काम नया है. शायद दस साल के करीब से यह धंधा चल रहा है. लेकिन अगर मीडिया हाउस फ़ौरन से पेश्तर संभल न गए तो उन्हें सज़ा भी होगी और जुर्माना भी क्योंकि इन्टरनेट के चलते उनकी पोल पट्टी किसी भी वेबसाइट पर खुल जायेगी.
मीडिया का जनवादीकरण हो चुका है. मीडिया पर धीरे-धीरे धन्ना सेठों की गिरफ्त कमज़ोर पड़ रही है और कुछ न्यायप्रिय नौजवान पत्रकार मीडिया को पूंजी के शिकंजे से मुक्ति दिलाने की क्रान्ति के हरावल दस्ते की अगुवाई कर रहे हैं.
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई न्यूज चैनलों व अखबारों में काम कर चुके हैं. उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं.
Rahul Trivedi
January 20, 2010 at 6:39 am
Guruji !! Media ab business aur dalali banti jaa rahi hai !!!! Iske purodha ab isko galat direction me le jaa rahe hai jo desh ke liye aur patrakarita ke liye bahut hi nirashajanak condition hai aur ye aage ki nasal ko bhi kharab kar degi !!!!!