मीडिया के घोड़े और उनका सच
मीडिया का एक चेहरा ऐसा भी है जो लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करता है। यह लोकतंत्र पाठक-मीडिया या फिर मीडिया-मीडिया के बीच का हो सकता है। मीडिया के इस चेहरे के लिए खबरें और खबरों के पीछे छिपी खबरें महज गॉसिप होती हैं अगर वो उसके आर्थिक उद्देश्यों और बाजारी बादशाही के उद्देश्यों की पूर्ति न करे। मंदी का रोना रोते मीडिया के उस चेहरे को कुख्यात माफियाओं के फुल पेज विज्ञापन छापने पर कोई ऐतराज नहीं।
लेकिन जब कभी वो इस चेहरे पर पड़े नकाब की धज्जियां उड़ते देखता है, तो वो कभी माध्यमों को गरियाने लगता है, तो कभी भाषाई पत्रकारिता को। मृणाल जी उन्हीं चेहरों को सजा-संवार रही हैं………
…अगर सच देखना हो तो निगाह बदलनी होगी, साथ में आइना भी। छोटे-छोटे कस्बों और शहरों का पत्रकार खास तौर से वो जो हिंदी अखबारों से जुड़े हैं, आज दाने-दाने को मोहताज हैं, अगर वो खुद को बेचता है, और ‘घोड़ों’ के द्वारा बनाये गए धर्म को बेचता है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि उसकी भी साँसे चलती रहें और खबरों की भी। जहाँ तक उसकी औसत छवि के आदर योग्य और उज्जवल न होने की बात है, इसका फैसला उनके हाथ में है जिनके लिए वो न सिर्फ खबरें लिखता है बल्कि उन खबरों के माध्यम से उन्हें कुछ देने की भी कोशिश करता है। इसके लिए उसे किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती। सही शब्दों में कहा जाए तो आज इन्ही भाषाई पत्रकारों एवं ब्लागर्स की वजह से खबरें जिन्दा हैं, शायद यही वजह है कि आज जनता की भारी भीड़ उनकी ओर उमड़ रही है। जनता जानती है कि जो कुछ भी बड़े व्यावसायिक घरानों द्वारा संचालित अखबारों में लिखा जा रहा है, उनमें से ज्यादातर ऐसे पूर्वाग्रह से प्रभावित हैं जिसका खुद पाठक भी विरोध नहीं कर पाता। उसे वही पढ़ाया जाता है जो आप पढ़ाना चाहते हैं, इसे हम वैचारिक राजशाही कहते हैं। ऐसे में अगर कोई ब्लॉगर या अखबारनवीस खबरों के साथ-साथ ‘घोडों’ की भी विवेचना करता है तो क्यूं बुरा लग रहा है…उसे ये करना चाहिए, यही पत्रकारिता का धर्म है, यही मर्म है।
जहां तक वसूली और खादानी पट्टे हासिल करने की बात है तो मृणाल जी बताएं कि उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद में तैनात ‘हिंदुस्तान’ के जिला संवाददाता ने अरबों रुपये कीमत के खनन पट्टे कैसे हासिल किये? इस पत्रकार के गोरखधंधों की व्यक्तिगत तौर पर जानकारी के बावजूद प्रबंधन और खुद मृणाल पाण्डेय चुप क्यूं हैं? …..
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