चिरानुच : जमानत पर वेब मीडिया की हिरोइन

चेरानुचक्या आप चिरानुच प्रेमचायपोर्न को जानते हैं? शायद नहीं! एक ऐसे वक्त में जब फेसबुक और ट्विट्टर से क्रांतियाँ हो रही हैं, समाचार पत्रों और व्यवसायिक चैनलों की कुकुरदौड़ से बिलकुल अलग वेब पर स्वतंत्र पत्रकारिता का अभिनव इतिहास लिखा जा रहा हो, ऐसे में चिरानुच को जानना बेहद जरुरी है. थाईलैंड की रहने वाली 32  वर्ष की चिरानुच फिलहाल जेल से जमानत पर छूटी हैं.

एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ का प्रेम

ये प्रेम 17 हजार करोड़ का प्रेम था। आजाद हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार की भट्टी से निकले 2जी नाम के इस सबसे बड़े जिन्न के पीछे न सिर्फ मंत्रियों, कार्पोरेट्स, लाबिस्टों और पत्रकारों के बीच चल रही दुरभि संधि थी, बल्कि एक प्रेम कहानी भी थी, ये प्रेम कहानी, बार बार अपने स्वप्नपुरुष को पाने में असफल रही। कनिमोझी और जल्द से जल्द आसमान छूने की हसरत रखने वाले बेहद महत्वाकांक्षी राजा की प्रेमकहानी थी।

”यही क्रांति है, इसे कभी खत्‍म नहीं होना चाहिए”

सेलफोन पर बजती मृदंग की धुन इस बार कुछ देर तक बजी,”भाभी प्रणाम मैं आवेश कैसे हैं सर”? भैया… जैसे मैंने उनकी आँखों में रूके आंसुओं के सैलाब के आगे खड़ी दीवार को तोड़ दिया, मैं उन बदकिस्मतों में था जिन्हें आलोक सर के कैंसर होने का सबसे पहले पता चला. वो मेरे लिए मेरे गुरु ही नहीं पिता सरीखे मेरे बड़े भाई थे. वो भाई जो मुझे जितना डांट लगाता था उससे कहीं ज्यादा प्रेम करता था.

शर्मनाक मीडिया, बेशर्म बुखारी

शाही इमाम अहमद शाह बुखारी नाराज हैं. उन्होंने वहीद को काफिर कहा और पीट दिया. वश चलता तो उसके सर कलम करने का फतवा जारी कर देते. हो सकता है कि एक दो दिनों में कहीं से कोई उठे और उसके सर पर लाखों के इनाम की घोषणा कर दे. वो मुसलमान था, उसे ये पूछने की जुर्रत नहीं होनी चाहिए थी कि क्यूँ नहीं अयोध्या में विवादित स्थल को हिन्दुओं को सौंप देते. वैसे मै हिन्दू हूँ और मुझमे भी ये हिम्मत नहीं है कि किसी से पूछूं कि क्यूँ भाई, कोर्ट के आदेश को सर आँखों पर बिठाकर इस मामले को यहीं ख़त्म क्यूँ नहीं कर देते. क्यूंकि मैं जानता हूँ ऐसे सवालों के अपने खतरे हैं, बुखारियों के वंशजों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चप्पे चप्पे पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है.

गंभीर मसले पर दैनिक जागरण की सतही पत्रकारिता

आवेश तिवारीदैनिक जागरण ने सोनभद्र-चंदौली और मिर्जापुर जिलों में एक के बाद एक ऐसी खबरें प्रकाशित की जिससे पुलिस के लिए तो मुश्किल खड़ी हो ही गई, आम आदमी भी भय और दहशत में जीने लगा. इस अखबार ने माओवादियों की तथाकथित बैठकों के अलावा बेहद शांत क्षेत्रों में माओवादियों के प्रवेश जैसी कथित खबरों को सनसनीखेज तरीके से, प्रमुखता से प्रकाशित किया. ऐसी कहानियां इस अखबार ने कई बार छापी.

न्यू मीडिया के कारवां में आवेश भी शामिल

: लांच किया नेटवर्क6 डाट इन : कहा जाता है कि सक्रिय ब्लागिंग की उम्र छह महीने होती है. कोई इसे साल भर तक खींच ले जाता है. फिर यदा-कदा लिखने लगता है अपने ब्लाग पर. पर कुछ ऐसे ब्लागर भी होते हैं जो ब्लागिंग से वेब का क ख ग घ सीख कर पोर्टल की तरफ छलांग लगा देते हैं. बावजूद इसके, हिंदी में ब्लागिंग व पोर्टल आर्थिक रूप से फायदे का सौदा कतई नहीं है, कई जर्नलिस्ट जो ब्लागर भी हैं, दनादन पोर्टल लांच कर रहे हैं. जर्नलिस्टों के साथ एक प्लस प्वाइंट ये जुड़ा है कि वे अपने संपर्क-संबंध के जरिए कई बार कुछ एक विज्ञापन जुटा कर पोर्टल के समुचित संचालन भर पैसे जुटा लेते हैं. लेकिन सबसे खास बात यह है कि नई जनरेशन के जर्नलिस्टों का परंपरागत मीडिया से तेजी से मोहभंग होने के साथ-साथ न्यू मीडिया के प्रति असीम प्यार का भाव पैदा हुआ है.

खबरिया दोजख में कराहती महिलायें

महिला छायामुनी भुयान, अमेरिकन वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले की बरसी पर कवरेज के लिए देश भर में चुने गए 11 पत्रकारों में से एक थीं। असमिया भाषा की ये पत्रकार कवरेज के बाद वापस हिंदुस्तान आईं। अपने अखबार के दफ्तर में लौटीं तो स्तब्ध रह गईं।

माँ बनने से डरती हैं महिला पत्रकार

”…अगर आपको अपना चेहरा दिखाकर या फिर बातों से प्रभावित करने या मक्खन लगाने की कला नहीं आती तो मीडिया जगत आपके लिए नहीं है. अगर आपका कोई गाडफादर नहीं है तो भी मीडिया आपके लिए नहीं है. ऐसे में आप मेरी तरह फांकाकशी करेंगे.

भिखमंगों के पीछे पड़े ख़बरों के भिखारी

हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित खबर

‘हिंदुस्तान’ को भिखमंगों से चिढ़ है. बात ‘हिंदुस्तान’ अखबार की हो रही है. अखबार ने रविवारीय अंक में दूसरे पृष्ठ पर ‘हिंदुस्तान ख़ास’ शीर्षक से एक खबर लगायी है.

ये हत्यारे पत्रकार

दैनिक न्यायाधीश में प्रकाशित खबरवो मुठभेड़ नहीं, पत्रकारों की सहमति मिलने के बाद दो बेगुनाहों की ठंडे दिमाग से की गई हत्या थी : 2 सितम्बर, 2003 : आदिवासियों का कलमकार कहे जाने वाले छोटे कद के विजय विनीत के लिए के लिए ये दिन भुलाना शायद बहुत मुश्किल होगा. दोपहर के 11 बजे थे जब अचानक जागरण कार्यालय की घंटी घनघना उठी… “मैं देव कुमार बोल रहा हूं, जरुरी खबर देनी थी. एस.पी. सत्यनारायण ने अभी बिरलाजी के गेस्ट हाउस में प्रेस मीटिंग बुलाई थी. सारे पत्रकार वहां थे. उन्होंने बताया है कि हमने दो लुटेरों को पकड़ा है, अगर आप मदद करें तो हम गोली मरवा दें. ये कई लोगों को लूट चुके हैं”

नरेंद्र मोहन और मायावती के जन्म दिवस के मायने

आवेश तिवारीदैनिक जागरण उर्फ प्रोफाइल फैक्टरी आफ मीडिया ने कल नरेन्द्र मोहन के जन्म दिवस को ‘प्रेरणा दिवस’ के रूप में जबरियन मनवाया : दैनिक जागरण के यशस्वी संपादक रहे स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन को आपमें से बहुतेरे लोग जानते होंगे. एक अखबार के मालिक, सम्पादक और राज्यसभा सदस्य के रूप में मैं भी उनको जानता हूं. मैं उन्हें एक प्रखर चिन्तक और दार्शनिक कवि के रूप में भी जानता हूं. मुझे ये भी पता है कि उनका अखबार अपने साप्ताहिक अंक में उनकी कवितायें नियम से प्रकाशित करता था. लेकिन एक बात मुझे अभी मालूम हुई. वो ये कि नरेन्द्र मोहन समकालीन हिंदी साहित्यकारों के अगुवा थे. ये बात मुझे अखबारी दुनिया के बहुरुपिये के रूप में चर्चित होते जा रहे दैनिक जागरण से ही मालूम हुई. खुद को देश में हिंदीभाषियों में सर्वश्रेष्ठ कहने वाले जागरण ने कल नरेन्द्र जी के जन्मदिवस पर जबरियन ‘प्रेरणा दिवस’ मनाया. पूरे देश में  जागरण समूह ने स्वयंसेवी संगठनों और एजेंसियों से मान-मनोव्वल करके और लालच देकर उन्हें आयोजक बना दिया और आज के अखबार के मुख्य पृष्ठ और अन्दर के पेजों पर ‘पूरे देश में मनाया गया प्रेरणा दिवस’ शीर्षक से खबर चस्पा कर दी. ये किसी भी व्यक्ति को जनप्रिय बनाने के अखबारी फंडेबाजी का सबसे बड़ा उदाहरण है. ऐसा नहीं है कि जागरण ये प्रयोग सिर्फ स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन के लिए कर रहा है. पूर्व के लोकसभा चुनाव और अब रहे विधानसभा चुनावों में प्रोफाइल मेकिंग का ये काम करोड़ों रुपए लेकर किया जा रहा है. नरेन्द्र जी की खूबियों और उनकी रचनाधर्मिता को साबित करवाने के लिए इस अवसर पर जो भी आयोजन किये गए, उनमे नामचीन साहित्यकारों को बुलवाकर स्वर्गीय नरेन्द्र जी का महिमा गान करवाया गया. चूंकि छोटे-बड़े साहित्यकारों में से ज्यादातर अभी तक अखबारी छपास की खुनक से मुक्त नहीं हो पाए हैं तो सभी ने नरेन्द्र जी का जम कर यशोगान किया. जागरण की बेबाकी और निष्पक्षता की शर्मनाक किस्सागोई की गयी. वहीँ ख़बरों की हनक से हड़कने वाले तमाम नौकरशाहों ने भी इस आयोजन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर  अखबार को सलामी ठोकी.

गैंग रेप, प्रेस, पुलिस, नेता और लोकतंत्र

फांस दिए तीन पत्रकार : सोनभद्र की तीन आदिवासी नाबालिग लड़कियों से सामूहिक बलात्कार की कवरेज करने वाले पत्रकार को मिली नौकरी से निलंबन और कोर्ट के चक्कर लगाते रहने की सजा। साथ में दो और पत्रकारों को पुलिस ने फांस दिया है। इतने संगीन मामले की लीपापोती में पुलिस, प्रेस और सत्ताधारी दल के नेता एक हो गए। महिला आयोग की भी भूमिका संदिग्ध रही। इस पूरे घिनौने खेल में उत्तर प्रदेश के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त एक सीनियर आईपीएस की करतूत सबसे शर्मनाक रही। पुलिस के दबाव में पीड़ित लड़कियों के अनपढ़ और सीधे-सादे पिता को ही पीड़ित पत्रकारों के खिलाफ गवाह बना दिया गया। इस तरह पूरा वाकया ही उलट गया। 

जवाब हम देंगे (4)

आवेश तिवारीमीडिया के घोड़े और उनका सच

मीडिया का एक चेहरा ऐसा भी है जो लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करता है। यह लोकतंत्र पाठक-मीडिया या फिर मीडिया-मीडिया के बीच का हो सकता है। मीडिया के इस चेहरे के लिए खबरें और खबरों के पीछे छिपी खबरें महज गॉसिप होती हैं अगर वो उसके आर्थिक उद्देश्यों और बाजारी बादशाही के उद्देश्यों की पूर्ति न करे। मंदी का रोना रोते मीडिया के उस चेहरे को कुख्यात माफियाओं के फुल पेज विज्ञापन छापने पर कोई ऐतराज नहीं।