: भाग 27 : ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ ने मेरठ की पत्रकारिता का परिदृश्य ही बदल दिया था। पहली बार मेरठ के पाठकों को अपने शहर और उसके आसपास की खबरें इतने विस्तार से पढऩे को मिलीं। अपने बीच की हस्तियों का पता चला, जिनके बारे में दिल्ली के अखबारों में कुछ नहीं छपता था। मेरठियों को इन अखबारों की आदत पड़ गयी। इससे इन अखबारों का सर्कुलेशन तेजी से बढ़ा।
फिर शुरू हुई ‘सर्कुलेशन वार’। इसकी योजना बड़े स्तर पर बनायी जाती। मध्यम स्तर इसके क्रियान्वयन की देखरेख करता। क्रियान्वित करने का जिम्मा होता निचले स्तर का। इस स्तर के लोग हॉकरों को पटाते कि भइया, हमारा अखबार ऊपर रखना। उच्च स्तर जरूरत पडऩे पर ही सामने आता।
हॉकरों को पार्टियां दी जातीं। उपहार दिये जाते। बड़े डीलरों के सामने यह सब होता, ताकि हॉकर अपने वादे से ना मुकरें। पहले तो हॉकरों को समझ ही नहीं आया कि ये हो क्या रहा है। उन्हें इसका जरा भी अनुभव नहीं था। दिल्ली के अखबारों की ‘सैटिंग’ डीलर ही कर देते थे। हॉकर उनके हाथों की कठपुतली थे। किसी भी अखबार के सर्कुलेशन की घट-बढ़ का उन्हें कोई फायदा नहीं होता था। पर ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ ने खेल ही बदल दिया। बाजी धीरे-धीरे बड़े डीलरों के हाथों से निकलकर हॉकरों के हाथों में आने लगी। इसकी एक वजह हॉकरों की संख्या का बढऩा भी था।
दोनों अखबारों ने नये हॉकर बनाने का चलन शुरू किया। इन नये हॉकरों को सर्कुलेशन के खेल के नये नियम सिखाये गये। हॉकरों में भी गुट बन गये। दोनों अखबारों के धड़े बन गये। कई बार टकराव की नौबत आ जाती। तब डीलर ही बीच-बचाव कराते। दोनों अखबारों के सर्कुलेशन विभाग के लोगों के सामने बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती रहती। इसलिए वे कई बार सीमाएं भी लांघ जाते। तब मामला उच्च स्तर पर सुलझाया जाता। इस स्पर्धा में हॉकरों की बन आयी। वे अपना कमीशन बढ़ाते चले गये। आखिर दोनों अखबारों में शीर्ष स्तर पर फैसला किया गया कि अपने सर्कुलेशन वार में हॉकरों को शामिल ना किया जाये।
कई हॉकर नौनिहाल के दोस्त थे। उनसे नौनिहाल को सर्कुलेशन का सारा दंद-फंद पता चलता रहता था। इसके लिए वे महीने में एक चक्कर टाउन हॉल का लगा देते थे। कई बार मैं भी उनके साथ गया। वहां अंदर की बातें भी पता चल जाती थीं। एक बार एक हॉकर ने बेहद राज की बात बतायी। अमर उजाला के धड़े की जागरण की धड़े से बहस हो गयी। जागरण बोला, ‘हमसे दो साल बाद आये हो मेरठ में। इसलिए हमेशा पीछे ही रहोगे सर्कुलेशन में। चाहे जितनी मर्जी कोशिश कर लो।’
जागरण ने जवाब दिया, ‘ये पहले-बाद में आने का राग छोड़ो। तुम्हें कई दंगे मिल चुके हैं यहां जमने के लिए। हमें अभी केवल एक दंगा मिला है। दो-तीन दंगे और हो जाने दो। फिर बात करना सर्कुलेशन की।’
‘हां-हां, देख लेंगे। दंगे की हमारी रिपोर्टिंग का जवाब है क्या तुम्हारे पास?’
‘दिखा देंगे। जवाब भी देंगे। बस, हमें दो-तीन दंगे और मिल जायें।’
हमें ये पता चला, तो काटो खून नहीं। दंगों से पूरा शहर परेशान हो जाता था। जान-माल का नुकसान होता था। महीनों तक गरीबों का बजट बिगड़ा रहता था। रोज मजदूरी करके कमाने-खाने वालों को कर्ज लेना पड़ता था। वे कभी-कभी तो सालों तक उस कर्ज को चुका नहीं पाते थे। और अखबारों के सर्कुलेशन वाले इन्हीं दंगों को अपने लिए फायदेमंद मान रहे थे…
मेरा मूड ऑफ हो गया। नौनिहाल ने कमर पर धप्पा मारते हुए कहा, ‘यार तू बहुत जल्दी इमोशनल हो जाता है। ये तो अपने धंधे की बात कर रहे हैं। इसे दिल पर लेने की क्या जरूरत है?’
‘दिल पर क्यूं ना लिया जाये? इनकी संवेदनशीलता तो मानो खत्म ही हो गयी है।’
‘ठीक है। तुझे अपने विभाग का ही उदाहरण देता हूं। जब किसी दुर्घटना में 50 लोगों के मरने की खबर आती है, तो हम भी कहते हैं- वाह, लीड मिल गयी।’
‘हम खबर के महत्व पर प्रतिक्रिया करते हैं इस तरह। पर यह कभी नहीं चाहते कि ऐसी कोई दुर्घटना हो।’
‘तो वे भी नहीं चाहते कि कभी दंगे हों। पर उन्हें यह लालसा जरूर रहती है कि दंगे हो गये, तो अखबार का फायदा हो जायेगा।’
‘पर लालसा तो रहती है ना?’
‘बच्चू, अभी तू आदर्शवाद से ऊपर नहीं उठा है। आदर्शवाद ठीक है। पर और भी बहुत सी चीजें हैं। उनका भी महत्व है। सबके तालमेल से ही बात बनती है।’
‘पर मैं तो पत्रकारिता में यह सोचकर आया था कि यह जन-सरोकार का पेशा है। इसमें संवेदनशीलता तो होनी चाहिए।’
‘संवेदनशीलता पर धंधा नहीं चलता। धंधा नहीं चले, तो दुनिया नहीं चलती। अखबारों में स्पर्धा होगी, तो संवेदनशीलता पर ही आंच आयेगी। इसलिए इस पर भावुक होने की जरूरत नहीं है। अभी तो तूने कुछ नहीं देखा है। आगे-आगे हालात और बदलेंगे।’
‘फिर तो पत्रकारिता मिशन न रहकर पेशा बन जायेगी।’
‘बिल्कुल बनेगी। अब अखबार निकालने में बहुत पूंजी लगती है। उसे जुटाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। पूंजी जुटाने के बाद उस पर लाभ भी चाहिए। इसलिए बाजार की नब्ज पर हाथ रखना जरूरी है।’
‘आप तो पूंजिपतियों की भाषा में बात कर रहे हैं।’
‘मैं यथार्थवादी हूं। किसी भ्रम या झूठे आदर्शवाद में नहीं रहता। इसीलिए तुझे एकदम स्पष्टï तरीके से बता रहा हूं कि आदर्शवादी होने के बजाय व्यावहारिक बनना जरूरी है।’
‘यह पलायन नहीं है क्या?’
‘किससे पलायन और कैसा पलायन?’
‘सच्चाई से। अखबार पर आम पाठक बहुत यकीन करता है। क्या ऐसा करके हम उसके भरोसे को नहीं तोड़ेंगे?’
‘भरोसे को तोडऩे की भी बात नहीं है। मैं झूठी खबरें छापने की बात तो कर नहीं रहा। खबर की सच्चाई के लिए तो मैं आखिरी सांस तक लडऩे को तैयार हूं। पर कोरे आदर्श की आड़ में यथार्थ से भी तो आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं।’
‘गुरू, आज पहली बार तुम्हारी बातें मेरे गले नहीं उतर रहीं। तुम्हारा अंदाज कुछ बदला-बदला सा नजर आ रहा है।’
‘यह मुद्दा बेहद जटिल है। लंबी बहस मांगता है। फिर कभी इस पर लंबी चर्चा करेंगे।’
नौनिहाल 1980 के दशक में यह सब कह रहे थे। तब मैं उनसे सहमत नहीं था। आज मैं इस बात को सोलह आने सच मानता हूं, पर वे हमारे बीच नहीं हैं…
… और आज आलम ये है कि मीडिया में हर चीज सैलिब्रेट कर ली जाती है। गुजरात के दंगे, उड़ीसा में ईसाइयों पर हमले, सुनामी, मुम्बई में 26 जुलाई 2005 की बाढ़, 11 जुलाई 2006 के ट्रेन विस्फोट, 26 नवम्बर 2008 का आतंकवादी हमला, ऑनर किलिंग, आरुषि हत्याकांड और मॉडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या… सूची अंतहीन है … और इन सबको मीडिया ने सैलिब्रेशन में तब्दील कर लिया।
नौनिहाल ने पत्रकारिता का कोई कोर्स नहीं किया था। उनका कोई गुरु भी नहीं था। फिर भी वे न केवल अच्छे पत्रकार बने, बल्कि दर्जनों युवा पत्रकारों को, सच कहा जाये तो, कलम पकड़कर लिखना भी सिखाया। पर इस सबसे बड़ी खूबी उनमें ये थी कि उनकी दृष्टि बहुत व्यापक और दूरगामी थी।
आज पेड न्यूज का जमाना है। मीडिया बाजार की धुन पर नाच रहा है। झूठे सपने दिखा रहा है। पाठक बेचारे परेशान। दर्शक हैरान। अधर में लटकी है सबकी जान। और मीडिया कभी भी गा उठता है- मेरा भारत महान। नौनिहाल मीडिया के व्यावसायिक रुख के तो समर्थक थे, पर शायद वे मीडिया को बाजार की कीमत पर जनता के असली मुद्दों को छोडऩे से बहुत दुखी होते। उन्होंने यह कल्पना नहीं की होगी कि 21वीं सदी की दूसरी दहाई तक मीडिया इतना गिर जायेगा!
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
Bishwajit
July 17, 2010 at 9:08 am
Is series ko kabhi band mat hone dijiyega Yashwant bhai. Bhuvendra Ji chalate rahen to achcha rahega. Bahut prerana milti hai.
Deep Chand Yadav
July 17, 2010 at 9:57 am
padh kar aisa laga ki aapne mere man ki baat kah dali hai.
Prakutha
July 20, 2010 at 8:42 pm
मैं कुछ और कहूँ तो कैसे ?
……लेकिन कहना चाहता हूँ …..और कहूँगा.
लम्बे इंतजार ने मुझे भले ही बोझिल बना दिया है लेकिन शब्दों का गणित बुद्धि के फलक पे घूम रहे हैं | कुछ कहने को बेताब मन कहाँ कुछ सुनने को चाहता है !
पत्रकारिता घूँघट से बहार रहती है सो लज्जा तसलीमा के लिए ९२ कि कथा का विश्राम ले रही होगी !
खैर बहोत अच्छा लगा की कहीं चिंगारी जलती रही ……कही लौ तेज़ तो कभी नीरव…
प्रकुठा
9811224623