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संपादक शब्द से बड़ा है हरिवंश का नाम

पुण्य प्रसून वाजपेयीप्रभात खबर के 25 साल पूरे होने पर दिग्गजों की राय (1) : अस्सी के दशक के भारत को अगर 2009 में पकड़ने की कोशिश की भी जाए तो सिवाय ग्रामीण जीवन के उथल-पुथल के नीचे दबी भावनाओं के अवशेष और शहरों में बुजुर्गों की खामोश अकुलाहट भरी शिकन के अलावा कुछ मिलेगा भी नहीं। इस दौर में राजनीति ही नहीं, जिंदगी जीने के तौर-तरीकों से लेकर रिश्तों और संबंधों में संवाद बनाने की समझ तक उलट चुकी है। आज अगर यह मुनादी करा दी जाए कि बीते 25 सालों में हमने क्या पाया, तो आवाज उठेगी आधुनिकीकरण। लेकिन इस आवाज के अंदर की खामोशी हाशिये पर घिसटती भावनाओं और शिकन के जरिए इस एहसास को जिएगी कि 25 साल के आधुनिकीकरण के दौर में हर शख्स अकेला होता जा रहा है। विकास की अंधी मोटी लकीर तले 25 साल में 25 लाख से ज्यादा लोग घर-बार गंवा बैठे। एक लाख से ज्यादा किसान-मजदूर से लेकर ग्रामीण आदिवासियों ने खुदकुशी कर ली।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

पुण्य प्रसून वाजपेयीप्रभात खबर के 25 साल पूरे होने पर दिग्गजों की राय (1) : अस्सी के दशक के भारत को अगर 2009 में पकड़ने की कोशिश की भी जाए तो सिवाय ग्रामीण जीवन के उथल-पुथल के नीचे दबी भावनाओं के अवशेष और शहरों में बुजुर्गों की खामोश अकुलाहट भरी शिकन के अलावा कुछ मिलेगा भी नहीं। इस दौर में राजनीति ही नहीं, जिंदगी जीने के तौर-तरीकों से लेकर रिश्तों और संबंधों में संवाद बनाने की समझ तक उलट चुकी है। आज अगर यह मुनादी करा दी जाए कि बीते 25 सालों में हमने क्या पाया, तो आवाज उठेगी आधुनिकीकरण। लेकिन इस आवाज के अंदर की खामोशी हाशिये पर घिसटती भावनाओं और शिकन के जरिए इस एहसास को जिएगी कि 25 साल के आधुनिकीकरण के दौर में हर शख्स अकेला होता जा रहा है। विकास की अंधी मोटी लकीर तले 25 साल में 25 लाख से ज्यादा लोग घर-बार गंवा बैठे। एक लाख से ज्यादा किसान-मजदूर से लेकर ग्रामीण आदिवासियों ने खुदकुशी कर ली।

इतनी बड़ी तादाद में भी हर कोई अकेला ही रहा। यानी लाखों अकेले लोगों की मौत को आधुनिक समाज अपने बचे रहने के सुकून में टटोल रहा है। ऐसे में कोई अखबार अगर इस अकेले होने के खौफ से लड़ता हो, आधुनिक बनते समाज के अंदर के बुझे हुए मन को जगाने का प्रयास करता हो, रस्म अदायगी में बदल चुके सरोकार को ही पत्रकारीय जमीन मानने और फिर बनाने में भिड़ा हो तो इसे महज ‘प्रभात खबर’ ही कह कर टाला नहीं जा सकता।

असल में पत्रकारीय समझ ‘प्रभात खबर’ की पत्रकारिता को संघर्ष का तमगा दे सकती है लेकिन मुझे लगता है कि यह संपादक की निजी साधना है, जिसमें उसने आजादी के बाद बनते भारत को अपनी कोमल भावनाओं में समेटा है और सत्तर-अस्सी के दशक में उन्हीं कोमल भावनाओं को टूटते या फिर पिसते हुए देखा भी होगा और भोगा भी होगा। और, उसी के बाद देश और समाज को अपनी कठोर हथेलियों में मथना शुरू किया होगा जिसे कभी नन्हें हाथों से कागज या बालू पर संजोया होगा।

पत्रकारीय भाषा में कह सकते हैं कि संपादक कभी निजता में नहीं जीता। उसका जीवन ही सार्वजनिक होता है, तभी वह संपादक होता है। लेकिन ‘प्रभात खबर’ को बाहर-अंदर से जितना मैंने देखा है, उसमें संपादक शब्द पर हरिवंश का नाम मुझे अक्सर उपर और बड़ा लगा है क्योंकि दो दशकों से कोई शख्स बतौर संपादक एक अखबार को जीवन से जोड़ने में लगा हो तो वह महज संपादकीय जरूरत नहीं हो सकती। यह निज साधना है, जिसमें समाज व्यवस्था का कसैलापन चखते हुए उसे स्वाद और जिंदगी से जोड़ने की जद्दोजहद का ऐसा दौर है जिसे दो दशकों में बदलता वक्त भी डिगा नहीं पाता। यह कहना आजादी के उस हवा में सांस लेना सरीखा है या कहें उस आधुनिकीकरण को चुनौती देना है जिसकी आंधी में हर रिश्ता और हर सत्ता बदल गयी लेकिन हरिवंश जी प्रभात खबर के जरिए हर काल-खंड को पिरोते रहे। पत्रकारीय प्रयोग प्रोफेशनल शब्द है लेकिन, पत्रकारीय जीवन गैर आधुनिक और बाजारवाद में ना टिक पाने वाला शब्द है। इन दोनों को साथ मिलाकर जो पत्रकारीय संसार प्रभात खबर के जरिए हरिवंश जी ने फैलाया है, उसमें बतौर पाठक मैंने भी महसूस किया है मैं भी इस अखबार से जुड़ा हूं। और ना जुड़ूं तो पत्रकारीय जीवन अधूरा-सा है। यह सफलता प्रभात खबर की है।

यह बेहद मुश्किल है कि जब हर क्षेत्र में सत्ता बाजार और मुनाफे को आखिरी सच मानने को बेताब हो तब आप बाजार-मुनाफे के बीच उस समाज को भी छूने का प्रयास करें जो हाशिये पर है। उसे भी आवाज दें जिसकी आवाज वक्त के साथ दौड़ने की सोचने मात्र से हांफने लगती है। मैं हरिवंश जी को संपादक से ऊपर इसलिए मानता हूं कि जो राजनीति बीस साल बाद मंडल-कमंडल का चक्र पूरा करने के बावजूद अपनी मौजूदगी को सत्ता में जीना चाहती है और जो आर्थिक सुधार 18 साल बाद बाजार की थ्योरी के ढहने के बावजूद खुद को 1991 की ही तर्ज पर खड़ा करने में जुटा है वहां प्रभात खबर के जरिए हरिवंश जी ने उस मिथ को तोड़ा है कि अखबार बाजार का हिस्सा है। प्रभात खबर ने दिखलाया कि बाजार के आगे समाज है, प्रभात खबर उसी समाज का हिस्सा है जिसके आगे 25 साल का आधुनिकीकरण भी कोई मायने नहीं रखता।


लेखक पुण्य प्रसून वाजपेयी देश के जाने-माने पत्रकार हैं। इन दिनों वे ‘जी न्यूज’ में बतौर संपादक कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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0 Comments

  1. ek chatra

    October 26, 2010 at 2:00 am

    Prasun Sir,
    Bilkul thik likha hai aapne.
    Main Barakar, Dist- Burdwan (W.B) karehne wala hun or simavarti ilaka hone ke karan jharkhand se bhi juda hua hun. is beech ekbaat jo reh reh kar samne aati hai woh hai k prabhat khabar ne kabhi bhi jagran evam Hindustan ki tarz par Glamaour patrakarita nahi ki. Dhanbad se chapne wale tino akhbaro ko agar dekha jaye to prabhat khabar usme khara utarta hai. or haan yaha par kaam karne ka mahol bhi behtar mana jata hai (jaisa ki mujhe karyarat logo ne bataya). Apadhapi bhare mahole me is prakar khabariya akhbar ye andaaz dekhte hi banta hai. Aaj jis prakar se Jagran ne Jharkhand evam Bengal me khabaro ka bazarikaran kiya hai woh dekhte hi banta hai.

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