‘सारा खेल राजदीप, पुण्य प्रसून और राहुल कंवल ने बिगाड़ा”

यशवंत जी, आप चाहें जो लिखें-कहें, लेकिन सच यही है कि अगर कोई बात लिखित रूप से तय हुई है, इंबारगो के बारे में सब कुछ सबकी सहमति से तैयार हो गया तो फिर इसे तोड़ना न सिर्फ अनैतिक है बल्कि किसी पर भी भरोसा न करने जैसा ट्रेंड पनपाने वाला है. पहले से ही तमाम तरह के आरोपों से घिरी मीडिया को एक बार फिर मीडिया वालों ने ही अनैतिकता के गड्ढे में धक्का दे दिया है. सारा खेल राजदीप चौरसिया, राहुल कंवल और पुण्य प्रसून ने बिगाड़ा.

5 कॉरपोरेट घरानों के 10 फीसदी से ज्यादा शेयर आधे दर्जन न्यूज चैनलों में है!

: 27 न्यूज चैनलों का लाइसेंस ऐसे धंधेबाजों को दिया गया जो सरकारी एंजेसियों में ब्लैकलिस्टेड हैं : पत्रकारिता कैसे नौकरी में बदल दी गयी और नौकरी का मतलब कुछ भी करना, कैसे जायज हो गया, यह कॉरपोरेटपरस्त पुराने घुरंधर पत्रकारों को देखकर समझा जा सकता है : मीडिया के आभामंडल की तसदीक जब सरकार में पहुंच से हो तो साख का मतलब होता क्या है, यह समझना भी जरूरी है :

अरुण पुरी ने कहा- टीआरपी भूलो, खबर पर लौटो!

आजतक न्यूज चैनल के बुरे हाल ने इसके मालिक अरुण पुरी की कुंभकर्णी नींद तोड़ दी है. खबर है कि उन्होंने पिछले दिनों चैनल के शीर्षस्थ लोगों की एक बैठक बुलाई और दो टूक कह दिया कि आप लोग अब टीआरपी की चिंता छोड़ दें, प्रलय और ज्योतिष आदि दिखाने बंद कर दें, हार्डकोर खबरों की तरफ लौटें, क्योंकि टीआरपी की चिंता ने चैनल की जो दुर्गति कर दी है, उससे ज्यादा दुर्गति अब ठीक नहीं. सूत्रों के मुताबिक अरुण पुरी का ऐसा आदेश इसलिए देना पड़ा क्योंकि इंडिया टीवी ने आजतक की चूलें हिला दी है.

नेता खुश हुआ क्योंकि उसकी खींची लकीर पर मीडिया चल पड़ा

पुण्य प्रसून वाजपेयीमीडिया न हो, तो अन्ना का आंदोलन क्या फ़ुस्स हो जायेगा. मीडिया न होता, तो क्या रामदेव की रामलीला पर सरकारी कहर सामने आ नही पाता. और, सरकार जो खेल महंगाई, भ्रष्टाचार या कालेधन को लेकर खेल रही है, वह खेल बिना मीडिया के सामने आ नहीं पाता. पर जो कुछ इस दौर में न्यूज चैनलों ने दिखाया और जिस तरह सरकार ने एक मोड़ पर आकर यह कह दिया कि अन्ना की टीम संसद के समानांतर सत्ता बनाना चाहती है…

पुण्य प्रसून का ओजस्वी भाषण, यशवंत का मंत्री से दमदार सवाल

: पुण्य बोले- इस सभागार में उदयन शर्मा या एसपी या राजेन्द्र माथुर होते तो संपादकों के वक्तव्य सुनने के बाद उठकर चले जाते : यशवंत ने अंबिका सोनी के समक्ष स्ट्रिंगरों का मुद्दा उठाया- लाखों रुपये लेने वाले संपादकों नहीं देते अपने स्ट्रिंगरों को पैसे : मीडिया की दयनीय दशा का वर्णन करने वाला पंकज पचौरी का भाषण अंबिका सोनी को पसंद आया :

नक्सलबाड़ी से जंगल महल

पुण्य प्रसूनआमार बाड़ी नक्सलबाड़ी. यह नारा 1967 में लगा, तो सत्ता में सीपीएम के आने का रास्ता खुला. और पहली बार 2007 में जब आमारबाड़ी नंदीग्राम का नारा लगा, तो सत्ता में ममता बनर्जी के आने का रास्ता खुला. 1967 के विधानसभा चुनाव में पहली बार कांग्रेस हारी और पहली बार मुख्यमंत्री प्रफ़ुल्ल चंद्र सेन भी हारे. वहीं 2011 में पहली बार सीपीएम हारी और पहली बार सीपीएम के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी हारे.

इन लेखों को पढ़कर कुछ सोचिए, कुछ कहिए

पुण्य प्रसून बाजपेयी और रवीश कुमार. ये दो ऐसे पत्रकार हैं जो मुद्दों के तह में जाकर सच को तलाशने की कोशिश करते हैं. इनके टीवी प्रोग्राम्स, लेखों के जरिए किसी मुद्दे के कई पक्ष जानने-समझने को मिलते हैं. आनंद प्रधान अपने लेखों के जरिए अपने समय के सबसे परेशानहाल लोगों की तरफ से आवाज उठाते हैं, सोचते हैं, लिखते हैं. तीनों का नाता मीडिया से है. पुण्य और रवीश टीवी जर्नलिज्म में सक्रिय हैं तो आनंद मीडिया शिक्षण में. इनके एक-एक लेख को उनके ब्लागों से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है. -एडिटर

नकवी जी की सेलरी 10 लाख रुपये महीने है!

अनुरंजन झा ने अपनी संपत्ति घोषित करते हुए अपनी सेलरी का जो खुलासा किया है, उसके आधार पर लोग टीवी इंडस्ट्री के बिग बॉसों की सेलरी का अंदाजा लगाने लगे हैं और इस तरह ”सेलरी रहस्य” से पर्दा उठने लगा है. अनुरंजन ने खुद लिखित रूप से बताया कि वे सालाना तीस लाख रुपये के पैकेज पर सीएनईबी गए हैं. महीने का ढाई लाख रुपये हुआ. लेकिन ये सेलरी कुछ नहीं है, अगर आप सुनेंगे कि दूसरे न्यूज चैनलों के संपादकों की सेलरी क्या है.

खबरों का पीछा करता एक संपादक

पुण्य प्रसून बाजपेयीखबर को जब हाशिये पर ढकेलने की जद्दोजहद हो रही हो… खबरों को लेकर सौदेबाजी का माहौल जब संपादकों के कैबिन का हिस्सा बन रहा हो तब कोई संपादक खबर मिलते ही कुर्सी से उछल जाये और ट्रेनी से लेकर ब्यूरो चीफ तक को खबर से जोडऩे का न सिर्फ प्रयास करें बल्कि फोटोग्राफर से लेकर मशीनमैन और चपरासी तक को खबर को चाव से बताकर शानदार ले-आउट के साथ बेहतरीन हैडिंग तक की चर्चा करें तो कहा जा सकता है कि वह संपादक, संपादक नहीं जुनून पाल कर खबरों को जीने का आदी है। और यह जुनुन सरकारी रिटायमेंट की उम्र पार करने के बाद भी हो तब आप क्या कहेंगें. जी, एसएन विनोद ऐसे ही संपादक हैं।

‘नक्सल समस्या सामाजिक-आर्थिक मुद्दा नहीं’

ऐसा गृह मंत्रालय की एडवाइजरी में न्यूज चैनलों से कहा गया है : जितने कैमरे, जितनी ओबी वैन, जितने रिपोर्टर, जितना वक्त सानिया-शोएब निकाह को न्यूज चैनलों में दिया गया, उसका दसवां हिस्सा भी दंतेवाडा में नक्सली हमले को नहीं दिया गया। 6 अप्रैल की सुबह हुये हमले की खबर ब्रेक होने के 48 घंटे के दौर में भी नक्सली हमलों पर केन्द्रित खबर से इतर आएशा-शोएब के तलाक को हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों ने ज्यादा महत्व दिया।

एंकर फिल्मी हीरो, संपादक फिल्म प्रोड्यूसर

[caption id="attachment_16038" align="alignleft"]पुण्य प्रसून बाजपेयीपुण्य प्रसून बाजपेयी[/caption]धंधे में सीधे शिरकत करने वाला सफल मीडियाकर्मी! : मीडिया से कौन निकल कर कहेगा कि माई नेम इज गणेश शंकर विद्यार्थी और मैं पत्रकार नहीं हूं : लोकतंत्र के चार खम्भों में सिनेमा की कोई जगह है नहीं, लेकिन सिल्वर स्क्रीन की चकाचौंध सब पर भारी पड़ेगी यह किसने सोचा होगा। “माई नेम इज खान” के जरिये सिनेमायी धंधे के मुनाफे में राजनीति को अगर शाहरुख खान ने औजार बना लिया या राजनीति प्रचार तंत्र का सशक्त माध्यम बन गयी, तो यह एक दिन में नहीं हुआ है। एक-एक कर लोकतंत्र के ढ़हते खम्भों ने सिनेमा का ही आसरा लिया और खुद को सिनेमा बना डाला। 1998-99 में पहली बार बॉलीवुड के 27 कलाकारों ने रजनीति में सीधी शिरकत की। नौ बड़े कलाकारों से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने संपर्क साधा और उन्‍हें संसद में पहुंचाया, 62 कलाकारों ने चुनावी प्रचार में हिस्सा लिया। और, 2009 तक बॉलीवुड से जुड़े 200 से ज्यादा कलाकार ऐसे हो गये, जिनकी पहुंच-पकड़ अपने-अपने चहेते दलों के सबसे बड़े नेताओं के साथ भी सीधी हो गयी।

चैनल, केबल, टीआरपी, गोद, कोख, ठहाका

पुण्य प्रसून बाजपेयीइस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलों में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि ‘अरे, यह तो पत्रकार है’ :  वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो, उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं। राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे, वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।

बस पत्रकार रहिये और एकजुट होइये

पुण्य प्रसून बाजपेयीसवाल पत्रकारिता और पत्रकार का था और प्रतिक्रिया में मीडिया संस्थानों पर बात होने लगी। आलोक नंदन जी, आपसे यही आग्रह है कि एक बार पत्रकार हो जाइये तो समझ जायेंगे कि खबरों को पकड़ने की कुलबुलाहट क्या होती है? सवाल ममता बनर्जी का नहीं है। सवाल है उस सत्ता का जिसे ममता चुनौती दे भी रही है और खुद भी उसी सत्ता सरीखा व्यवहार करने लगी हैं। यहां ममता के बदले कोई और होता तो भी किसी पत्रकार के लिये फर्क नहीं पड़ता। और जहां तक रेप शब्द में आपको फिल्मी तत्व दिख रहा है तो यह आपका मानसिक दिवालियापन है। आपको एक बार शोमा और कोमलिका से बात करनी चाहिये……कि हकीकत में और क्या क्या कहा गया…और उन पर भरोसा करना तो सीखना ही होगा। जहां तक व्यक्तिगत सीमा का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि किसी पत्रकार के लिये कोई खबर पकड़ने में कोई सीमा होती है। यहां महिला-पुरुष का अंतर भी नहीं करना चाहिये …पत्रकार पत्रकार होता है।

पत्रकारिता कैसे की जाये?

शोमा दास की उम्र सिर्फ 25 साल की है। पत्रकारिता का पहला पाठ ही कुछ ऐसा पढ़ने को मिला कि हत्या करने का आरोप उसके खिलाफ दर्ज हो गया। हत्या करने का आरोप जिस शख्स ने लगाया संयोग से उसी के तेवरों को देखकर और उसी के आंदोलन को कवर करने वाले पत्रकारों को देखकर ही शोमा ने पत्रकारिता में आने की सोची। या कहें न्यूज चैनल में बतौर रिपोर्टर बनकर कुछ नायाब पत्रकारिता की सोच शोमा ने पाल रखी थी।

पुण्य प्रसून वाजपेयी का माफीनामा

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित आलेखइशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ को सनसनीखेज बनाने के हमारे पेशे के आचरण पर उंगली उठायी गयी थी. एक न्यायिक अधिकारी की रिपोर्ट आने के बाद भड़ास4मीडिया में हमने भी इस मुद्दे पर बहस शुरू की थी. एक लेख में कहा गया था कि सनसनी फैलाने वाले चैनल माफी मांगें. उस वक़्त के सबसे लोकप्रिय चैनल में बड़ी जिम्मेदारी के पद पर काम कर रहे एक बड़े पत्रकार ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि “इशरत, हमें माफ़ कर दो”. पत्रकारिता के पेशे में ऐसे बहुत कम लोग हैं जो अपनी गलती को ऐलानियाँ स्वीकार कर सकें. बहुत ज़्यादा हिम्मत, बहादुरी और पेशे के प्रति प्रतिबद्धता चाहिए ऐसा करने के लिए. देश के बड़े टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने न केवल माफी माँगी है बल्कि उसे सार्वजनिक कर दिया है.

संपादक शब्द से बड़ा है हरिवंश का नाम

पुण्य प्रसून वाजपेयीप्रभात खबर के 25 साल पूरे होने पर दिग्गजों की राय (1) : अस्सी के दशक के भारत को अगर 2009 में पकड़ने की कोशिश की भी जाए तो सिवाय ग्रामीण जीवन के उथल-पुथल के नीचे दबी भावनाओं के अवशेष और शहरों में बुजुर्गों की खामोश अकुलाहट भरी शिकन के अलावा कुछ मिलेगा भी नहीं। इस दौर में राजनीति ही नहीं, जिंदगी जीने के तौर-तरीकों से लेकर रिश्तों और संबंधों में संवाद बनाने की समझ तक उलट चुकी है। आज अगर यह मुनादी करा दी जाए कि बीते 25 सालों में हमने क्या पाया, तो आवाज उठेगी आधुनिकीकरण। लेकिन इस आवाज के अंदर की खामोशी हाशिये पर घिसटती भावनाओं और शिकन के जरिए इस एहसास को जिएगी कि 25 साल के आधुनिकीकरण के दौर में हर शख्स अकेला होता जा रहा है। विकास की अंधी मोटी लकीर तले 25 साल में 25 लाख से ज्यादा लोग घर-बार गंवा बैठे। एक लाख से ज्यादा किसान-मजदूर से लेकर ग्रामीण आदिवासियों ने खुदकुशी कर ली।

न्यूज चैनल कई पैंतरे अपनाएंगे ही

[caption id="attachment_15417" align="alignleft"]पुण्य प्रसून वाजपेयीपुण्य प्रसून वाजपेयी[/caption]आर्थिक तौर पर कमजोर और राजनीतिक तौर पर मजबूत बजट को देश में संकट की परिस्थितियों से जोड़ कर कैसे दिखाया जाए, न्यूज चैनलों के सामने यह एक मुश्किल सवाल है। यह ठीक उसी तरह की मुश्किल है, जैसे देश में बीस फीसदी लोग समझ ही नहीं सकते कि प्रतिदिन 20 रुपये की कमाई से भी जिन्दगी चलती है और उनकी अपनी जेब में बीस रुपये का नोट कोई मायने नहीं रखता है। कह सकते हैं कि न्यूज चैनलों ने यह मान लिया है कि अगर वह बाजार से हटे तो उनकी अपनी इक्नॉमी ठीक वैसे ही गड़बड़ा सकती है, जैसे कोई राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद देश की समस्याओं को सुलझाने में लग जाये। और आखिर में सवाल उसी संसदीय राजनीति पर उठ जाये, जिसके भरोसे वह सत्ता तक पहुंचा है।

मीडिया-राजनीति-नौकरशाही का काकटेल

पुण्य प्रसून वाजपेयी

मीडिया को अपने होने पर संदेह है। उसकी मौजूदगी डराती है। उसका कहा-लिखा किसी भी कहे लिखे से आगे जाता नहीं। कोई भी मीडिया से उसी तरह डर जाता है जैसे नेता….गुंडे या बलवा करने वाले से कोई डरता हो। लेकिन राजनीति और मीडिया आमने-सामने हो तो मुश्किल हो जाता है कि किसे मान्यता दें या किसे खारिज करें। रोना-हंसना, दुत्काराना-पुचकारना, सहलाना-चिकोटी काटना ही मीडिया-राजनीति का नया सच है। मीडिया के भीतर राजनीति के चश्मे से या राजनीति के भीतर मीडिया के चश्मे से झांक कर देखने पर कोई अलग राग दोनों में नजर नहीं आयेगा। लेकिन दोनों प्रोडेक्ट का मिजाज अलग है, इसलिये बाजार में दोनों एक दूसरे की जरुरत बनाये रखने के लिये एक दूसरे को बेहतरीन प्रोडक्ट बताने से भी नहीं चूकते। यह यारी लोकतंत्र की धज्जिया उड़ाकर लोकतंत्र के कसीदे भी गढ़ती है और भष्ट्राचार में गोते लगाकर भष्ट्राचार को संस्थान में बदलने से भी नही हिचकती।

इस रिपोर्ट ने पुण्य को दिलाया प्रिंट का एवार्ड

ब्लागमशहूर पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी को दो बार रामनाथ गोयनका एक्सलेंस एवार्ड  दिया जा चुका है। पहली बार उन्हें टीवी के लिए दिया गया था, इस बार प्रिंट के लिए मिला। एक टीवी जर्नलिस्ट को प्रिंट के लिए गोयनका एवार्ड देने पर कई लोगों को थोड़ा अजीब लगा तो कुछ लोगों ने दबी जुबान से एवार्ड देने में मशहूर और नामी पत्रकारों को तवज्जो देने और हिंदी अखबारों के पत्रकारों को उपेक्षित रखने का आरोप लगाया। पुण्य प्रसून ने 13 अप्रैल 2009 को गोयनका एवार्ड लेने के बाद इसके अगले दिन 14 अप्रैल को अपने ब्लाग पर वो पूरी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसके लिए उन्हें यह एवार्ड देने लायक समझा गया। पुण्य ने स्वीकार किया है कि इस रिपोर्ट को कवर करने के लिए और दिखाने के लिए न्यूज चैनल में स्पेस नहीं था।

29 पत्रकार प्रतिष्ठित गोयनका एवार्ड से सम्मानित

[caption id="attachment_14684" align="alignnone"]जर्नलिस्ट आफ द ईयर एवार्ड लेते पी साईंनाथ (दाहिने)। बीच में हैं भारत के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन। बाएं हैं एक्सप्रेस ग्रुप के चेयरमैन विवेक गोयनका।जर्नलिस्ट आफ द ईयर एवार्ड लेते पी साईंनाथ (दाहिने)। बीच में हैं भारत के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन। बाएं हैं एक्सप्रेस ग्रुप के चेयरमैन विवेक गोयनका।[/caption]

दिल्ली में सोमवार को आयोजित एक समारोह में भारत के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म एवार्ड्स (वर्ष 2007-08) से विजेताओं को नवाजा। ब्राडकास्ट और प्रिंट के लिए क्रमशः करन थापर और पी. साईंनाथ को जर्नलिस्ट आफ द ईयर एवार्ड दिया गया। करन थापर टीवी कमेंटेटर और इंटरव्यूवर हैं। पी. साईंनाथ अंग्रेजी अखबार द हिंदू से जुड़े हुए हैं। कुल 29 पत्रकारों को विभिन्न श्रेणियों में गोयनका एवार्ड दिया गया। ये पुरस्कार द एक्सप्रेस ग्रुप की तरफ से इसके संस्थापक रामनाथ गोयनका की याद में हर साल दिया जाता है। पुरस्कार के लिए बनाई गई चयन समिति के सदस्य हिंदुस्तान टाइम्स की चेयरपर्सन और एडिटोरियल डायरेक्टर शोभना भरतिया, फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल,  कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन, इनफोसिस के चीफ मेंटर एनआर नारायण मूर्ति और एडवोकेट फाली एस नरीमन हैं। पुरस्कार पाने वालों में ज्यादातर पत्रकार अंग्रेजी के हैं। हिंदी में पुण्य प्रसून वाजपेयी, उमाशंकर सिंह और अभिषेक उपाध्याय को पुरस्कार दिया गया है।

पुरस्कार की 25 श्रेणियां और इसे पाने वाले 29 पत्रकारों के नाम इस प्रकार हैं-

लाखों की सेलरी लेकर शीशे से दुनिया देखते हैं जर्नलिस्ट

अब जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई है, खबर समझने के लिए इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा, आज तक चैनल छोड़ते वक्त एक्जिट नोट में लिखा था…”अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं”

पुण्य प्रसून वाजपेयी

हमारा हीरो 

पुण्य प्रसून वाजपेयी। जिनका नाम ही काफी है। समकालीन हिंदी मीडिया के कुछ चुनिंदा अच्छे पत्रकारों में से एक। कभी आज तक, कभी एनडीटीवी, कभी सहारा तो अब जी न्यूज के साथ।