संपादक बने बनवारी जो समाजवादी युवजन सभा में रहे थे, रिपोर्टिंग के हेड थे रामबहादुर राय जो विद्यार्थी परिषद के ‘होल टाइमर’ थे, जयप्रकाश शाही नक्सलियों के करीब थे, सुरेंद्र किशोर, खुद की तरह गांधीवादी, हरिशंकर व्यास- पहले संघ के साप्ताहिक पांचजन्य में रहे थे, गोपाल मिश्र- बाद में कांग्रेस साप्ताहिक के संपादक बने, महादेव चौहान-घोर लेफ्टिस्ट, परमानंद पांडे और उमेश जोशी- ट्रेड यूनियनिस्ट, राकेश कोहरवाल शुद्ध खबरची : खाड़कू, मरजीवड़े, चिरकुट, चंडूखाना, अपन… न जाने कितने शब्द चलन में लाए : न लाग, न लपेट, खरी-खोटी वाले थे प्रभाष जी :
कोई माने, न माने। प्रभाष जोशी के साथ ही मिशनरी पत्रकारिता का अंत हो गया। मिशनरी पत्रकारिता के वही थे आखिरी स्तंभ। यों उनके जमाने में ही पत्रकारिता व्यवसायिक हो गई। प्रभाष जी का आखिरी साल तो व्यवसायिकता के खिलाफ जंग में बीता। चुनावों में जिस तरह अखबारों ने न्यूज कंटेंट बेचने शुरू किए। उनने उसके खिलाफ खम ठोक लिया। उनने लिखा- ‘ऐसे अखिबारों का रजिस्टे्रशन रद्द कर प्रिटिंग प्रेस के लाइसेंस देने चाहिए’। इन्हीं महाराष्ट्र, हरियाणा, अरुणाचल के चुनावों में उनने निगरानी कमेटियां बनाई। पत्रकारिता की स्वतंत्रता को जिंदा रखने की आग थी प्रभाष जी में। प्रभाष जी पांच नवंबर को भारत-आस्ट्रेलिया मैच देखते-देखते सिधार गए।
प्रभाष जी की दो दिवानगियां देखते ही बनती थी। उन्हीं में एक दीवानगी उनके सांस पखेरू उड़ा ले गई। क्रिकेट मैच में हार का सदमा नहीं झेल पाए। हार्ट अटैक से चले गए। दूसरी दिवानगी थी- पाखंडी नेताओं की चड्ढी उतारना। वह किसी की तारीफ करने में आते। तो पुल बांध देते। उतारने में आते। तो चड्ढी तक उतार देते थे। चंद्रशेखर के पक्ष में खड़े हुए तो जमकर जुए। विरोध में उतरे तो भोडंसी के संत की उतारकर रख दी। चंद्रशेखर के जमाने में अयोध्या विवाद के बिचौले थे। तो बाबरी ढांचा टूटने पर तो परशुराम बन गए। आडवाणी और नरसिंह की धज्जियां उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। नरसिंह राव को ‘मौनी बाबा’ का नाम उन्हीं ने रखा था। आडवाणी के खिलाफ आग उगलते शब्दबाण चलाते रहे। पर मित्रता में जरा खोट नहीं आया। अपने ही आग्रह पर जब पार्थिवदेह गांधी शांति प्रतिष्ठान में रखना तय हुआ तो श्रद्धांजलि देने जो दो नेता पहुंचे। उनमें एक तो आडवाणी ही थे। दूसरे शरद यादव।
आतंकियों को खाड़कू। फिदायिनों को मरजीवड़े बोलचाल के शब्द थे। हिंदी पत्रकारिता ने पहले ऐसे शब्द न किसी ने पढ़े थे, न किसी ने लिखे थे। छुटभैय्ये नेताओं को चिरकुट। फालतू फंड की दलीलों को चंडूखाना। और अपन यहां जो ‘अपन’ शब्द लिख रहे। वह भी लिखित में पहली बार प्रभाष जी ही लाए। एक बार जयपुर में विवाह समारोह में मिले। तो हल्के-फुल्के में कहा था- ‘अच्छा लगता है। गजब का लिखते हो। पर मेरा एक शब्द चुरा लिया है।’ अपन ने भी उसी हल्के-फुल्के अंदाज में कहा- ‘चुराया नहीं, शब्द को विस्तार दिया है।’
हिंदी से शुरू होकर अंग्रेजी से होते हुए हिंदी में लौटे। तो दम तोड़ती हिंदी पत्रकारिता में जान फूंक दी। इंदौर की नई दुनिया से लंदन के मैनचस्टर गार्डियन तक पहुंचे। फिर इंडियन एक्सप्रेस के तीन जगह संपादक रहकर जनसत्ता निकाला। तो बोलचाल की भाषा में अखबार निकालने का जुनून था। पत्रकारों की भर्ती का अनोखा तरीका निकाला। जगह-जगह टेस्ट लिए। कई हजार उम्मीदवार टेस्ट में बैठे। यूपीएससी से बड़ा टेस्ट हुआ। चुने गए सिर्फ चौबीस। प्रभाष जी की चयन प्रक्रिया का मापदंड सिर्फ योग्यता नहीं था।
आप पहली टीम देखिए। एक से एक मिशनरी था। पत्रकारिता को पेशा नहीं, जनून मानने वाले लिए। संपादक बने बनवारी। समाजवादी युवजन सभा में रहे थे। रिपोर्टिंग के हेड थे रामबहादुर राय। विद्यार्थी परिषद के ‘होल टाइमर’ थे। जयप्रकाश शाही- नक्सलियों के करीब थे। सुरेंद्र किशोर- खुद की तरह गांधीवादी। हरिशंकर व्यास- पहले संघ के साप्ताहिक पांचजन्य में रहे थे। गोपाल मिश्र- बाद में कांग्रेस साप्ताहिक के संपादक बने। महादेव चौहान-घोर लेफ्टिस्ट। परमानंद पांडे, उमेश जोशी- ट्रेड यूनियनिस्ट। सोचो, क्या रहा होगा प्रभाष जी के मन में। मन में था- बीट पर एक्सपर्ट बिठाना। ऐसे मिशनरी पत्रकार- जो जनूनी बनकर लिखें। अपनी विचारधारा के हक में लिखे। तो जमकर लिखें। विरोधियों की बखियां उधेड़ें तो जमकर उधेड़ें। उनने न किसी रिपोर्टर को खबर लिखने से टोका। न लिखी हुई खबर को कभी छपने से रोका। उनने हिंदी पत्रकारिता में ही जान नहीं फूंकी। लोकतंत्र में भी जान फूंकी। जनूनी पत्रकार ढूंढ-ढूंढकर लाए। तो राकेश कोहरवाल जैसे शुद्ध खबरची भी ढूंढे। सरकारी दफ्तरों में रिश्वत से कुछ भी करा लो। यह साबित करने की अनोखा तरीका निकाला था राकेश ने। दिल्ली की सबसे ऊंची सरकारी इमारत थी विकास मीनार। राकेश ने विकास मीनार की रजिस्ट्री नाम कराकर अखबार में छाप दी।
डेस्क पर काम करने वालों को आजादी देने के तो अपन खुद गवाह। तीन साल तक प्रभाष जी के साथ अपन ने भी कलम घसीटी। डेस्क पर आकर सब एडिटर की तरह बैठ जाते थे। खबर बनाकर हैडिंग निकालने को दे देते थे। अपने बने हैडिंग को सुधारने को कह देते थे। अपना लेख देकर सब एडिटर से कहते थे- ‘देख लो, कुछ ऊंचा-नीचा छप गया। तो तुम्हारी जिम्मेदारी।’
आड़े वक्त में अठारह-अठारह घंटे खुद डेस्क पर बैठ जाते। तो सब एडिटर भी जनूनियों की तरह भिड़ जाते। वक्त की कोई सीमा नहीं थी। जनसत्ता एक आंदोलन था। जो न राजनीतिज्ञों की जुबान था। न उद्योगपतियों के हाथ का खिलौना। प्रभाष जी ने आम आदमी का उसी की बोली में अखबार निकाला। हिंदी को जनभाषा बनाने का भी जनून था प्रभाष जी में। हिंदी को आसान बनाने की ऐसी कोशिश पहले किसी ने नहीं की। वह कहा करते थे- अखबार साहित्य नहीं है। आम आदमी के लिए है अखबार। आम आदमी की बोली में निकाला जाए। इसीलिए बिंदियों और आधे शब्दों से नफरत करते थे प्रभाष जी। अखबारों में ‘सर’ की परंपरा के खिलाफ थे प्रभाष जी। इसीलिए अपन सब के लिए वह प्रभाष जी ही थे।
लेखक अजय सेतिया वरिष्ठ पत्रकार हैं.