इंदौर की माटी में रचे-बसे व बड़े होने के बाद भी बहुत दुख के साथ यह इसलिए लिखना पड़ रहा है कि जब पत्रकारिता के पुरोधा प्रभाष जोशी का शव राज्य सरकार के विशेष विमान से शुक्रवार शाम इंदौर विमानतल पर लाया गया तब वहां गिने हुए चार पत्रकार, एक फोटोग्राफर व एक लोकल चैनल के कैमरामैन के अलावा पत्रकार बिरादरी से कोई मौजूद नहीं था। जो दूसरे शख्स वहां मौजूद थे उनमें सांसद सज्जनसिंह वर्मा व उद्योगपति किशोर वाधवानी के अलावा कांग्रेस के आधा दर्जन नेता, चार-छह रिश्तेदार, चचेरे भाई महेंद्र जोशी व सुख-दुख के साथी सुरेंद्र संघवी शामिल हैं। जिन प्रभाष जोशी को दिल्ली से अंतिम विदाई देने के लिए उनके वसुंधरा स्थित निवास से गांधी प्रतिष्ठान व दिल्ली विमानतल तक पत्रकार बिरादरी के सैकड़ों साथ रहे हों वहीं उनके प्रिय इंदौर में ऐसा क्यों हुआ, यह समझ से परे है।
जिस शहर को हिंदी पत्रकारिता की नर्सरी कहा जाता है, जहां की पत्रकार बिरादरी ने षष्ठिपूर्ति के मौके पर प्रभाषजी को वह सम्मान दिया जो कभी भुलाया नहीं जा सकेगा वहां हमारे अपने प्रभाषजी के साथ दुनिया छोड़ने के बाद ऐसा सलूक होगा, यह किसी ने सोचा भी नहीं होगा। शनिवार सुबह का नजारा तो और चौंकाने वाला था। जिस समय मोतीतबेला स्थित निवास से पत्रकारिता के इस पुरोधा की अंतिम यात्रा शुरू हो रही थी, तब एक सांसद, छह विधायक, एक महापौर, कई दिग्गज राजनेताओं व आला अफसरों की फौज वाले इस शहर में केवल एक विधायक अश्विन जोशी व सभापति शंकर लालवानी उन्हें विदाई देने पहुंचे।
उम्र के 80 से ज्यादा बसंत देख चुके पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद जहां अपने अभिन्न सखा को विदाई देने उनके गृहनगर पहुंचे और अंतिम यात्रा में भी चले वहीं मध्य प्रदेश सरकार का कोई नुमाइंदा न तो उनकी अंतिम यात्रा में दिखा, न ही नर्मदा किनारे खेड़ीघाट पर जहां बिलखते लोगों के बीच उन्हें अंतिम विदाई दी गई। साधुवाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमनसिंह को जिन्होंने अपने नुमाइंदे प्रमुख सचिव चितरंजन खेतान को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के लिए इंदौर पहुंचाया। मोतीतबेला में घर पर मौजूद लोगों की आंखें इस मौके पर शहर के उन लोगों को भी तलाश रही थीं जिनकी कलम की तूती इस शहर में बोलती है, जो लंबी-चौड़ी टीम का नेतृत्व करने का दावा करते हैं या फिर जो सालों से प्रभाषजी से अपनी प्रगाढ़ता के दावे करते नहीं चूकते हैं।
हिंदी पत्रकारिता के गढ़ और जिंदादिल कहे जाने वाले इस शहर में यह जड़ता कैसे आ गई, इसका जवाब अब हम भी नहीं दे पा रहे हैं। जो शहर अपने किसी अतिथि के स्वागत में पलक-पांवडे बिछा देता है या फिर ऐसी अंतिम विदाई देता है जो सालों तक लोगों के मानस पटल पर अंकित रहे, वहां आखिर ऐसा क्यों हुआ?
खेड़ीघाट पर शनिवार दोपहर जब दिवंगत आत्मा के बड़े बेटे संदीप उनकी चिता को मुखाग्नि दे रहे थे तब रामबहादुर राय, नरेंद्र कुमार सिंह, राहुल देव, हेमंत शर्मा, आत्मदीप, कुमार संजाय सिंह जैसे प्रभाषजी की लंबी साधना के साथी, गोविंदाचार्य, स्वामी अग्निवेश जैसे मित्र और सुरेश पचौरी जैसे उनके प्रति श्रद्धा रखने वाले राजनेता भी शायद यह सोच रहे होंगे कि यदि अंतिम विदाई का यह स्थान दिल्ली का मुक्तिधाम होता तो पांव रखने की जगह नहीं मिलती और देश की हर बड़ी शख्सीयत वहां मौजूद रहती।
यहां फिर मध्यप्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा करना जरूरी है। क्या सरकार जनसंपर्क मंत्री या जनसंपर्क आयुक्त जैसे अपने किसी नुमाइंदे को खेड़ीघाट नहीं भेज सकती थी, क्या खरगोन के कलेक्टर व एसपी भी सरकार की नुमाइंदगी नहीं कर सकते थे? क्या उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था में सरकार भागीदार नहीं बन सकती थी? आखिर ऐसी असंवेदनशीलता क्यों? महज मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के प्रभाषजी के निवास पर जाकर पुष्पचक्र अर्पित करने और उनके शव दिल्ली से लाने के लिए स्टेट प्लेन की व्यवस्था करके ही सरकार ने अपने को दायित्व से मुक्त मान लिया था।
यदि सुरेंद्र संघवी और प्रवीण खारीवाल व अन्ना दुराई जैसे प्रभाषजी के मित्र और शिष्य, पद्मविलोचन शुक्ला जैसे इंदौर के पत्रकारों से आत्मीयता रखने वाले अफसर या बड़वाह के पत्रकार साथी ब्रजेंद्र जोशी, सतीश केवट, सुधीर सेंगर व्यवस्था नहीं करते तो शायद प्रभाषजी के परिजनों को उनके अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी, कंडे और काठी भी अपने कंधों पर उपर से रखकर नर्मदा किनारे रखकर ले जाना पडती, अंतिम विदाई देने पहुंचे लोगों को नर्मदा किनारे तपते पत्थरों पर बैठना पडता और भैरोसिंहजी जैसे बुजुर्गवार को टेंट के अभाव में छाया के लिए किसी से गमछा मांगकर सिर पर लपेटकर बैठना होता।
प्रभाषजी हमें दुख है, हम शर्मिंदा है, आपसे माफी चाहते हैं और यह सोचने को मजबूर हैं कि आखिर हमारे इंदौर इतना असंवेदनशील कैसे हो गया है?