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चैनल, केबल, टीआरपी, गोद, कोख, ठहाका

पुण्य प्रसून बाजपेयीइस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलों में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि ‘अरे, यह तो पत्रकार है’ :  वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो, उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं। राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे, वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।

पुण्य प्रसून बाजपेयी

पुण्य प्रसून बाजपेयीइस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलों में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि ‘अरे, यह तो पत्रकार है’ :  वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो, उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं। राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे, वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।

सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरू कर दिया है। कोख की बात बाद में, पहले गोद की बात।

न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ-साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है। यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है। कोई संपादक कितना क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारों के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे, लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है।

लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हो तो राज्य सभा में जाने के लिये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है। असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बड़ी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बड़ा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है। मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थू खैरा नहीं निकाल पायेंगे। लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है।

असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है। और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है। कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है। किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरू करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड़ आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड़ पार होती है। मंदी में भी यह कमाई सौ करोड़ से कम नही हुई। जाहिर है, न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड़ घरों में कोई अखबार पहुंच नहीं सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नहीं सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बड़ी तादाद में एक साथ लोग खबरों को देख-सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उड़ान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये कोई केबल नेटवर्क है, उस पर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया। किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे। यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नहीं सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है। सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तराखंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है। यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरू होता है। टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोड़ों लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरिये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है।

आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है। लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरू होती है। कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिस पर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे़ नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है। यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादकों से गुहार लगाती थी कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरें दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्योंकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ़ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वायएसआर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया। आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है। पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्ध में राज ठाकरे ने सेंध लगाना शुरू कर दिया है। तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह केबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरूर गया है।

इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता कराता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नहीं, सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड़ में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरूर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है।

किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें। किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे। जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकूल न्यूज चैनलों पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सब कुछ ठंडे बस्ते में डाला गया। लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये, यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है। पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे, पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्रांति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलों में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे, यह तो पत्रकार है।


लेखक पुण्य प्रसून बाजपेयी मशहूर पत्रकार हैं। इन दिनों वे ‘जी न्यूज’ में बतौर संपादक कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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